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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यो रा॒यो॒३॒॑वनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । रा॒यः । अ॒वनिः॑ । म॒हान् । सु॒ऽपा॒रः । सु॒न्व॒तः । सखा॑ । तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो रायो३वनिर्महान्त्सुपारः सुन्वतः सखा। तस्मा इन्द्राय गायत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। रायः। अवनिः। महान्। सुऽपारः। सुन्वतः। सखा। तस्मै। इन्द्राय। गायत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशः किमर्थं स्तोतव्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो मनुष्याः ! यो महान्सुपारः सुन्वतः सखा रायोऽवनिः करुणामयोऽस्ति यूयं तस्मै तमिन्द्रायेन्द्रं परमेश्वरमेव गायत नित्यमर्चत॥१०॥

    पदार्थः

    (यः) परमेश्वरः करुणामयः (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अवनिः) रक्षकः प्रापको दाता (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः (सुपारः) सर्वकामानां सुष्ठु पूर्त्तिकरः (सुन्वतः) अभिगतसोमविद्यस्य धार्मिकस्य मनुष्यस्य (सखा) सौहार्द्देन सुखप्रदः (तस्मै) तमीश्वरम् (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवन्तम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगिति द्वितीयैकवचनस्थाने चतुर्थ्येकवचनम्। (गायत) नित्यमर्चत। गायतीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४)॥१०॥

    भावार्थः

    नैव केनापि केवलं परमेश्वरस्य स्तुतिमात्रकरणेन सन्तोष्टव्यं किन्तु तदाज्ञायां वर्त्तमानेन स नः सर्वत्र पश्यतीत्यधर्मान्निवर्त्तमानेन तत्सहायेच्छुना मनुष्येण सदैवोद्योगे प्रवर्त्तितव्यम्॥१०॥एतस्य विद्यया परमेश्वरज्ञानात्मशरीरारोग्यदृढत्वप्राप्त्या सदैव दुष्टानां विजयेन पुरुषार्थेन च चक्रवर्त्तिराज्यं धार्मिकैः प्राप्तव्यमिति संक्षेपतोऽस्य चतुर्थसूक्तोक्तार्थस्य तृतीयसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्यार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभि-रन्यथैव व्याख्या कृतेति वेदितव्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी वह परमेश्वर कैसा है और क्यों स्तुति करने योग्य है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो ! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख देने, तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और उनका देनेवाला करुणामय परमेश्वर है, (तस्मै) उसकी तुम लोग (गायत) नित्य पूजा किया करो॥१०॥

    भावार्थ

    किसी मनुष्य को केवल परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र देखता, है, इसलिये अधर्म से निवृत्त होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्त्तमान रहना चाहिये॥१०॥इस सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ की तृतीय सूक्त में कहे अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये।आर्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपखण्डवासी अध्यापक विलसन आदि साहबों ने इस सूक्त की भी व्याख्या ऐसी विरुद्ध की है कि यहाँ उसका लिखना व्यर्थ है॥

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    विषय

    कार्य - पारण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति पर धन - साति [प्राप्ति] के लिए प्रभु - अर्चना का उल्लेख है । उसी भाव से प्रस्तुत मन्त्र को प्रारम्भ करते हुए कहते हैं कि (यः) - जो (रायः) - धनों का (अवनिः) - रक्षक व स्वामी अथवा धन के [अव - भागदुघ] उचित भाग का सबके लिए पूरण करनेवाला है (तस्मा इन्द्राय) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (गायत) - गान करो  , उसका अर्चन करो । 
    २. वे प्रभु (महान्) [मह पूजायाम्] - सभी से पूजा के योग्य हैं  , (सुपारः) - सुगमता से कार्यों को पार लगानेवाले हैं  , अर्थात् सब कार्यों में सफलता वे प्रभु ही प्राप्त कराया करते हैं । 
    ३. (सुन्वतः) - यज्ञशील पुरुष के (सखा) - वे मित्र हैं अथवा सोमसम्पादन करनेवाले के  , वीर्य का शरीर में ही संयम करनेवाले के वे प्रभु मित्र हैं । प्रभु की प्राप्ति उन्हीं को होती है जो शरीर में सोम की रक्षा करते हैं और यज्ञशील बनते हैं । 


     

    भावार्थ

    भावार्थ - धन देनेवाले वे प्रभु ही हैं  , अतः उन्हीं का गायन करना चाहिए । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ सुरूपकृत्नु प्रभु की प्रार्थना से हुआ है । 
    १. उसके लिए प्रभु ने कुछ बातें कही हैं - 
    [क] यज्ञों के करनेवाले बनो  , [ख] सोम की रक्षा करो  , [ग] दान देने में आनन्द का अनुभव करो । 
    २. [घ] ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करो  , 
    ३. [ङ] निन्दा मत करो  , [च] व्यर्थ के कामों से बचो  , [छ] प्रभु की परिचर्या करो  , क्योंकि 
    ४. वे प्रभु ही महान्  , सुपार व यज्ञशीलों के सखा हैं । अब उस प्रभु के सम्मिलित गान के लिए निर्देश करते हुए कहते हैं कि - 
     

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    विषय

    फिर भी वह परमेश्वर कैसा है और क्यों स्तुति करने योग्य है, इस विषय का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः मनुष्याः ! यो महान् सुपारः सुन्वतः सखा रायःअवनिः करुणामयःअस्ति यूयं तस्मै तम् इन्द्राय इन्द्रं परमेश्वरं एव गायत नित्यम् अर्चत॥१०॥ 

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)= विद्वान्, (मनुष्याः)= मनुष्य लोग ! (यः) परमेश्वरः करुणामयः= जो परमेश्वर करुणामयःहै,  (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः=  सबसे महान्, (सुपारः) सर्वकामानां सुष्ठु पूर्त्तिकरः=सबकी कामनाओं को अच्छी तरह से पूर्ण करने वाला है, (सुन्वतः) अभिगतसोमविद्यस्य धार्मिकस्य मनुष्यस्य= प्राप्त हुए सोम विद्या वाले धर्मात्मा पुरुष को, (सखा) सौहार्द्देन सुखप्रदः=मित्र, (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य= विद्या, सुवर्ण आदि धन का, (अवनिः) रक्षकः प्रापको दाता= रक्षक और जीवों को देने वाला दाता, (करुणामयः)= करुणामय, (अस्ति) =है, (यूयम्)=तुम सब. (तस्मै) तमीश्वरम् = उस ईश्वर की, (एव)=ही, (गायत) नित्यमर्चत= नित्य पूजा करो ॥१०॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    किसी मनुष्य को केवल परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र देखता है, इसलिये अधर्म से निवृत्त होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्त्तमान रहना चाहिये॥१०॥

    विशेष

    सूक्त का भावार्थ- इस सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ की तृतीय सूक्त में कहे अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिए।
    महर्षि के द्वारा सायण व विल्सन के भाष्य पर की गई टिप्पणी- आर्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपखण्डवासी अध्यापक विलसन आदि साहबों ने इस सूक्त की भी व्याख्या ऐसी विरुद्ध की है कि यहाँ उसका लिखना व्यर्थ है॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः) विद्वान्, (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यः) जो परमेश्वर करुणामयःहै [और]  (महान्) सबसे महान्, (सुपारः) सबकी कामनाओं को अच्छी तरह से पूर्ण करने वाला है। (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोम विद्या वाले धर्मात्मा पुरुष का (सखा) मित्र [और]  (रायः) विद्या, सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और जीवों को देने वाला दाता, (करुणामयः) करुणामय (अस्ति) है। (यूयम्) तुम सब (तस्मै) उस ईश्वर की (एव) ही (गायत) नित्य पूजा करो ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) परमेश्वरः करुणामयः (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अवनिः) रक्षकः प्रापको दाता (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः (सुपारः) सर्वकामानां सुष्ठु पूर्त्तिकरः (सुन्वतः) अभिगतसोमविद्यस्य धार्मिकस्य मनुष्यस्य (सखा) सौहार्द्देन सुखप्रदः (तस्मै) तमीश्वरम् (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवन्तम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगिति द्वितीयैकवचनस्थाने चतुर्थ्येकवचनम्। (गायत) नित्यमर्चत। गायतीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४)॥१०॥
    विषय- पुनः स कीदृशः किमर्थं स्तोतव्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्याः ! यो महान्सुपारः सुन्वतः सखा रायोऽवनिः करुणामयोऽस्ति यूयं तस्मै तमिन्द्रायेन्द्रं परमेश्वरमेव गायत नित्यमर्चत॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)-नैव केनापि केवलं परमेश्वरस्य स्तुतिमात्रकरणेन सन्तोष्टव्यं किन्तु तदाज्ञायां वर्त्तमानेन स नः सर्वत्र पश्यतीत्यधर्मान्निवर्त्तमानेन तत्सहायेच्छुना मनुष्येण सदैवोद्योगे प्रवर्त्तितव्यम्॥१०॥

    सूक्तस्य भावार्थः- एतस्य विद्यया परमेश्वरज्ञानात्मशरीरारोग्यदृढत्वप्राप्त्या सदैव दुष्टानां विजयेन पुरुषार्थेन च चक्रवर्त्तिराज्यं धार्मिकैः प्राप्तव्यमिति संक्षेपतोऽस्य चतुर्थसूक्तोक्तार्थस्य तृतीयसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्यार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभि-रन्यथैव व्याख्या कृतेति वेदितव्यम्॥

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    विषय

    राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यः ) जो परमेश्वर या राजा ( रायः ) ऐश्वर्य का ( महान् ) बड़ा भारी ( अवनिः ) रक्षक और दाता है । और जो ( सुपारः ) उत्तम पालन पोषण करने हारा (सुन्वतः सखा ) उपासना करने वाले, धर्मात्मा पुरुषो और अभिषेक करनेवाले प्रजाजन का ( सखा ) मित्र है । ( तस्मै इन्द्राय ) उस इन्द्र, प्रभु की (गायत) स्तुति गान करो । इत्यष्टमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही माणसाने केवळ परमेश्वराची स्तुती करून संतोष करता कामा नये, तर त्याच्या आज्ञेत राहून असे समजावे की परमेश्वर मला सर्वत्र पाहतो. त्यासाठी अधर्मापासून निवृत्त होऊन, परमेश्वराच्या साह्याची इच्छा बाळगून, माणसांनी सदैव उद्योगात राहावे. ॥ १० ॥

    टिप्पणी

    आर्यावत्तवासी सायणाचार्य इत्यादी विद्वान व युरोप खंडवासी अध्यापक विल्सन इत्यादी साहेबांनी या सूक्ताची व्याख्या विपरीत केलेली आहे, ते लिहिणे व्यर्थ आहे.

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    People of the land and children of Indra, sing and celebrate the glories of Indra, lord supreme of life and light, great and glorious, creator and protector of wealth, saviour pilot across the seas, and friend of the makers of soma.

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, how is that God and why is He praiseworthy, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)= learned men, (manuṣyāḥ)=men, (yaḥ)= The God who is merciful, [aura]=and, (mahān)= greatest of all, (supāraḥ)= the best fulfiller of all desires, (sunvataḥ)= of a virtuous man who has attained knowledge of Soma, (sakhā)=friend, [aura]=and, (rāyaḥ)= of knowledge, gold etc., (avaniḥ)= protector and provider of living beings, (karuṇāmayaḥ)= compassionate, (asti)=is, (yūyam)=you all, (tasmai)=of that God, (eva)=only, (gāyata)= worship regularly.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned men! The God, who is merciful and the greatest of all, the best fulfiller of all desires. The friend of the virtuous person, who has attained knowledge of Soma, the protector of wealth, gold et cetera and the provider of the living beings, is compassionate. You all worship that God regularly.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- With the said knowledge of this hymn, to accomplish the knowledge of the Supreme God to the virtuous and stable spirit of soul and body, attainment of health and victory over the wicked and attainment of Chakravarti kingdom by puruṣārtha (efforts), etc. Consistency of the meaning should be understood with the third hymn. Comments by Maharshi Dayanand on European commentrators, like Wilson etcetera– Residents of Aryavarta like Sayanacharya etc., scholars have also interpreted this mantra in such a way that it is useless to write it here.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- One should not be satisfied with merely praising God, but by obeying Him and understanding that God observes him everywhere, therefore by abstaining from unrighteousness and seeking God's help, one should always be engaged in diligence.

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    Translation

    We sing the glory of that almighty, who is the source of wisdom and the accomplished of good deeds. Let us acclaim Him to be the friend of the dedicated and the best amongst all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of that Indra (God) and why should He be glorified is taught in the tenth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned people, always worship that Great God who being merciful is the Protector, Accomplisher and Giver of wealth (both material in the form of gold etc. and spiritual in the form of Wisdom), who is Mighty, the Fulfiller of all noble desires, the friend of the person who is full of knowledge and righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुन्वतः) अभिगतधर्मविद्यस्य मनुष्यस्य = Of a learned and righteous person. (गायत) अर्चत गायतीत्यर्चति कर्मा (निघ० ३.१४.१०) = Worship. (राय:) विद्यासुवर्णादिधनस्य राय इति धननामसु ( निघ. २.१०)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A man should not rest content only with the glorification of God, but should obey God's commands and refrain from doing un- righteous deeds, knowing that God sees all. He Should desire God's help and be engaged in doing noble actions.

    Translator's Notes

    (अवनिः) रक्षक: प्रापको दाता वा Among various meanings of the root a three meanings have been taken by Rishi Dayananda here, Protector, Accomplisher and Giver. "This 4th hymn deals with knowledge, health, strength of body and firmness, by the help of which righteous persons should attain vast Kingdom industriously and should restrain wicked people. Thus it has connection with the third hymn. This hymn also has been wrongly interpreted by. Sayanacharya, Prof. Wilson and others.

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