ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठअथ॑ । ते॒ । अन्त॑मानाम् । वि॒द्याम॑ । सु॒ऽम॒ती॒नाम् । मा । नः॒ । अति॑ । ख्यः॒ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अति ख्य आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठअथ। ते। अन्तमानाम्। विद्याम। सुऽमतीनाम्। मा। नः। अति। ख्यः। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
येनायं सूर्य्यो रचितस्तं कथं जानीमेत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे परमैश्वर्य्यवन्निन्द्र परमेश्वर ! वयं ते तवान्तमानामर्थात्त्वां ज्ञात्वा त्वन्निकटे त्वदाज्ञायां च स्थितानां सुमतीनामाप्तानां विदुषां समागमेन त्वां विजानीयाम। त्वन्नोऽस्मानागच्छास्मदात्मनि प्रकाशितो भव। अथान्तर्यामितया स्थितः सन्सत्यमुपदेशं मातिख्यः कदाचिदस्योल्लङ्घनं मा कुर्य्याः॥३॥
पदार्थः
(अथ) अनन्तरार्थे। निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यमेषामस्ति तेऽन्तिकाः, अतिशयेनान्तिका अन्तमास्तत्समागमेन। अत्रान्तिकशब्दात्तमपि कृते पृषोदरादित्वात्तिकलोपः। अन्तमानामित्यन्तिकनामसु पठितम्। (निघं०२.१६) (विद्याम) जानीयाम (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्रे परोपकारे धर्माचरणे च श्रेष्ठा मतिर्येषां मनुष्याणां तेषाम्। मतय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (अतिख्यः) उपदेशोल्लङ्घनं मा कुर्याः (आगहि) आगच्छ॥३॥
भावार्थः
यदा मनुष्या धार्मिकाणां विद्वत्तमानां सकाशाच्छिक्षाविद्ये प्राप्नुवन्ति तदा पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तान् पदार्थान् विदित्वा सुखिनो भूत्वा पुनस्ते नैव कदाचिदन्तर्यामीश्वरोपदेशं विहायेतस्ततो भ्रमन्तीति॥३॥
हिन्दी (5)
विषय
जिसने सूर्य्य को बनाया है, उस परमेश्वर ने अपने जानने का उपाय अगले मन्त्र में जनाया है-
पदार्थ
हे परम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर ! (ते) आपके (अन्तमानाम्) निकट अर्थात् आपको जानकर आपके समीप तथा आपकी आज्ञा में रहनेवाले विद्वान् लोग, जिन्हों की (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्र परोपकाररूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि हो रही है, उनके समागम से हम लोग (विद्याम) आपको जान सकते हैं, और आप (नः) हमको (आगहि) प्राप्त अर्थात् हमारे आत्माओं में प्रकाशित हूजिये, और (अथ) इसके अनन्तर कृपा करके अन्तर्यामिरूप से हमारे आत्माओं में स्थित हुए सत्य उपदेश को (मातिख्यः) मत रोकिये, किन्तु उसकी प्रेरणा सदा किया कीजिये॥३॥
भावार्थ
जब मनुष्य लोग इन धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार से सुखी होके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर नहीं भ्रमते॥३॥
पदार्थ
पदार्थ = हे इन्द्र ( ते अन्तमानाम् ) = आपके समीपवर्ती- आपकी आज्ञा में स्थित ( सुमतीनाम् ) = श्रेष्ठबुद्धिवाले महात्माओं के समागम से ( विद्याम ) = आपके यथार्थ स्वरूप को हम जान लेवें और आपके ( नः ) = हमको ( मा अतिख्य: ) = हमारे हृदय में स्थित हुए महात्माओं के उपदेश का उल्लंघन करनेवाला मत बनाओ किन्तु ( आगहि ) = प्राप्त होओ।
भावार्थ
भावार्थ = हे परमात्मन्! आप हमें सदाचारी, परोपकारी, विद्वान् अपने भक्त, महात्मा सन्तजनों का सत्सङ्ग दो क्योंकि सत्सङ्ग के प्रभाव से अनेक नीच उत्तम बन गये, मूर्ख विद्वान् बन गये। जिनको प्रथम कोई नहीं जानता था, माननीय कीर्तिवाले बन गये । दुराचारी दुर्व्यसनी पतित भी आपके अनन्य भक्त वे सदाचारी और पतितपावन बन गये। सत्सङ्ग से जो-जो लाभ होते हैं, वे लिखे वा कहे नहीं जा सकते । इसलिए पिताजी ! आपने हमको वेद द्वारा कहा है कि तुम मेरे से सत्संग की प्रार्थना करो, जिससे तुम्हारा यह मनुष्य जन्म सफल हो । बिना सत्संग के श्रद्धाहीन महामलीन पराधीन निशदिन विषयों में लवलीन, व्यर्थ बकबक करनेवालों को कुछ भी लाभ नहीं होता ।
विषय
आचार्य व अन्तेवासी अथा
पदार्थ
१. प्रभु के उपरितन निर्देशों को सुनकर उनको पाल सकने के लिए शान्ति की याचना करता हुआ जीव प्रार्थना करता है कि (अथा) - अब इस सोम का पान करने की कामनावाले हम साधक (ते) - आपकी (अन्तमानाम्) - अन्तिकतम , अत्यन्त समीप वर्तमान , अर्थात् आपके हमारे हृदयों में स्थित होने के कारण अधिक-से-अधिक समीप विद्यमान (सुमतीनाम्) - उत्तम मतियों , ज्ञानों व विचारों का (विद्याम) - हम ज्ञान प्राप्त करें । हृदयस्थ आपसे दिये जा रहे ज्ञान के प्रकाश को हम देखें , अर्थात् अपने ही अन्दर विद्यमान आपके ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करने के लिए हम सदा प्रयत्नशील हों । यही प्रयत्न पूर्वमन्त्र में 'यज्ञ , सोमपान व दान' से संकेतित हुआ है । हम यज्ञशील होंगे , वीर्य की रक्षा के लिए संयमी जीवनवाले बनेंगे और यज्ञवृत्ति को अपनाकर लोभ से ऊपर उठेंगे तो अन्तः स्थित आपके प्रकाश को क्यों न देखेंगे ?
२. हे प्रभो ! आप (नः) हमें (अति) - लाँघकर दूसरों को ही (मा ख्यः) - ज्ञान देनेवाले न हों , अर्थात् हम आपके इस ज्ञान - दान के अयोग्य न समझे जाएँ । हम सर्वप्रथम आपसे ज्ञान प्राप्त करें ।
३. (आगहि) - आप हमें अवश्य प्राप्त होओ । हम सदा प्रभु से ज्ञानप्राप्ति के अभिलाषी बने रहेंगे , तभी हमें प्रभु - सम्पर्क सुलभ रहेगा । प्रभु का मेल और किस कार्य के लिए होगा? प्रभु आचार्य होंगे , मैं उनका विद्यार्थी होऊँगा , तभी सुमतियों का लाभ हो पाएगा और हम उस प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान से वञ्चित न होंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु आचार्य हों , मैं उनका विद्यार्थी - अन्तेवासी बनकर सुमति का लाभ करूँ ।
विषय
जिसने सूर्य्य को बनाया है, उस परमेश्वर ने अपने जानने का उपाय इस मन्त्र में जनाया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे परमैश्वर्य्यवन् इन्द्र परमेश्वर ! वयं ते तव अन्तमानाम् अर्थात् त्वां ज्ञात्वा त्वन्निकटे त्वदाज्ञायां च स्थितानां सुमतीनाम् आप्तानाम् विदुषां समागमेन त्वां विजानीयाम। त्वं नः अस्मान् आगच्छ अस्मदात्मनि प्रकाशितो भव। अथ अन्तर्यामितया स्थितः सन् सत्यम् उपदेशं मातिख्यः कदाचित् अस्य उलङ्घनं मा कुर्य्याः॥३॥
पदार्थ
हे (परमैश्वर्य्यवन्) परमेश्वर ! (वयम्)=हम, (ते) तव=आपके, (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यमेषामस्ति तेऽन्तिकाः, अतिशयेनान्तिका अन्तमास्तत्समागमेन=आपके समीप में रहनेवाले लोग, (अर्थात्)= अर्थात् (त्वाम्)=आपको, (ज्ञात्वा)=जानकर, (त्वन्निकटे)=आपके निकट, (त्वत्)=आपके, (आज्ञायाम)=आदेश में, (च)=भी, (स्थितानाम्)=रहने वालों का, (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्रे परोपकारे धर्माचरणे च श्रेष्ठा मतिर्येषां मनुष्याणां तेषाम्= वेदादिशास्त्र परोपकाररूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि हो रही है, उन मनुष्यों को, (विदुषाम्)= विद्वानों की, (समागमेन)=संगति से, (त्वाम्)=आपको, (विजानीया)=जानकर, (त्वम्)=आप, (नः) अस्मान्=हमारे, (आगच्छ)= प्राप्त होकर, (अस्मत्)=हमारी, (आत्मनि)=आत्मा में, (प्रकाशितः)= प्रकाशित, (भव)= हूजिये, (अथ) अनन्तरार्थे= इसके अनन्तर, (अन्तर्यामितया)=अन्तर्यामी रूप से, (स्थितः)=उपस्थित, (सन्)= होते हुए, (सत्यम्)=सत्य, (उपदेशम्)=उपदेश, (मा)=नहीं, (अतिख्यः) उपदेशोल्लङ्घनं मा कुर्याः=उपदेश का उल्लघंन न करें॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जब मनुष्य लोग इन धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार से सुखी हो करके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर भ्रमण नहीं करते हैं॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (परमैश्वर्य्यवन्) परमेश्वर ! (वयम्) हम (ते) आपके (अन्तमानाम्) समीप में रहने वाले लोग (अर्थात्) अर्थात् (त्वाम्) आपको (ज्ञात्वा) जानकर (त्वन्निकटे) आपके निकट (त्वत्) आपके (आज्ञायाम) आदेश में (च) भी (स्थितानाम्) रहने वालों का (सुमतीनाम्) वेदादि शास्त्र में कहे गये परोपकार रूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि है, जिनकी (विदुषाम्) उन विद्वानों की (समागमेन) संगति से (त्वाम्) आपको (विजानीया) जानते हैं। (त्वम्) आप (नः) हमें (आगच्छ) प्राप्त होकर, (अस्मत्) हमारी (आत्मनि) आत्मा में (प्रकाशितः) प्रकाशित (भव) हूजिये। (अथ) इसके बाद में (अन्तर्यामितया) आप अन्तर्यामी रूप से (स्थितः) उपस्थित (सन्) होते हुए (सत्यम्) सत्य के (उपदेशम्) उपदेश का (अतिख्यः) उल्लघंन न करें ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अथ) अनन्तरार्थे। निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यमेषामस्ति तेऽन्तिकाः, अतिशयेनान्तिका अन्तमास्तत्समागमेन। अत्रान्तिकशब्दात्तमपि कृते पृषोदरादित्वात्तिकलोपः। अन्तमानामित्यन्तिकनामसु पठितम्। (निघं०२.१६) (विद्याम) जानीयाम (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्रे परोपकारे धर्माचरणे च श्रेष्ठा मतिर्येषां मनुष्याणां तेषाम्। मतय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (अतिख्यः) उपदेशोल्लङ्घनं मा कुर्याः (आगहि) आगच्छ॥३॥
विषयः- येनायं सूर्य्यो रचितस्तं कथं जानीमेत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे परमैश्वर्य्यवन्निन्द्र परमेश्वर ! वयं ते तवान्तमानामर्थात्त्वां ज्ञात्वा त्वन्निकटे त्वदाज्ञायां च स्थितानां सुमतीनामाप्तानां विदुषां समागमेन त्वां विजानीयाम। त्वन्नोऽस्मानागच्छास्मदात्मनि प्रकाशितो भव। अथान्तर्यामितया स्थितः सन्सत्यमुपदेशं मातिख्यः कदाचिदस्योल्लङ्घनं मा कुर्य्याः॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा मनुष्या धार्मिकाणां विद्वत्तमानां सकाशाच्छिक्षाविद्ये प्राप्नुवन्ति तदा पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तान् पदार्थान् विदित्वा सुखिनो भूत्वा पुनस्ते नैव कदाचिदन्तर्यामीश्वरोपदेशं विहायेतस्ततो भ्रमन्तीति॥३॥
विषय
राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(अथ) और हे परमेश्वर ! हे राजन् ! ( ते ) तेरे (अन्तमानां) अति समीप प्राप्त, ( सुमतीनां ) उत्तम ज्ञानयुक्त श्रेष्ठ, धर्मात्मा पुरुषों के उत्तम उपदेश से तेरा (विद्याम) ज्ञान करें । तू ( नः ) हमें ( मा अति ख्यः) त्याग मत कर, हमारी उपेक्षा मत कर । ( नः आगहि ) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥ ॥ १ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणसे धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानांच्या संगतीने शिक्षण व विद्या प्राप्त करतात तेव्हा पृथ्वीपासून परमेश्वरापर्यंत पदार्थांच्या ज्ञानाने विविध प्रकारे सुखी होतात. त्यानंतर ते अंतर्यामी ईश्वराच्या उपदेशाला सोडून कधी इकडे तिकडे भ्रमित होत नाहीत. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, lord of light and knowledge, come, so that we know you at the closest of those who are established in you and hold you in their heart and vision. Come, lord of life, come close, forsake us not.
Subject of the mantra
God, who has created Sun, He has acquainted with method of knowing himself in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (paramaiśvaryyavan)=God, (vayam)=we, (te)=your, (antamānām)=people living near you, (arthāt)=in other words, (tvām)=to you, (jñātvā)=knowing, (tvannikaṭe)=in your proximity, (tvat)=your, (ājñāyāma)=by order, (ca)=also, (sthitānām)=of dwellers, (sumatīnām)=those who have excellent intellect of doing philanthropy etc. religious duties as per vedas etc. scriptures, (viduṣām)=of those scholars, (samāgamena)=in association, (tvām)=to you, (vijānīyā)=know, (tvam)=you, (naḥ)=to us, (āgaccha)=getting obtained, (asmat)=our, (ātmani)=in soul, (prakāśitaḥ)=enlightened, (bhava)=be, (atha)=afterwards, (antaryāmitayā)=through internal senses, (sthitaḥ)=present, (san)=while happening, (satyam)=of truthfulness, (upadeśam)=of preachings, (atikhyaḥ)=kindly do not violate.
English Translation (K.K.V.)
O God! We people living near you, in other words, knowing in your proximity, by your order also, the dwellers, those who have excellent intellect of doing philanthropy etc. righteous duties as per Vedas etc. scriptures, in association of those scholars, know you. You getting obtained to us, be enlightened in our soul. After this, being present inwardly, do not violate the teaching of truth in Vedas.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
When human beings get education and learning from the union of these righteous superior scholars, then only after being happy in various ways from the knowledge of the things from earth to the Supreme God, they never move here and there except by the instruction of the inner dweller God.
Translation
You are always present in the thoughts of virtuous and right minded devotees. May we all deserve your nearness. May we be not left behind while you reveal your glory to others.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How shall we know the Creator of the sun is taught in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Lord Let us know Thee through the sermons delivered by those noble learned intelligent persons who are nearest to Thee. Come to us — be manifest in our souls. Being our innermost Spirit, inspire us with the Knowledge of the True Path and never make deprived of this boon.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अन्तमानाम् ) इति अन्तिकनामसु ( निघ० २.१६ ) मतय इति मनुष्यनामस ( निघ० २.३ )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When people receive education and instruction by sitting at the feet of the righteous scholars, they do not wander hither and thither by giving up the teaching of God. They enjoy happiness by acquiring the knowledge of all objects from the earth up to God.
बंगाली (1)
পদার্থ
অথা তে অন্তমানাং বিদ্যাম সুমতীনাম্ ।
মা নো অতি খ্য আ গহি।।৪০।।
(ঋগ্বেদ ১।৪।৩)
পদার্থঃ (অথা) হে ইন্দ্র! (তে অন্তমানাম্) তোমার সমীপবর্তী-তোমার আজ্ঞাতে স্থিত (সুমতীনাম্) শ্রেষ্ঠবুদ্ধি যুক্ত মাহাত্মার সমাগম দ্বারা (বিদ্যাম) তোমার যথার্থ স্বরূপকে আমরা অবগত হব। তুমি (নঃ) আমাদেরকে (মা অতি খ্যঃ) আমাদের হৃদয়ে স্থিত হয়ে মহাত্মাদের উপদেশের লঙ্ঘন না করিয়ে তাদের অনুবর্তী করো যেন (আ গহি) আমরা তোমাকে প্রাপ্ত হই।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! তুমি আমাদেরকে সদাচারী, পরোপকারী, বিদ্বান তোমার ভক্ত মহাত্মা-সজ্জনের সৎসঙ্গ দান করো। কেননা সৎসঙ্গের প্রভাব দ্বারা অনেক হীনাত্মাও মহৎ হয়েছেন, মূর্খ বিদ্বান হয়েছেন; যাকে প্রথমে কেউই জানতো না, এমন ব্যক্তিও মাননীয় কীর্তিসম্পন্ন হয়েছেন। দুরাচারী দুর্ব্যসনী পতিত ব্যক্তিও তোমার অনন্য ভক্ত, সদাচারী ও পতিতপাবন হয়েছেন। এজন্যই সৎসঙ্গের মহিমা অপার। সৎসঙ্গ দ্বারা যে কী লাভ হয়, তা লিখে কিংবা বলে শেষ করা সম্ভব নয়! এজন্য হে পিতা! তুমি আমাদেরকে বেদ দ্বারা উপদেশ করেছ যে- আমার হতে সৎসঙ্গ প্রার্থনা করো, যাতে তোমাদের মনুষ্য জন্ম সফল হয়। সৎসঙ্গ ব্যতীয শ্রদ্ধাহীন, মহামলিন মনযুক্ত ব্যক্তি যে পরচর্চায় দিন-রাত্রি চিন্তাশীল, সেই আবেগপ্রবণ, ব্যর্থ আক্ষেপ ও বাক্যালাপকারীর কোনও লাভ হয় না।।৪০।।
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