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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । नः॒ । निदः॑ । निः । अ॒न्यतः॑ । चित् । आ॒र॒त॒ । दधा॑नाः । इन्द्रे॑ । इत् । दुवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुवः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। ब्रुवन्तु। नः। निदः। निः। अन्यतः। चित्। आरत। दधानाः। इन्द्रे। इत्। दुवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    अन्वयः

    य इन्द्रे परमेश्वरे दुवः परिचर्य्या दधानाः सर्वासु विद्यासु धर्मे पुरुषार्थे च वर्त्तमानाः सन्ति, त उतैव नोऽस्मभ्यं सर्वा विद्या ब्रुवन्तूपदिशन्तु। ये चिदन्ये नास्तिका निदो निन्दितारोऽविद्वांसो धूर्ताः सन्ति, ते सर्व इतो देशादस्मन्निवासान्निरारत दूरे गच्छन्तु, उतान्यतो देशादपि निःसरन्तु, अर्थादधार्मिकाः पुरुषाः क्वापि मा तिष्ठेयुरिति॥५॥

    पदार्थः

    (उत) अप्येव (ब्रुवन्तु) सर्वा विद्या उपदिशन्तु (नः) अस्मभ्यम्। (निदः) निन्दितारः। ‘णिदि कुत्सायाम्’ अस्मात् क्विप्, छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (निः) नितराम्। (अन्यतः) देशात् (चित्) अन्ये (आरत) गच्छन्तु। व्यवहिताश्चेत्युपसर्गव्यवधानम्। अत्र व्यत्ययः। (दधानाः) धारयितारः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) इतः। ईयते प्राप्यते। सोऽयमिद् देशः। अत्र कर्मणि क्विप्। ततः सुपां सुलुगिति ङसेर्लुक्। (दुवः) परिचर्यायाम्॥५॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैराप्तविद्वत्सङ्गेन मूर्खसङ्गत्यागेनेत्थं पुरुषार्थः कर्त्तव्यो यतः सर्वत्र विद्यावृद्धिरविद्याहानिश्च मान्यानां सत्कारो दुष्टानां ताडनं चेश्वरोपासना पापिनां निवृत्तिर्धार्मिकाणां वृद्धिश्च नित्यं भवेदिति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर ने फिर भी इसी विषय का उपदेश मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए, सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, वे ही (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें, और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धूर्त मनुष्य हैं, वे सब हम लोगों के निवासस्थान से (निरारत) दूर चले जावें, किन्तु (उत) निश्चय करके और देशों से भी दूर हो जायें अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें॥५॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को उचित है कि आप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के सङ्ग को सर्वथा छोड़ के ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृद्धि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार दुष्टों को दण्ड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की वृद्धि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे॥५॥

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    विषय

    व्यर्थ के कार्यों से दूर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के उपदेश के अनुसार हम ज्ञानी - संयमी पुरुषों के समीप पहुँचकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो प्रयत्न करें ही (उत) - और इसके साथ ही हम (निदः) - निन्दाओं को [भावे क्विप्] (नो ब्रबन्तु) - न बोलें । हमारे मुखों से कभी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो  , वेदों के 'सूक्ता ब्रूहि' इस उपदेश का पालन करते हुए हम भद्र ही शब्द बोलें । 'ऋचं प्रपद्ये' - 'मैं सूक्तात्मक स्तुतिरूप काव्यों को ही बोलता हूँ'  , यह हमारा व्रत हो । 
    २. प्रभु कहते हैं कि (अन्यतः) दूसरे कामों से  , अर्थात् अनावश्यक  , अनुपयोगी कार्यों से (चित्) - निश्चयपूर्वक (निः आरत) - बाहर गति करनेवाले होओ  , अर्थात् ताश खेलते रहना या गपशप मारते रहना आदि कार्यों से निश्चयपूर्वक बचो । 
    ३. जब भी कभी अवकाश हो  , अर्थात् घर के कार्यों को हम कर चुके हों  , स्वाध्याय से श्रान्त हो गये हों तो हम (इत्) - निश्चयपूर्वक (इन्द्रे) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (दुवः) - परिचर्या को (दधानाः) - धारण करनेवाले हों  , प्रभु चिन्तन करनेवाले हों । 

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] हम कभी इधर - उधर निन्दा न करते फिरें  , [ख] व्यर्थ के कार्यों से दूर रहने का ध्यान करें और अवकाश के क्षणों में सदा प्रभु की परिचर्या करनेवाले बनें  , प्रभु का ही नाम जपें  , उसी के अर्थ का भावन [चिन्तन] करें । 
     

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    विषय

    ईश्वर ने फिर भी इसी विषय का उपदेश मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    य इन्द्रे परमेश्वरे दुवः परिचर्य्या दधानाः सर्वासु विद्यासु धर्मे पुरुषार्थे च वर्त्तमानाः सन्ति, ते उत एव नःअस्मभ्यं सर्वा विद्या ब्रुवन्तु उपदिशन्तु। ये चित् अन्ये नास्तिका निदः निन्दितारःअविद्वांसः धूर्ताः सन्ति, ते सर्व इतः देशात् अस्मत् निवासात् निःआरत दूरे गच्छन्तु, उत अन्यतः देशात् अपि निःसरन्तु, अर्थात् अधार्मिकाः पुरुषाः को अपि  मा तिष्ठेयुः इति॥५॥

    पदार्थ

    (ये)=जो, (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे=परमेश्वर की, (दुवः) परिचर्यायाम्= सेवा में, (दधानाः) धारयितारः= धारण किये हुए, (सर्वासु)=सब में, (विद्यासु)=विद्याओं में, (धर्मे)=धर्म, (च)=और,  (पुरुषार्थे)=पुरुषार्थ में, (वर्त्तमानाः)=विद्यमान, (सन्ति)=हैं, (ते)=वे, (उत-एव)=ही, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे, (ब्रुवन्तु) सर्वा विद्या उपदिशन्तु=समस्त विद्याओं का उपदेश करें, (ये)=जो, (चित्) अन्ये=अन्य, (नास्तिका)=नास्तिक, (निदः) निन्दितारः= निन्दक मनुष्य, (अविद्वांसः)=अविद्वान्, (धूर्ताः)= धूर्त, (सन्ति)=हैं, (ते)=वे, (सर्व)=सब, (इत्) इतः=यहां से, (देशात्)=इस देश से, (अस्मत्)=हमारे, (निवासात्)=निवास से, (निः) नितराम्=अच्छी तरह से, (आरत) गच्छन्तु=चले जायें, (दूरे)=दूर, (गच्छन्तु)= चले जायें, (उत) अप्येव=और  भी, (अन्यतः) अन्यदेशात्=अन्य देशों से, (अपि)=भी, (निः) नितराम्= अच्छी तरह से, (सरन्तु)=निकल जावें, (अर्थात्)= अर्थात्, (अधार्मिकाः)=अधार्मिक, (पुरुषाः)=लोग, (को अपि)=कोई भी,  (मा)=नहीं, (तिष्ठेयुः)=रहें॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सब मनुष्यों को उचित है कि आप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के सङ्ग को सर्वथा छोड़ के ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृद्धि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार दुष्टों को दण्ड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की वृद्धि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे॥५॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ-(1)- पुरुषार्थ- वैदिक शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ है- एक मानवीय वस्तु: जैसे इच्छा की संतुष्टि, धन की प्राप्ति, कर्तव्य का निर्वहन, और अंतिम मुक्ति।
    (2)-आप्त- महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार आप्त की परिभाषा-जो छलादि दोषरहित, धर्मात्मा, विद्वान् सत्योपदेष्टा, सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको 'आप्त' कहते हैं।  

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)-  (ये) जो (इन्द्रे) परमेश्वर की (दुवः) सेवा में (दधानाः) धारण किये हुए (सर्वासु) सब (विद्यासु) विद्याओं, (धर्मे) धर्म (च) और (पुरुषार्थे) पुरुषार्थ में (वर्त्तमानाः) विद्यमान (सन्ति) हैं। (ते) वे (उत) ही (नः) हमें (ब्रुवन्तु) समस्त विद्याओं का उपदेश करें। (ये) जो (चित्) अन्य (नास्तिका) नास्तिक, (निदः) निन्दक मनुष्य (अविद्वांसः) अविद्वान् और (धूर्ताः) धूर्त (सन्ति) हैं, (ते) वे (सर्व) सब (इत्) यहां से (देशात्) इस देश से  (अस्मत्) हमारे (निवासात्) निवास से (निः) अच्छी तरह से (दूरे) दूर (आरत-गच्छन्तु) चले जायें (उत) और  (अन्यतः) अन्य देशों से (अपि) भी (निः) अच्छी तरह से (सरन्तु) निकल जावें (अर्थात्) अर्थात् (अधार्मिकाः) अधार्मिक (पुरुषाः) लोग (को अपि) कोई भी (मा) नहीं (तिष्ठेयुः) रहें॥५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत) अप्येव (ब्रुवन्तु) सर्वा विद्या उपदिशन्तु (नः) अस्मभ्यम्। (निदः) निन्दितारः। 'णिदि कुत्सायाम्' अस्मात् क्विप्, छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (निः) नितराम्। (अन्यतः) देशात् (चित्) अन्ये (आरत) गच्छन्तु। व्यवहिताश्चेत्युपसर्गव्यवधानम्। अत्र व्यत्ययः। (दधानाः) धारयितारः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) इतः। ईयते प्राप्यते। सोऽयमिद् देशः। अत्र कर्मणि क्विप्। ततः सुपां सुलुगिति ङसेर्लुक्। (दुवः) परिचर्यायाम्॥५॥

    विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    अन्वयः- य इन्द्रे परमेश्वरे दुवः परिचर्य्या दधानाः सर्वासु विद्यासु धर्मे पुरुषार्थे च वर्त्तमानाः सन्ति, ते उतैव नोऽस्मभ्यं सर्वा विद्या ब्रुवन्तूपदिशन्तु। ये चिदन्ये नास्तिका निदो निन्दितारोऽविद्वांसो धूर्ताः सन्ति, ते सर्व इतो देशादस्मन्निवासान्निरारत दूरे गच्छन्तु, उतान्यतो देशादपि निःसरन्तु, अर्थादधार्मिकाः पुरुषाः क्वापि मा तिष्ठेयुरिति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्मनुष्यैराप्तविद्वत्सङ्गेन मूर्खसङ्गत्यागेनेत्थं पुरुषार्थः कर्त्तव्यो यतः सर्वत्र विद्यावृद्धिरविद्याहानिश्च मान्यानां सत्कारो दुष्टानां ताडनं चेश्वरोपासना पापिनां निवृत्तिर्धार्मिकाणां वृद्धिश्च नित्यं भवेदिति॥५॥

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    विषय

    राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( उत ) और चाहे ( नः ) हमारे ( निदः ) निन्दा करनेवाले जन भी ( नः ) हमें ( ब्रुवन्तु ) कहें कि ( अन्यतः चित् ) दूसरे स्थान में ( निर्-आरत ) निकल जाओ । तब भी हम लोग ( इन्द्रे इत् ) उस परमेश्वर में ( दुवः ) नाना स्तुति, परिचर्या ( दधानाः ) करते रहें । अथवा ( इन्द्रे, इत् दुवः दधानाः ) परमेश्वर की ही परिचर्या करते हुए विद्वान् जन ( नः ब्रुवन्तु ) हमें उपदेश करें । और हे (निदः ) हमारे निन्दाजनक दुष्ट पुरुषो ! ( अन्यतः चित् ) तुम अन्यत्र दूर देश में ( निर्-आरत ) निकल जाओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी आप्त धार्मिक विद्वानांची संगती करून मूर्खांची संगती पूर्णपणे सोडून असा पुरुषार्थ केला पाहिजे की, ज्यामुळे सर्वत्र विद्येची वृद्धी, अविद्येची हानी, माननीय श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार, दुष्टांना दंड, ईश्वराची उपासना इत्यादी शुभ कार्यांची वृद्धी व अशुभ कर्मांचा नित्य विनाश होत राहावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Indra, lord of light and bliss, may the wise and visionaries who cherish the divine in their heart speak to us. Let the others, ignorant, malicious and maligners be off from here.

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    Subject of the mantra

    God has again preached same subject in this mantra as well.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=Those, (indre)=of God, (duvaḥ)=in service, (dadhānāḥ)=holding, (sarvāsu)=all, (vidyāsu)=knowledge (dharme)=in religion, Our=and, (puruṣārthe)=in puruṣārtha (human efforts) , (ca) =also, (varttamānāḥ)=present, (santi)=are, (te)=they, (uta)=only, (naḥ)=to us, (bruvantu)=must preach all knowledge, (ye)=those, (cit)=others, (nāstikā)=atheists, (nidaḥ)=slanderous person, (avidvāṃsaḥ)=non scholar, (dhūrtāḥ)=cunning, (santi)=are, (te)=they, (sarva)=all, (it)=from here, (deśāt)=from this country, (asmat)=from our, (nivāsāt)=from residence, (niḥ)=properly, (ārata)=go away, (dūre)=far away, Uta=and also, (anyataḥ)=from other countries as well, (api)=also, (sarantu)=go out, (arthāt)t=in other words, (adhārmikāḥ)=non-religious, (puruṣāḥ)=persons, (ko api)=anyone too, (mā)=not, (tiṣṭheyuḥ)=stay.

    English Translation (K.K.V.)

    Those are present in all the disciplines, dharma and puruṣārtha (human efforts) put up in the service of the God, they are all present in knowledge, dharma (righteousness) and puruṣārtha as well. They only must preach all knowledge to us. Those others, atheists, slanderous persons, non-scholars, cunnings are, they all must go away from here, from this country, from our residence far away and go out from other countries as well; no unrighteous person also must stay.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is appropriate for all human beings to have such Puruṣārtha (human efforts) by keeping company of āpta righteous scholars and leaving the company of fools so that there is growth of knowledge, loss of ignorance, respect of the best men, punishment of the wicked, worship of God etc. everywhere. May always be increase of good deeds and destruction of bad deeds.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    (1)-Puruṣārtha- According to Vedic scriptures is- A human object: as the gratification of desire, acquirement of wealth, discharge of duty, and final emancipation. (2)-āpta- Definition of āpta according to Maharishi Dayanand Saraswati – One who is devoid of deceit, virtuous, learned preacher of truth, being present with the blessings of all, destroys the darkness of ignorance and always gives light of the sun in the form of knowledge in the souls of ignorant people, is called ‘āpta'.

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    Translation

    Let our preceptors earnestly direct us to God’s devotion and exclaim : ''O evils, depart henceforth from every place".

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let those persons who are devoted to God and who are established (Well-versed) in all sciences and firm in the performance of righteous acts and Laboure, deliver discourses to us. But let those persons who are devoid of knowledge, who are in the habit of censuring others unjustly and who are wicked hypocrites, go away from our residence and also from all places i. e. let not un-righteous persons remain anywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let all people endeavor in such a manner by keeping company with the learned and by giving up the company of tup persons, that everywhere the knowledge may grow and ignorance may be dispelled, the honor to the venerable persons may be shown and proper punishment to the wicked may be given. Let there be the communion with the Almighty, keeping away from the unrighteous and growth of the righteous.

    Translator's Notes

    दुवस्यति-परिचरणकर्मा ( निघ० ३.५) =Worshipping.

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