ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । सु॒भगा॑न् । अ॒रिः । वो॒चेयुः॑ । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टयः॑ । स्याम॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥
स्वर रहित पद पाठउत। नः। सुभगान्। अरिः। वोचेयुः। दस्म। कृष्टयः। स्याम। इत्। इन्द्रस्य। शर्मणि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः कीदृशं शीलं धार्य्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे दस्म दुष्टस्वभावोपक्षेतर्जगदीश्वर ! वयं तवेन्द्रस्य शर्म्मणि खल्वाज्ञापालनाख्यव्यवहारे नित्यं प्रवृत्ताः स्याम। इमे कृष्टयः सर्वे मनुष्याः सर्वान् प्रति सर्वा विद्या वोचेयुरुपदिश्यासुर्य्यतः सत्योपदेशप्राप्तान्नोऽस्मानरिरुत शत्रुरपि सुभगान् जानीयाद्वदेच्च ॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (नः) अस्मान् (सुभगान्) शोभनो विद्यैश्वर्य्ययोगो येषां तान्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अरिः) शत्रुः (वोचेयुः) सम्प्रीत्या सर्वा विद्याः सर्वान्प्रत्युपदिश्यासुः। वचेराशिषि लिङि प्रथमस्य बहुवचने। लिङ्याशिष्यङ्। (अष्टा०३.१.८६) अनेन विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। (अष्टा०७.४.२०)अनेनोमागमः। (दस्म) दुष्टस्वभावोपक्षेतः। ‘दसु उपक्षये’ इत्यस्मात् इषि युधीन्धिदसि०। (उणा०१.१४४) अनेन मक् प्रत्ययः। (कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (स्याम) भवेम (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) नित्यसुखे। शर्मेति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) ॥६॥
भावार्थः
यदा सर्वे मनुष्या विरोधं विहाय सर्वोपकारकरणे प्रयतन्ते, तदा शत्रवोऽप्यविरोधिनो भवन्ति, यतः सर्वान्मनुष्यानीश्वरानुग्रहनित्यानन्दौ प्राप्नुतः ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
अब मनुष्यों को कैसा स्वभाव धारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे (दस्म) दुष्टों को दण्ड देनेवाले परमेश्वर ! हम लोग। (इन्द्रस्य) आप के दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों, और ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को (वोचेयुः) उपदेश करें, जिससे सत्य के उपदेश को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (अरिः) (उत) शत्रु भी (सुभगान्) श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त जानें वा कहें ॥६॥
भावार्थ
जब सब मनुष्य विरोध को छोड़कर सब के उपकार करने में प्रयत्न करते हैं, तब शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा वा निरन्तर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं ॥६॥
विषय
सुभग कृष्टि [A Fortunate Labourer]
पदार्थ
१. हे (दस्म) - शत्रुओं का क्षय करनेवाले प्रभो ! आपकी कृपा से हमारा जीवन गत मन्त्र के अनुसार इस प्रकार भद्रता को लिये हुए हो कि (अरिः) - शत्रु भी (नः) - हमें (सुभगान्) - उत्तम भाग्यशाली अथवा उत्तम ज्ञानादि - धनसम्पन्न (वोचेयुः) - कहें । हमारी भद्रता उनके हृदयों को भी प्रभावित करे । 'गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते' के अनुसार हममें गुण होंगे तो शत्रु - हदयों में वे क्यों प्रभाव पैदा न करेंगे?
२. (उत) - और (कृष्टयः) कर्षणशील , श्रमशील बनकर हम (इन्द्रस्य) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (शर्मणि) - सुख में - आनन्द में (इत्) - निश्चय से (स्याम) - निवास करनवाले हों । प्रभु की ओर से आनन्द का लाभ उन्हें ही होता है जो श्रमशील बनते हैं । अकर्मण्यता के साथ आनन्द का सम्बन्ध नहीं है ।
३. यहाँ मन्त्र में 'दस्म' शब्द शत्रुओं के नाशक का वाचक होकर स्पष्टतया यह संकेत कर रहा है कि प्रभुकृपा से हमारे काम - क्रोधादि शत्रु नष्ट हो जाएँ और हम सुन्दर जीवनवाले बनकर सचमुच सौभाग्यशाली बन जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - हम क्रोधादि से दूर होकर भद्र जीवन बिताते हुए शत्रुओं से भी सौभाग्यशाली समझे जाएँ तथा श्रमशील बनकर प्रभु के आनन्द में भागी हों ।
विषय
अब मनुष्यों को कैसा स्वभाव धारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे दस्म उपक्षयरहित जगदीश्वर ! वयं तव इन्द्रस्य शर्म्मणि खलु आज्ञापालना आख्यव्यवहारे नित्यं प्रवृत्ताः स्याम। इमे कृष्टयः सर्वे मनुष्याः सर्वान् प्रति सर्वा विद्या वोचेयुः उपदिशेर्युतः सत्योपदेश प्राप्तान् अस्मान् अरिः उत शत्रुः अपि सुभगान् जानीयात् वदेत् च ॥६॥
पदार्थ
पदार्थ- हे (दस्म) दुष्टस्वभावोपक्षेतः=दुष्टों को दण्ड देनेवाले, (उपक्षयरहित)= हानि रहित (जगदीश्वर)=परमेश्वरः! (वयम्)=हम, (तव)=आपके, (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य=परमेश्वर के, (शर्म्मणि) नित्यसुखे=नित्य सुख में, (खलु)=निश्चय ही, (आज्ञापालना)= आज्ञापालन में, (आख्यव्यवहारे)=नाम और व्यवहार में, (नित्यम्)=सदैव, (प्रवृत्ताः)= प्रवृत्त हुए, (स्याम) भवेम=हों, (इमे)=ये, (कृष्टयः) मनुष्याः=सब मनुष्य लोग, (सर्वान्)=सबके, (प्रति)= प्रति, (सर्वा)=सब, (विद्या)= विद्या, (वोचेयुः) सम्प्रीत्या सर्वा विद्याः सर्वान्प्रत्युपदिश्यासुः=प्रीतिपूर्वक सब विद्यायें सबके लिए उपदेश करें, (सत्योपदेश)= सत्य का उपदेश, (प्राप्तान्)=प्राप्त करने के लिए, (अस्मान्)=हमारे, (अरिः) शत्रुः=शत्रु, (उत) अपि =भी, (सुभगान्) शोभनो विद्यैश्वर्य्ययोगो येषां तान् =उनको जिनकी श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त है, (जानीयात्) = जानें, (वदेत्)=कहें, (च)=और ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जब सब मनुष्य विरोध को छोड़कर सब के उपकार करने में प्रयत्न करते हैं, तब शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा और निरन्तर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (दस्म) दुष्टों को दण्ड देनेवाले (उपक्षयरहित) हानि रहित (जगदीश्वर) परमेश्वरः! (वयम्) हम (तव) आप (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (शर्म्मणि) नित्य सुख में (खलु) निशचय ही (आज्ञापालना) आज्ञापालन, (आख्यव्यवहारे) नाम और व्यवहार में (नित्यम्) नित्य (प्रवृत्ताः) प्रवृत्त हुए (स्याम) हों। (इमे) ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग (सर्वान्) सबके (प्रति) प्रति, (सर्वा) सब (विद्या) विद्या (वोचेयुः) प्रीतिपूर्वक सब विद्यायें सबके लिए उपदेश करें। (सत्योपदेश) सत्य का उपदेश (प्राप्तान्) प्राप्त करने के लिए (अस्मान्) हमारे (अरिः) शत्रु (उत) भी (सुभगान्) उनको जो श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त है (जानीयात्) जानें (च) और (वदेत्) कहें ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत) अपि (नः) अस्मान् (सुभगान्) शोभनो विद्यैश्वर्य्ययोगो येषां तान्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अरिः) शत्रुः (वोचेयुः) सम्प्रीत्या सर्वा विद्याः सर्वान्प्रत्युपदिश्यासुः। वचेराशिषि लिङि प्रथमस्य बहुवचने। लिङ्याशिष्यङ्। (अष्टा०३.१.८६) अनेन विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। (अष्टा०७.४.२०)अनेनोमागमः। (दस्म) दुष्टस्वभावोपक्षेतः। 'दसु उपक्षये' इत्यस्मात् इषि युधीन्धिदसि०। (उणा०१.१४४) अनेन मक् प्रत्ययः। (कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (स्याम) भवेम (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) नित्यसुखे। शर्मेति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) ॥६॥
विषयः- मनुष्यैः कीदृशं शीलं धार्य्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे दस्मोपक्षयरहित जगदीश्वर! वयं तवेन्द्रस्य शर्म्मणि खल्वाज्ञापालनाख्यव्यवहारे नित्यं प्रवृत्ताः स्याम। इमे कृष्टयः सर्वे मनुष्याः सर्वान् प्रति सर्वा विद्या वोचेयुरुपदिश्यासुर्य्यतः सत्योपदेशप्राप्तान्नोऽस्मानरिरुत शत्रुरपि सुभगान् जानीयाद्वदेच्च ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा सर्वे मनुष्या विरोधं विहाय सर्वोपकारकरणे प्रयतन्ते, तदा शत्रवोऽप्यविरोधिनो भवन्ति, यतः सर्वान्मनुष्यानीश्वरानुग्रहनित्यानन्दौ प्राप्नुतः ॥६॥
विषय
राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे ( दस्म ) शत्रुओं और दुष्ट भावों के नाशक इन्द्र ! साधारण विद्वन् ! राजन् ! ( उत ) और ( अरिः ) हमारा शत्रु ( कृष्टयः ) और साधारण जन भी ( नः ) हमें ( सुभगान् ) ऐश्वर्यवान् और कल्याणकारी ( वोचेयुः ) कहें । हम सदा ( इन्द्रस्य शर्माणि इत् ) ऐश्वर्यवान् राजा और परमेश्वर के शरण में ही ( स्याम ) रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा सर्व माणसे विरोध सोडून सर्वांवर उपकार करण्याचा प्रयत्न करतात, तेव्हा शत्रूही मित्र बनतात. ज्यामुळे सर्व माणसांना ईश्वराच्या कृपेने निरन्तर उत्तम आनंद प्राप्त होतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Let us pray and seek the protection of Indra, lord of might unchallengeable, so that men of knowledge and wisdom bring us the voice of divinity and even those who oppose appreciate and speak well of us.
Subject of the mantra
What kind of nature men should have, this subject has been preached by God in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (dasma)=punisher of wicked, (upakṣayarahita)=harmless, (jagadīśvara)=God, (vayam)=we, (tava)=you, (indrasya)=of God, (śarmmaṇi)= always in delight, (khalu)=certainly, (ājñāpālanā)=in obeying, (ākhyavyavahāre)=in the name and habit, (nityam)=regularly, (pravṛttāḥ)=inclined, (syāma)=be, (ime) =all these, (kṛṣṭayaḥ)=all persons, (sarvān)=of all (prati)=towards, (sarvā)=all, (vidyā)=knowledge, (voceyuḥ)=Preach all knowledge to all affectionately, (satyopadeśa) =preaching of truth, (prāptān)=for obtaining, (asmān)=our, (ariḥ)=enemies, (uta)=also, (subhagān)=to those, who have excellent majestic knowledge, (jānīyāt)=must know, (ca)=and, (vadet)= they must speak.
English Translation (K.K.V.)
O punisher of wicked and harmless, You God! We may be certainly, regularly be inclined in the delight, in obeying God, in the name and habit. All these persons must preach all knowledge to all affectionately towards all. For obtaining preaching of truth, our enemies also, must know those, who have excellent majestic knowledge and they must speak.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
When all human beings try to do favour to all by leaving protest, then enemies also become friends, so that all human beings get God's grace and continuous good bliss.
Translation
O Lord, the destroyer of evils, may even our adversaries say that having been blessed by you, they have become prosperous, and in this may we receive consolation for all. May we ever abide by the felicity of the resplendent Lord.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What sort of conduct should men have is taught in the sixth verse.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Decay less Immortal God, may we be always in Thy eternal happiness which consists in the obedience of Thy commands. Let all learned persons teach all good sciences to all of us, so that even our opponents may call us as full of the wealth of knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कृष्टयः ) कृष्टयः इति मनुष्यनमसु ( निघ० २.३ ) = Men. शर्म इति सुखनामसु ( निघ. ३.६ ) = Happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When all persons having given up animosity, become engaged in doing good to others, then even enemies are turned into friends, because then God's Grace and His abiding bliss are attained by all.
Translator's Notes
The word सुभगान् used in the Mantra has got many meanings. It is derived from भज-सेवायाम् so every thing worth achieving may be said to be. भगः Therefore there is that well-known verse in some Sanskrit Lexicons. ऐश्वर्यस्य समस्तस्य, धर्मस्य यशसः त्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव, षण्णां भग इतीरणा || Thus besides prosperity or wealth, it is also used for धर्म righteousness, good reputation, beauty, knowledge and dispassion. So the word सुभग Subhaga may be used for one who possesses all these things. उत नः सुभगान् It is therefore wrong on the part of Sayanacharya to translate सुभगान् as शोभनधनोपेतान् and for Wilson to render it into English as merely prosperous. The Vedic word सुभग is more comprehensive and significant than these translations connote.
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