ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - वरुणमित्रार्यमणः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यं बा॒हुते॑व॒ पिप्र॑ति॒ पान्ति॒ मर्त्यं॑ रि॒षः । अरि॑ष्टः॒ सर्व॑ एधते ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । बा॒हुता॑ऽइव । पिप्र॑ति । पान्ति॑ । मर्त्य॑म् । रि॒षः । अरि॑ष्टः । सर्वः॑ । ए॒ध॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः । अरिष्टः सर्व एधते ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । बाहुताइव । पिप्रति । पान्ति । मर्त्यम् । रिषः । अरिष्टः । सर्वः । एधते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यम्) जनम् (बाहुतेव) यथा बाधते दुःखानि याभ्यां भुजाभ्यां बलवीर्याभ्यां वा तयोर्भावस्तथा (पिप्रति) पिपुरति (पान्ति) रक्षन्ति (मर्त्यम्) मनुष्यम् (रिषः) हिंसकाच्छत्रोः (अरिष्टः) सर्वविघ्नरहितः (सर्वः) समस्तो जनः (एधते) सुखैश्वर्ययुक्तैर्गुणैर्वर्धते ॥२॥
अन्वयः
स संरक्षितस्सन् किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
एते वरुणादयो यं मर्त्यं बाहुतेव पिप्रति रिषः शत्रोः सकाशात् पान्ति स सर्वो जनोऽरिष्टोनिर्विघ्नः सन् देवविद्यादिसद्गुणैर्नित्यमेधते ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभासेनाध्यक्षा राजपुरुषा बाहुबलप्रयत्नाभ्यां शत्रुदस्युचोरान्दारिद्य्रञ्च निवार्य जनान् सम्यग्रक्षित्वा पूर्णानि सुखानि संपाद्य सर्वविघ्नान्निवार्य्य सर्वान्मनुष्यान् पुरुषार्थे संयोज्य ब्रह्मचर्यसेवनेन विषयलोलुपतात्यागेन विद्यासुशिक्षाभ्यां शरीरात्मोन्नतिं कुर्वन्ति तथैव प्रजास्थैरप्यनुष्ठेयम् ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
वह रक्षा किया हुआ किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जो वरुण आदि धार्मिक विद्वान् लोग (बाहुतेव) जैसे शूरवीर बाहुबलों से चोर आदि को निवारण कर दुःखों को दूर करते हैं वैसे (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य को (पिप्रति) सुखों से पूर्ण करते और (रिषः) हिंसा करनेवाले शत्रु से (पांति) बचाते हैं (सः) वे (सर्वः) समस्त मनुष्यमात्र (अरिष्टः) सब विघ्नों से रहित होकर वेद विद्या आदि उत्तम गुणों से नित्य (एधते) वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥२॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालंकार है। जैसे सभा और सेनाध्यक्ष के सहित राजपुरुष बाहुबल वा उपाय के द्वारा शत्रु डांकू चोर आदि और दरिद्रपन को निवारण कर मनुष्यों की अच्छे प्रकार रक्षा पूर्ण सुखों को संपादन सब विघ्नों को दूर पुरुषार्थ में संयुक्त कर ब्रह्मचर्य सेवन वा विषयों की लिप्सा छोड़ने में शरीर की वृद्धि और विद्या वा उत्तम शिक्षा से आत्मा की उन्नति करते हैं वैसे ही प्रजा जन भी किया करें ॥२॥
विषय
अरिष्टः सर्वः
पदार्थ
१. (इव) - जैसे (बाहुता) - बाहुवर्ग प्रयत्नपूर्वक धनादि से हमें भर देता है, उसी प्रकार (यम्) - जिस मनुष्य को वरुण, मित्र व अर्यमा [गत मन्त्र में वर्णित देव] (पिप्रति) - उत्तम दिव्यगुणों के धनों से भर देते हैं और (यम्) - जिस (मर्त्यम्) - मनुष्य को ये (रिषः) - हिंसक शत्रुओं से - क्रोधादि से (पान्ति) - सुरक्षित करते हैं, वह मनुष्य (अरिष्टः) - किसी भी प्रकार से हिंसित न हुआ - हुआ (सर्वः) - पूर्ण होकर (एधते) - बढ़ता है । उसका शरीर, मन व मस्तिष्क सभी बड़े सुन्दर बनते हैं ।
२. मनुष्य की सर्वता यही है कि वह केवल शरीर, केवल मन व केवल मस्तिष्क के दृष्टिकोण से उन्नत न होकर सभी दृष्टिकोणों से वृद्धि को प्राप्त हो । इसके लिए 'वरुण, मित्र व अर्यमा' मेरे बाहुवर्ग के समान हैं । ये हमें सभी उत्तमताओं से उसी प्रकार पूर्ण करते हैं, जैसे भुजाएँ धनादि से ।
भावार्थ
भावार्थ - 'वरुण, मित्र व अर्यमा' हमारे रक्षक व पूरक हों । ऐसा होने पर हम पूर्ण विकास को प्राप्त करेंगे ।
विषय
वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ
(यं मर्त्यं) जिस पुरुष को (बाहुता एव) बाहुएं जिस प्रकार शरीर की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अनेक शत्रुओं को रोकने वाली बाहुएं तथा अनेक प्रबल सेना दल (पि प्रति) पालन करते हैं और (रिषः) घातक शत्रु के आक्रमण से (पान्ति) बचाते हैं वह (अरिष्टः) किसी प्रकार भी हिंसित या पीड़ित न होकर (सर्वः) सब अंगों सहित (एधते) बढ़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वह रक्षा किया हुआ किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
एते वरुणादयो यं मर्त्यं बाहुतेव पिप्रति रिषः शत्रोः सकाशात् पान्ति स सर्वो जनोऽरिष्टोनिर्विघ्नः सन् देवविद्यादिसद्गुणैर्नित्यमेधते ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- (एते)=ये, (वरुणः) वरुण-उत्तम गुणों, श्रेष्ठता और सबकी अध्यक्षता के योग्य आदि [पूर्व मन्त्र (ऋग्वेद ०१.४१.०१ के अनुसार ], (आदयः)=आदि, (यम्) जनम्=जिस व्यक्ति को, (मर्त्यम्) मनुष्यम्=मनुष्य को, (बाहुतेव) यथा बाधते दुःखानि याभ्यां भुजाभ्यां बलवीर्याभ्यां वा तयोर्भावस्तथा=जैसे भुजाओं के बल और तेज के दुःखों को निष्प्रभावी कर देता है, (पिप्रति) पिपुरति=पालन पोषण करता है, (रिषः) हिंसकाच्छत्रोः=हिंसक शत्रुओं से, (सकाशात्)=निकटता से, (पान्ति) रक्षन्ति=रक्षा करते हैं, (सः)=वह, (सर्वः) समस्तो जनः=सब लोग, (अरिष्टः) सर्वविघ्नरहितः- निर्विघ्नः=निर्विघ्न, (सन्)=होते हुए, (देवविद्यादि)=विद्वानें की विद्या आदि, (सद्गुणैः)=सद्गुणों के द्वारा, (नित्यम्)=नित्य, (एधते) सुखैश्वर्ययुक्तैर्गुणैर्वर्धते=सुख और ऐश्वर्य से युक्त गुणों में बढ़ते हैं ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालंकार है। जैसे सभापति और सेनाध्यक्ष और राजपुरुष बाहुबल और प्रयत्नों के द्वारा शत्रु डाकू, चोर आदि और दरिद्रपन का निवारण करके मनुष्यों की अच्छे प्रकार रक्षा करके पूर्ण सुखों को प्राप्त करा करके सबके विघ्नों को दूर करके, सब मनुष्यों को पुरुषार्थ में संयुक्त करके, ब्रह्मचर्य के सेवन से विषयों की लिप्सा के त्याग से विद्या और उत्तम शिक्षा से शरीर और आत्मा की उन्नति करते हैं, वैसे ही प्रजा में स्थित लोगों को भी कार्यान्वित करना चाहिए ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(एते) ये (वरुणः) उत्तम गुणों, श्रेष्ठता और सबकी अध्यक्षता के योग्य (आदयः) आदि (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य को, (बाहुतेव) जैसे भुजाओं के बल और तेज के दुःखों को निष्प्रभावी कर देता है [और उसका] (पिप्रति) पालन पोषण करता है। [ये] (रिषः) हिंसक शत्रुओं से (सकाशात्) निकटता से (पान्ति) रक्षा करते हैं। (सः) वह (सर्वः) सब लोग, (अरिष्टः+सन्) निर्विघ्न होते हुए (देवविद्यादि) विद्वानों की विद्या आदि, (सद्गुणैः) सद्गुणों के द्वारा (नित्यम्) नित्य (एधते) सुख और ऐश्वर्य से युक्त गुणों में बढ़ते हैं ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (यम्) जनम् (बाहुतेव) यथा बाधते दुःखानि याभ्यां भुजाभ्यां बलवीर्याभ्यां वा तयोर्भावस्तथा (पिप्रति) पिपुरति (पान्ति) रक्षन्ति (मर्त्यम्) मनुष्यम् (रिषः) हिंसकाच्छत्रोः (अरिष्टः) सर्वविघ्नरहितः (सर्वः) समस्तो जनः (एधते) सुखैश्वर्ययुक्तैर्गुणैर्वर्धते ॥२॥ विषयः- स संरक्षितस्सन् किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते। अन्वयः- एते वरुणादयो यं मर्त्यं बाहुतेव पिप्रति रिषः शत्रोः सकाशात् पान्ति स सर्वो जनोऽरिष्टोनिर्विघ्नः सन् देवविद्यादिसद्गुणैर्नित्यमेधते ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभासेनाध्यक्षा राजपुरुषा बाहुबलप्रयत्नाभ्यां शत्रुदस्युचोरान्दारिद्य्रञ्च निवार्य जनान् सम्यग्रक्षित्वा पूर्णानि सुखानि संपाद्य सर्वविघ्नान्निवार्य्य सर्वान्मनुष्यान् पुरुषार्थे संयोज्य ब्रह्मचर्यसेवनेन विषयलोलुपतात्यागेन विद्यासुशिक्षाभ्यां शरीरात्मोन्नतिं कुर्वन्ति तथैव प्रजास्थैरप्यनुष्ठेयम् ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सभा व सेनाध्यक्षासह राजपुरुष बाहुबलाने प्रयत्नपूर्वक शत्रू, डाकू, चोर इत्यादींचे व दारिद्र्याचे निवारण करून माणसांचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करतात व पूर्ण सुख प्राप्त करतात. सर्व विघ्ने दूर करून पुरुषार्थ करून ब्रह्मचर्याचे सेवन करून विषयलालसा सोडून विद्या व सुशिक्षणाने शरीर व आत्म्याची उन्नती करतात, तसेच प्रजाजनांनीही करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Those men whom Varuna and others support and protect against the violent as if with the force of their own arms advance and grow in life safe and secure.
Subject of the mantra
Who gets that protected, this subject has been preached in this verse.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ete)=These, (varuṇaḥ)=deserving of excellence, excellence and presiding over all, (ādayaḥ)=etcetera, (yam)=that, (martyam)=to human, (bāhuteva)=as the strength of the arms and the pains of the fast are made ineffective, [aura usakā]=and to that, (piprati)=nurtures, [ye]=these, (riṣaḥ)=from violent enemies, (sakāśāt)=from proximity, (pānti)=protect, (saḥ)=those, (sarvaḥ)=all persons, (ariṣṭaḥ+san)=being unobstructed, (devavidyādi)= knowledge of scholars etc., (sadguṇaiḥ)=by virtues, (nityam)=daily, (edhate)=grows in the qualities of happiness and opulence.
English Translation (K.K.V.)
It makes ineffective and nurtures a person who has good virtues, superiority and is worthy of presiding over all, such as strength of arms. They closely guard against violent enemies. All those people, being free from obstacles, grow in the virtues of eternal happiness and opulence through the knowledge etc. of the scholars. Translation of gist of the verse by Maharshi Dayanand-There is simile as figurative in this mantra. Like the Chairman of the Assembly and the Chief of the Army and the royal person, by eliminating the enemies, robbers, thieves etc. and poverty through muscle power and efforts, by protecting the human beings in a good way, by making them attain complete happiness, by removing the obstacles of all, by uniting all the human beings in efforts, by practicing celibacy. By renouncing the craving for things, we progress the body and soul through knowledge and good education, the people living among the people should also implement the same.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does he acquire, thus protected is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The man ever prospers with knowledge of God and other virtues and is free from all obstacles whom Varuna, Mitra and Aryaman ( the best person, friendly and just ) safeguard as with both arms or with power and force and enrich and whom they preserve from every foe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[ रिषः ] हिंसकात् शत्रोः = From malignant foe. [अरिष्टः ] सर्वविघ्नरहितः = Free from all obstacles.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As President of the Assembly, the Commander-in-Chief of the army and other officers of the State set aside or remove with their power and strength all wicked robbers and thieves as well as poverty, protect well all subjects, make all happy, eliminate all obstacles, keep them engaged in doing noble deeds, observe Brahmacharya (continence), renounce hankering after lustful indulgence and develop their physical and spiritual faculties with wisdom and good education, so should all people among the subjects also do.
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