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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - आदित्याः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स रत्नं॒ मर्त्यो॒ वसु॒ विश्वं॑ तो॒कमु॒त त्मना॑ । अच्छा॑ गच्छ॒त्यस्तृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । रत्न॑म् । मर्त्यः॑ । वसु॑ । विश्व॑म् । तो॒कम् । उ॒त । त्मना॑ । अच्छ॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । अस्तृ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना । अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । रत्नम् । मर्त्यः । वसु । विश्वम् । तोकम् । उत । त्मना । अच्छ । गच्छति । अस्तृतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (सः) वक्ष्यमाणः (रत्नम्) रमन्ते जनानां मनांसि यस्मिंस्तत् (मर्त्यः) मनुष्यः (वसु) उत्तमं द्रव्यम् (विश्वम्) सर्वम् (तोकम्) उत्तमगुणवदपत्यम्। तोकमित्यपत्यना०। निघं० २।२। (उत) अपि (त्मना) आत्मना मनसा प्राणेन वा। अत्र मंत्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१। अनेनास्याकारलोपः। (अच्छ) सम्यक् प्रकारेण। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (गच्छति) प्राप्नोति (अस्तृतः) अहिंसितस्सन् ॥६॥

    अन्वयः

    पुनः स संरक्षितः सन् मनुष्यः किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    योऽस्तृतोऽहिंसितो मर्त्यो मनुष्योऽस्ति स त्मनाऽऽत्मना विश्वम् रत्नम् सूतापि तोकमच्छ गच्छति ॥६॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्मनुष्यैः सम्यग्रक्षिता मनुष्यादयः प्राणिनः सर्वानुत्तमान् पदार्थान् सन्तानांश्च प्राप्नुवन्ति नैतेन विना कस्यचिद्वृद्धिर्भवतीति ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह रक्षा को प्राप्त होकर किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    जो (अस्तृतः) हिंसा रहित (मर्त्येः) मनुष्य है (सः) वह (त्मना) आत्मा मन वा प्राण से (विश्वम्) सब (रत्नम्) मनुष्यों के मनों के रमण करानेवाले (वसु) उत्तम से उत्तम द्रव्य (उत) और (तोकम्) सब उत्तम गुणों से युक्त पुत्रों को (अच्छ गच्छति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है ॥६॥

    भावार्थ

    विद्वान् मनुष्यों से अच्छे प्रकार रक्षा किये हुए मनुष्य आदि प्राणी सब उत्तम से उत्तम पदार्थ और सन्तानों को प्राप्त होते हैं रक्षा के विना किसी पुरुष वा प्राणी की बढ़ती नहीं होती ॥६॥

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    विषय

    आत्मसदृश सन्तान

    पदार्थ

    १. 'वरुण, मित्र व अर्यमा' का आराधक पुरुष, अर्थात् निर्द्वेषता, स्नेह व दान का पुजारी (सः) - वह (मर्त्यः) - मनुष्य (रत्नम्) - रमणीय वस्तुओं को तथा (विश्वं वसु) - निवास के लिए आवश्यक सब उपयोगी धनों को (अच्छा गच्छति) - आभिमुख्येन प्राप्त होता है । 
    २.अथवा 'सः' शब्द पिछले मन्त्र के यज्ञशील पुरुष को कहता है । एवं, यज्ञशील रत्नों एवं निवास के लिए आवश्यक सब धनों को प्राप्त करता है । 
    ३. (उत) - और (त्मना) - आत्मसदृश (तोकम्) - सन्तान को प्राप्त करता है, अर्थात् जैसे हम होते हैं, वैसी ही सन्तान को हम पाते हैं, अतः इस यज्ञशील पुरुष की सन्तान भी यज्ञ की वृत्तिवाली होती है । 
    ४. इस प्रकार यह यज्ञशील पुरुष (अस्तृतः) - अहिंसित होता है । धनों का अभाव इसकी असामयिक मृत्यु का कारण नहीं होता और उत्तम प्रजा का होना उसके वंशतन्तु को समाप्त नहीं होने देता तथा यह प्रजाओं के रूप में अहिंसित ही रहता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशीलता से रत्न, वसु व आत्मसदृश सन्तान मिलती है । यह यज्ञशील अहिंसित होता है । 
     

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    विषय

    वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सः) वह (मर्त्यः) मनुष्य (अस्तृतः) किसी प्रकार भी पीड़ित और व्यथित न होकर (विश्वम्) सब प्रकार के (रत्नं) रमण करने योग्य, सुखप्रद, (वसु) ऐश्वर्य (उत) और (त्मना) अपने ही प्राण और बल से उत्पन्न और (तोकम्) पुत्र को भी (अच्छा) भली प्रकार (गच्छति) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह रक्षा को प्राप्त होकर किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अस्तृतःअहिंसितः मर्त्यः मनुष्यः अस्ति स त्मना (आत्मना) वसु विश्वं रत्नं सु उत अपि तोकम् अच्छ गच्छति ॥६॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (अस्तृतः) अहिंसितस्सन्=हिंसा रहित होता हुआ, (मर्त्यः) मनुष्यः=मनुष्य, (अस्ति)=है, (सः) वक्ष्यमाणः=कहे गये, (त्मना) आत्मना=आत्मा से, (विश्वम्) सर्वम्=समस्त, (वसु) उत्तमं द्रव्यम्=उत्तम पदार्थ, और (रत्नम्) रमन्ते जनानां मनांसि यस्मिंस्तत्=से रत्न जिनमें लोगों के मन आनन्द लेते हैं, (सु)=आनन्द से, (उत) अपि=भी, (तोकम्) उत्तमगुणवदपत्यम्=उत्तम गुणों के समान पुत्र को, (अच्छ) सम्यक् प्रकारेण=सम्यक् रूप से, (गच्छति) प्राप्नोति=प्राप्त करता है ॥६॥ पदार्थन्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (अस्तृतः) हिंसा रहित होता हुआ (मर्त्यः) मनुष्य (अस्ति) है, वह (त्मना) आत्मा से (सः) कहे गये (विश्वम्) समस्त (वसु) उत्तम पदार्थों और (रत्नम्) रत्न जिनमें लोगों के मन आनन्द लेते हैं, को (सु) आनन्द से (उत) भी (तोकम्) उत्तम गुणों के समान पुत्र को (अच्छ) सम्यक् रूप से (गच्छति) प्राप्त करता है ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वान् मनुष्यों से अच्छे प्रकार रक्षा किये हुए मनुष्य आदि प्राणी सब उत्तम पदार्थों और सन्तानों को प्राप्त करते हैं, इनके विना किसी पुरुष वा प्राणी की वृद्धि नहीं होती है ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (अस्तृतः) हिंसा रहित होता हुआ (मर्त्यः) मनुष्य (अस्ति) है, वह (त्मना) आत्मा से (सः) कहे गये (विश्वम्) समस्त (वसु) उत्तम पदार्थों और (रत्नम्) रत्न जिनमें लोगों के मन आनन्द लेते हैं, को (सु) आनन्द से (उत) भी (तोकम्) उत्तम गुणों के समान पुत्र को (अच्छ) सम्यक् रूप से (गच्छति) प्राप्त करता है ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिर्मनुष्यैः सम्यग्रक्षिता मनुष्यादयः प्राणिनः सर्वानुत्तमान् पदार्थान् सन्तानांश्च प्राप्नुवन्ति नैतेन विना कस्यचिद्वृद्धिर्भवतीति ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (सः) वक्ष्यमाणः (रत्नम्) रमन्ते जनानां मनांसि यस्मिंस्तत् (मर्त्यः) मनुष्यः (वसु) उत्तमं द्रव्यम् (विश्वम्) सर्वम् (तोकम्) उत्तमगुणवदपत्यम्। तोकमित्यपत्यना०। निघं० २।२। (उत) अपि (त्मना) आत्मना मनसा प्राणेन वा। अत्र मंत्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१। अनेनास्याकारलोपः। (अच्छ) सम्यक् प्रकारेण। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (गच्छति) प्राप्नोति (अस्तृतः) अहिंसितस्सन् ॥६॥ विषयः- पुनः स संरक्षितः सन् मनुष्यः किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते। विषय(भाषा)- फिर वह रक्षा को प्राप्त होकर किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है। अन्वयः- योऽस्तृतोऽहिंसितो मर्त्यो मनुष्योऽस्ति स त्मनाऽऽत्मना वसु विश्वम् रत्नम् सूतापि तोकमच्छ गच्छति ॥६॥ सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यःअस्तृतःअहिंसितः मर्त्यः मनुष्यः अस्ति स त्मना (आत्मना) वसु विश्वं रत्नं सु उत अपि तोकम् अच्छ गच्छति ॥६॥ पदार्थः- (यः)=जो, (अस्तृतः) अहिंसितस्सन्=हिंसा रहित होता हुआ, (मर्त्यः) मनुष्यः=मनुष्य, (अस्ति)=है, (सः) वक्ष्यमाणः=कहे गये, (त्मना) आत्मना=आत्मा से, (विश्वम्) सर्वम्=समस्त, (वसु) उत्तमं द्रव्यम्=उत्तम पदार्थ, और (रत्नम्) रमन्ते जनानां मनांसि यस्मिंस्तत्=से रत्न जिनमें लोगों के मन आनन्द लेते हैं, (सु)=आनन्द से, (उत) अपि=भी, (तोकम्) उत्तमगुणवदपत्यम्=उत्तम गुणों के समान पुत्र को, (अच्छ) सम्यक् प्रकारेण=सम्यक् रूप से, (गच्छति) प्राप्नोति=प्राप्त करता है ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांकडून चांगल्या प्रकारे रक्षित झालेल्या माणसांना उत्तमात उत्तम पदार्थ व संतान प्राप्त होतात व रक्षणाशिवाय त्यांचा विकास होत नाही. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The man of invincible love and non-violence by his very mind and soul gets the wealth and jewels of the world and very dear lovely children.

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    Subject of the mantra

    Then who gets that protection after getting it, this topic has been preached in this verse.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (martyaḥ)=human, (astṛtaḥ)=going non-violent, (asti)=is, that (tmanā)=from the soul, (saḥ) =said, (viśvam)=all, (vasu)=quality materials and, (ratnam)=gems in which people's hearts delight, (su)=happily (uta)=also, (tokam)=to a son like the best virtues, (accha)=duly, (gacchati)=obtains.

    English Translation (K.K.V.)

    That human going non-violent, He rightly obtains the virtuous son better than joy, all the best things said to the soul and the jewels in which the minds of men get duly delighted.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Humans and living beings etc., who are well protected by learned persons, they obtain all the good things and children, without them no man or creature can prosper.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That mortal, protected by you and not harmed, gains pleasing wealth. He also gets noble off-spring by his power.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( रत्नम् ) रमन्ते जनानां मनांसि यस्मिन् ( रम्-क्रीडायाम् ) = Pleasing or charming, attractive. (अस्तृत) अहंसित: = Not harmed but protected. ( तोकम् ) उत्तमगुणवत् अपत्यम् तोकमित्यपत्यनाम ( निघ० २.२ ) = Virtuous progeny.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men protected by learned persons acquire all desirable objects and noble progeny. Without this, none can make true progress.

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