ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 5
यं य॒ज्ञं नय॑था नर॒ आदि॑त्या ऋ॒जुना॑ प॒था । प्र वः॒ स धी॒तये॑ नशत् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । य॒ज्ञम् । नय॑थ । न॒रः॒ । आदि॑त्याः । ऋ॒जुना॑ । प॒था । प्र । वः॒ । सः । धी॒तये॑ । न॒श॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा । प्र वः स धीतये नशत् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । यज्ञम् । नयथ । नरः । आदित्याः । ऋजुना । पथा । प्र । वः । सः । धीतये । नशत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यम्) वक्ष्यमाणम् (यज्ञम्) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम् (नयथ) प्राप्नुथ। अत्रान्येषामपि इति दीर्घः। (नरः) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्त्यसत्यं च दूरीकुर्वंति तत्सम्बुद्धौ (आदित्याः) पूर्वोक्ता वरुणादयो विद्वांसः (ऋजुना) सरलेन शुद्धेन (पथा) न्यायमार्गेण (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (सः) यज्ञः (धीतये) धीयन्ते प्राप्यन्ते सुखान्यनया क्रियया सा (नशत्) नाशं प्राप्नुयात्। अत्र व्यत्ययेन शप् लेट् प्रयोगश्च ॥५॥
अन्वयः
पुनरेते कं संरक्ष्य किं प्राप्नुयुरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे आदित्या ! नरो यूयं धीतये यं यज्ञमृजुना पथा नयथ (स वः# प्रणशत् यूयमपि नयथ)। एवं कृते सति सयज्ञो वो युष्माकं धीतये न प्रणशत् नाशं न प्राप्नुयात् ॥५॥ #[कोष्ठान्तर्गतपाठोऽधिकः प्रतीयते। सं०]
भावार्थः
अत्र पूर्वस्मान्मंत्रान्नेत्यनुवर्तते यत्र विद्वांसः सभासेनाध्यक्षाः सभास्थाः सभ्याः भृत्यांश्च भूत्वा विनयं कुर्वन्ति तत्र न किंचिदपि सुखं नश्यतीति ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ये किस की रक्षा कर किस को प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (आदित्याः) सकलविद्याओं से सूर्य्यवत् प्रकाशमान (नरः) न्याययुक्त राजसभासदो ! आप लोग (धीतये) सुखों को प्राप्त करानेवाली क्रिया के लिये (यम्) जिस (यज्ञम्) राजधर्मयुक्त व्यवहार को (ऋजुना) शुद्ध सरल (पथा) मार्ग से (नयथ) प्राप्त होते हो (सः) सो (वः) तुम लोगों को (प्रणशत्) नष्ट करने हारा नहीं होता ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में पूर्व मंत्र से (न) इस पद की अनुवृत्ति हैं जहां विद्वान् लोग सभा सेनाध्यक्ष सभा में रहनेवाले भृत्य होकर विनयपूर्वक न्याय करते हैं, वहां सुख का नाश कभी नहीं होता ॥५॥
विषय
परोपकार से स्वोपकार
पदार्थ
१. हे (नरः) - सदा उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़नेवाले (आदित्याः) - गुणों का आदान करनेवाले पुरुषो ! (यं यज्ञम्) - जिस लोकहित के कार्य को (ऋजुना पथा) - सरल मार्ग से (नयथा) - आप पूर्णता की ओर ले - चलते हो (सः) - वह यज्ञ (वः) - तुम्हारे ही (धीतये) - पान व उपभोग के लिए (प्रनशत्) - प्रकर्षेण प्राप्त होता है, अर्थात् उस यज्ञ के द्वारा परहित करते हुए आप अपना भी हित सिद्ध कर पाते हो ।
२. संसार में परार्थ से सदा स्वार्थ तो सिद्ध होता ही है । वस्तुतः सारा संसार परस्पर उपकारी है । मनुष्य देवों को अग्निरूप मुख के द्वारा अन्न प्राप्त कराता है, फिर वे देव वृष्टि द्वारा मनुष्य को अन्न प्राप्त कराते हैं । एवं, मनुष्य देवों को प्राप्त कराता हुआ अपने को ही प्राप्त करा रहा होता है । हम औरों के प्रति मधुर शब्द बोलते हैं तो उनसे स्वयं भी मधुर शब्द सुनते हैं । संसार में हमारी क्रियाओं की ही प्रतिक्रिया हुआ करती है । जो भला मैं करता है, वह मुझे ही फिर प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम औरों का जो उपकार करते हैं, उससे हमारा उपकार हो जाता है ।
विषय
वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (आदित्याः) सूर्य के समान सत्-मार्गों के प्रकाशक विद्वान् पुरुषो! हे (नरः) नेता पुरुषो! आप लोग (यम्) जिस (यज्ञं) प्रजा पालन के कार्य को (ऋजुना) सरल, कुटिलता रहित, न्यायानुकुल (पथा) मार्ग से (नयथ) ले जाते हो (सः) वह राजा और राज्य कार्य (वः धीतये) आप लोगों के ऐश्वर्य भोग के लिये (प्र नशत्) प्राप्त हो। इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर ये किस की रक्षा कर किस को प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे आदित्या ! नरः यूयं धीतये यं यज्ञम् ऋजुना पथा नयथ एवं कृते सति स यज्ञः वः युष्माकं धीतये न प्रणशत् नाशं न प्राप्नुयात् ॥५॥
पदार्थ
हे (आदित्याः) पूर्वोक्ता वरुणादयो (वरुणः) उत्तम गुणयोगेन श्रेष्ठत्वात्सर्वाध्यक्षत्वार्हः=उत्तम गुणों, श्रेष्ठता और सबकी अध्यक्षता के योग्य (विद्वांसः)=विद्वानों ! (नरः) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्त्यसत्यं च दूरीकुर्वंति तत्सम्बुद्धौ=सत्य व्यवहारों में ले जाकर सत्य को प्राप्त कराते हैं और असत्य से दूरी कराते हैं, वह, (यूयम्)=तुम सब, (धीतये) धीयन्ते प्राप्यन्ते सुखान्यनया क्रियया सा=जिस क्रिया से सुखों को धारण और प्राप्त करते हैं, (यम्) वक्ष्यमाणम्=ऐसे कहे गये, (यज्ञम्) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम्=शत्रुओं का नाश करनेवाले श्रेष्ठ पालन करानेवाले राजधर्मयुक्त व्यवहार को (ऋजुना) सरलेन शुद्धेन=सरल और शुद्ध, (पथा) न्यायमार्गेण=न्याय मार्ग से, (नयथ) प्राप्नुथ=पहुँचाये, (एवम्)=ऐसा, (कृते)=किये जाने, (सति)=पर, (सः)=वह, (यज्ञः)=यज्ञ, (वः) युष्माकम्=तुम्हें, (धीतये) धीयन्ते प्राप्यन्ते सुखान्यनया क्रियया सा=जिस क्रिया से सुखों को धारण और प्राप्त करते हैं, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (नशत्+ न) नाशं प्राप्नुयात्=नष्ट न करे ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में पूर्व मंत्र से ‘न’ इस पद की अनुवृत्ति है। जहां विद्वान् सभापति, सेनाध्यक्ष और सभा में स्थित लोग, सभ्य और सेवक होकर विनयपूर्वक व्यवहार करते हैं, वहां कोई भी सुख का नाश नहीं होता है ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (आदित्याः) उत्तम गुणों, श्रेष्ठता से युक्त और सबकी अध्यक्षता के योग्य (विद्वांसः) विद्वानों ! (नरः) सत्य व्यवहारों में ले जाकर सत्य को प्राप्त कराते हो और असत्य से दूरी कराते हो, वह (यूयम्) तुम सब (धीतये) जिस क्रिया से सुखों को धारण और प्राप्त करते हैं, (यम्) ऐसे कहे गये (यज्ञम्) शत्रुओं का नाश करनेवाले और श्रेष्ठ पालन करानेवाले राजधर्मयुक्त व्यवहार को (ऋजुना) सरल और शुद्ध (पथा) न्याय मार्ग से (नयथ) पहुँचाओ। (एवम्) ऐसा (कृते) किये जाने (सति) पर (सः) वह (यज्ञः) यज्ञ (वः) तुम्हें (धीतये) जिस क्रिया से सुखों को धारण और प्राप्त कराते हैं, उससे (प्र) प्रकृष्ट रूप से (नशत्+न) नष्ट न करे ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (यम्) वक्ष्यमाणम् (यज्ञम्) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम् (नयथ) प्राप्नुथ। अत्रान्येषामपि इति दीर्घः। (नरः) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्त्यसत्यं च दूरीकुर्वंति तत्सम्बुद्धौ (आदित्याः) पूर्वोक्ता वरुणादयो विद्वांसः (ऋजुना) सरलेन शुद्धेन (पथा) न्यायमार्गेण (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (सः) यज्ञः (धीतये) धीयन्ते प्राप्यन्ते सुखान्यनया क्रियया सा (नशत्) नाशं प्राप्नुयात्। अत्र व्यत्ययेन शप् लेट् प्रयोगश्च ॥५॥ विषयः- पुनरेते कं संरक्ष्य किं प्राप्नुयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे आदित्या ! नरो यूयं धीतये यं यज्ञमृजुना पथा नयथ एवं कृते सति सयज्ञो वो युष्माकं धीतये न प्रणशत् नाशं न प्राप्नुयात् ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- अत्र पूर्वस्मान्मंत्रान्नेत्यनुवर्तते यत्र विद्वांसः सभासेनाध्यक्षाः सभास्थाः सभ्याः भृत्यांश्च भूत्वा विनयं कुर्वन्ति तत्र न किंचिदपि सुखं नश्यतीति ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्राने (न) या पदाची अनुवृत्ती होते. जेथे विद्वान लोक सभा सेनाध्यक्ष सभेत राहणारे चाकर बनून विनयपूर्वक न्याय करतात, तेथे सुखाचा कधीच नाश होत नाही. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Adityas, heroes of light and the law, people of the land, the yajna of creation and development which you carry forward by the path of truth and piety for knowledge, science and art must not disappear from the scene.
Subject of the mantra
Then by protecting whom and whom they get, this topic has been preached in this verse.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (ādityāḥ)= having good qualities, excelling and worthy of the presidency of all, (vidvāṃsaḥ)=scholars ! (naraḥ)=by taking us into truthful behaviour, we get the truth and distance ourselves from untruth, that (yūyam)=all of you, (dhītaye)=the action by which we maintain and receive happiness, (yam)=so called, (yajñam)=the one who destroys the enemies and best practices the behavior of royal practice, (ṛjunā)=simple and pure, (pathā)=by way of justice, (nayatha)=deliver, (evam)=such, (kṛte+sati)=having done, (saḥ)=that, (yajñaḥ)=yajnam, (vaḥ)=to you, (dhītaye)=by the action by which happiness is imbibed and attained, (pra)=excellently (naśat+na)=must not destroy.
English Translation (K.K.V.)
O scholars of excellent qualities, excellence and worthy of presiding over all! By engaging in truthful behaviour, you achieve the truth and distance yourself from untruth, that is the action by which you all imbibe and attain happiness, it is said that the destroyer of the enemies and the one who follows the righteous behavior, the simple and deliver from pure path of justice. When this is done, that yajnam by which you can imbibe and get pleasures, should not be destroyed in a great way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In In this mantra, the word ‘na’ is a continuation of the previous mantra. Where the learned Chairman of the Assembly, the army chief and the people in the Assembly behave politely, there is no loss of happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they obtain by preserving is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned guides, the yajna in the form of destruction of enemies and preservation of the righteous you lead by a straight just path, let that lead to happiness and may never end.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( यज्ञम् ) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राज्यव्यवहारम् = Administration which destroys enemies and protects the righteous persons. ( नरः ) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्ति असत्यं च दूरीकुर्वन्ति । = Guides who lead to truthful dealing and remove false-hood. (धीतये) धोयन्ते प्राप्यन्ते सुखानि अनया क्रियया सा धीतिः तस्यै = For an act that leads to happiness. ( दुधाञ्-धारणपोषणयो: )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Where learned persons being the presidents of the Assembly, commanders of the armies, members of the Councils and servants behave politely, there is never an end to happiness.
Translator's Notes
Yajna in the Vedas is a very comprehensive term. It is derived from यज्ञ-देवपूजासंगतिकरणदानेषु । Hence it can be used for any noble act in which the learned are honored, there is association with noble persons and Charity. Proper administration is also such a noble act. The adjective for Adityas clearly shows that they are true leaders. Hence Rishi Dayananda's interpretation given above about Adityas as highly learned men observing Brahmacharya for 48 years and thereby shining like the sun is correct. Skanda Swami explains (Narah) used here as नराकाराः Assuming human form Why not take them for good leaders directly as Rishi Dayanand has done?
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