ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - वरुणमित्रार्यमणः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि दु॒र्गा वि द्विषः॑ पु॒रो घ्नन्ति॒ राजा॑न एषाम् । नय॑न्ति दुरि॒ता ति॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । दुः॒ऽगा । वि । द्विषः॑ । पु॒रः । घ्नन्ति॑ । राजा॑नः । ए॒षा॒म् । नय॑न्ति । दुः॒ऽइ॒ता । ति॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् । नयन्ति दुरिता तिरः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । दुःगा । वि । द्विषः । पुरः । घ्नन्ति । राजानः । एषाम् । नयन्ति । दुःइता । तिरः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(वि) विविधार्थे (दुर्गा) येषु दुःखेन गच्छन्ति तानि। अत्र सुदुरो रधिकरणे०। अ० ३।२।४८। इति #दुरुपपदाद्गमेर्डः प्रत्ययः। शेश्छन्दसि इति *लोपः। (वि) विशेषार्थे (द्विषः) ये द्विषन्त्यप्रीणयन्ति ताञ्छत्रून् (पुरः) पुराणि (घ्नन्ति) नाशयन्ति (राजानः) ये राजन्ते सत्कर्मगुणैः प्रकाशन्ते ते (एषाम्) शत्रूणाम् (नयन्ति) गमयन्ति (दुरिता) दुरिता दुःसहानि दुःखानि। अत्रापि शेर्लोपः। (तिरः) अदर्शने ॥३॥ #[टि० इति वार्त्तिकेन। सं०] *[शे लेपिः। सं०]
अन्वयः
पुनस्ते राजजनाश्च परस्परं किं कुर्युरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
ये राजान एषां शत्रूणां दुर्गा घ्नन्ति द्विषः शत्रूँ स्तिरो नयन्ति ते साम्राज्यं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥
भावार्थः
येऽन्यायकारिणो धार्मिकान् पीड़यित्वा दुर्गस्था भवंति पुनरागत्य दुःखयंति तेषां विनाशाय श्रेष्ठानां पालनाय धार्मिका विद्वांसो राजपुरुषास्तेषां दुर्गाणि विनाश्य तान् छित्वा भित्वा हिंसित्वा मरणं वा वशत्वं प्रापय्य धर्मेण राज्यं पालयेयुः ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे राजप्रजा पुरुष क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जो (राजानः) उत्तम कर्म वा गुणों से प्रकाशमान राजा लोग (एषाम्) इन शत्रुओं के (दुर्गा) दुःख से जाने योग्य प्रकोटों और (पुरः) नगरों को (घ्नन्ति) छिन्न-भिन्न करते और (द्विषः) शत्रुओं को (तिरोनयन्ति) नष्ट कर देते हैं, वे चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होने को समर्थ होते हैं ॥३॥
भावार्थ
जो अन्याय करनेवाले मनुष्य धार्मिक मनुष्यों को पीड़ा देकर दुर्ग में रहते और फिर आकर दुःखी करते हों उनको नष्ट और श्रेष्ठों के पालन करने के लिये विद्वान् धार्मिक राजा लोगों को चाहिये कि उनके प्रकोट और नगरों का विनाश और शत्रुओं को छिन्न-भिन्न मार और वशीभूत करके धर्म से राज्य का पालन करें ॥३॥
विषय
दुर्ग - द्विट् - दुरित' - दहन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार बाहुसमूह की भाँति रक्षा करनेवाले 'वरुण, मित्र व अर्यमा' (एषां राजानः) - इनके, अर्थात् अपने उपासकों के जीवनों को दीप्त करते हैं [राज् दीप्तौ] और [राज् to regulate], ये उनके जीवनों को व्यवस्थित करनेवाले होते हैं
२. ये 'वरुण, मित्र और अर्यमा (एषां पुरः) - इनके आगे आनेवाली (दुर्गा) - विघ्नभूत कठिनाइयों को (विघ्नन्ति) - विशेषरूप से नष्ट करनेवाले होते हैं । (द्विषः) - इनके शत्रुओं को भी (विघ्नन्ति) - समाप्त करते हैं और (दुरिता) - इन्हें सब दुरितों बुराइयों के (तिरः नयन्ति) - नष्ट करनेवाले होते हैं । (द्विषः) - इनके शत्रुओं को भी (विघ्नन्ति) - ३२समाप्त करते हैं और (दुरिता) - इन्हें सब दुरितों बुराइयों के रः नयन्ति पार ले - जाते हैं ।
३. 'निर्द्वेषता, स्नेह व दान' - ये तीन वृत्तियाँ ऐसी हैं कि इनसे जीवन के मार्ग में आनेवाली सब कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं । इनके होने पर हमारे शत्रु समाप्त हो जाते हैं । हम सब बुराइयों को पार करके दीप्त जीवनवाले बन जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - 'वरुण, मित्र और अर्यमा' हमारे दुर्गों, द्वेषियों व दुरितों को दूर करते हैं ।
विषय
वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ
(राजानः) प्रजा में विशेष मान, आदर, प्रतिष्ठा से चमकने वाले तेजस्वी एवं प्रजा को अनुरञ्जन करने वाले राजा गण (एषाम्) इन शत्रुओं के (दुर्गा) दुर्गम गढ़ों को और (द्विषः) शत्रु के (पुरः) नगरों और उनमें रहने वाले निवासियों को (वि वि घ्नन्ति) विविध उपायों से विनष्ट करते हैं और (दुरिता) दुःखदायी कारणों को (तिरः नयन्ति) दूर करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे राजप्रजा पुरुष क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
ये राजान एषां शत्रूणां दुर्गा घ्नन्ति द्विषः शत्रूँन् तिरः नयन्ति ते साम्राज्यं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥
पदार्थ
(ये)=जो, (राजानः) ये राजन्ते सत्कर्मगुणैः प्रकाशन्ते ते=सत्कर्मों और सद्गुणों से प्रकाशित होते हैं, (एषाम्) शत्रूणाम्=इनके शत्रुओं में, (दुर्गा) येषु दुःखेन गच्छन्ति तानि=दुर्गों में, जिनमें दुःख के साथ जाते हैं, वे (घ्नन्ति) नाशयन्ति=नष्ट हो जाते हैं, (द्विषः) ये द्विषन्त्यप्रीणयन्ति ताञ्छत्रून्=जो द्वेष की कामना करते हैं, उन शत्रुओं का, (घ्नन्ति) नाशयन्ति=नाश करके, उन्हें (तिरः) अदर्शने=अदृश्य करा देते हैं, (ते)=वे, (साम्राज्यम्)=साम्राज्य को, (प्राप्तुम्)=प्राप्त, (शक्नुवन्ति)=कर सकते हैं ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो अन्याय करनेवाले मनुष्य धार्मिक मनुष्यों को पीड़ा देकर दुर्ग में रहते हैं और फिर आकर दुःखी करते हों, उनके विनाश के लिये और श्रेष्ठों का पालन करने के लिये विद्वान् धार्मिक राजा लोगों को चाहिये कि उनके किलों का विनाश करके उनको छिन्न-भिन्न करके और चोट पहुँचा करके मार कर या नियंत्रण में लेकर धर्म से राज्य का पालन करना चाहिए ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(ये) जो (राजानः) सत्कर्मों और सद्गुणों से प्रकाशित होते हैं, (एषाम्) इनके शत्रुओं के (दुर्गा) दुर्गों में, जिनमें दुःख के साथ जाते हैं, वे (घ्नन्ति) नष्ट हो जाते हैं। (द्विषः) जो द्वेष की कामना करते हैं, उन शत्रुओं का (घ्नन्ति) नाश करके, उन्हें (तिरः) अदृश्य करा देते हैं। (ते) वे (साम्राज्यम्) साम्राज्य को (प्राप्तुम्) प्राप्त, (शक्नुवन्ति) कर सकते हैं ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (वि) विविधार्थे (दुर्गा) येषु दुःखेन गच्छन्ति तानि। अत्र सुदुरो रधिकरणे०। अ० ३।२।४८। इति #दुरुपपदाद्गमेर्डः प्रत्ययः। शेश्छन्दसि इति *लोपः। (वि) विशेषार्थे (द्विषः) ये द्विषन्त्यप्रीणयन्ति ताञ्छत्रून् (पुरः) पुराणि (घ्नन्ति) नाशयन्ति (राजानः) ये राजन्ते सत्कर्मगुणैः प्रकाशन्ते ते (एषाम्) शत्रूणाम् (नयन्ति) गमयन्ति (दुरिता) दुरिता दुःसहानि दुःखानि। अत्रापि शेर्लोपः। (तिरः) अदर्शने ॥ विषयः- पुनस्ते राजजनाश्च परस्परं किं कुर्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः- ये राजान एषां शत्रूणां दुर्गा घ्नन्ति द्विषः शत्रूँ स्तिरो नयन्ति ते साम्राज्यं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- येऽन्यायकारिणो धार्मिकान् पीड़यित्वा दुर्गस्था भवंति पुनरागत्य दुःखयंति तेषां विनाशाय श्रेष्ठानां पालनाय धार्मिका विद्वांसो राजपुरुषास्तेषां दुर्गाणि विनाश्य तान् छित्वा भित्वा हिंसित्वा मरणं वा वशत्वं प्रापय्य धर्मेण राज्यं पालयेयुः ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी अन्यायी माणसे धार्मिक माणसांना त्रास देतात व किल्ल्यात राहतात व दुःखी करतात. त्यांना नष्ट करण्यासाठी व श्रेष्ठांचे पालन करण्यासाठी विद्वान धार्मिक राजांनी शत्रूंचे प्रकोट व नगर यांचा विनाश करावा. तसेच शत्रूंचे विदारण करून त्यांना ताब्यात ठेवावे व धर्माने राज्याचे पालन करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Brilliant rulers and others who shine, rout the forts and cities of these enemies and cast off all evil and suffering far away.
Subject of the mantra
Then what should those citizens do, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye)=Those, (rājānaḥ)=are enlightened by good deeds and virtues, (eṣām)=of their enemies, (durgā)=in forts, those who go with sorrow, (ghnanti)=get destroyed, (dviṣaḥ)=of those enemies who wish malice (ghnanti)=destroying them, (tiraḥ)=make invisible, (te)=they, (sāmrājyam)=to empire, (prāptum)=obtain, (śaknuvanti)=can.
English Translation (K.K.V.)
Those who are enlightened by good deeds and virtues, are destroyed in the forts of their enemies, in whom they go with sorrow. By destroying those enemies who wish for malice, they make them invisible. They can obtain the kingdom.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In order to destroy the unjust people who live in the fort by giving pain to the righteous people and then come back and make them sad, and to obey the superior people, the learned righteous kings should destroy their forts and disintegrate them and hurt them. The state should be ruled righteously by reaching, killing or taking control.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the officers and subjects behave mutually is taught in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The persons shining on account of their virtues, first destroy the strongholds of the enemies and drive them away and lead good men safely over distress. Such persons are fit to rule over an empire.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should ever try to destroy those wicked persons, who trouble the righteous and then enter their forts, come out of them and then again cause trouble to the noble. They should always be engaged in protecting the righteous, in overcoming, subduing or even killing the wicked and administering the country righteously. ( राजानः ) ये राजन्ते सत्कर्मगुणैः प्रकाशन्ते ते | Those who shine on account of their virtues.
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