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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - वरुणमित्रार्यमणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा वो॒ घ्नन्तं॒ मा शप॑न्तं॒ प्रति॑ वोचे देव॒यन्त॑म् । सु॒म्नैरिद्व॒ आ वि॑वासे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । वः॒ । घ्नन्त॑म् । मा । शप॑न्तम् । प्रति॑ । वो॒चे॒ । दे॒व॒ऽयन्त॑म् । सु॒म्नैः । इत् । वः॒ । आ । वि॒वा॒से॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् । सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । वः । घ्नन्तम् । मा । शपन्तम् । प्रति । वोचे । देवयन्तम् । सुम्नैः । इत् । वः । आ । विवासे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (मा) निषेधार्थे (वः) युष्मान् (घ्नन्तम्) हिंसन्तम् (मा) (शपन्तम्) आक्रोशन्तम् (प्रति) प्रतीतार्थे (वोचे) वदेयम्। अत्र स्थानिवत्त्वात् आत्मनेपदमडभावश्च (देवयन्तम्) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (सुम्नैः) सुखैः। सुमनमिति सुखना०। निघं० ३।६। (इत्) एव (वः) युष्मान् (आ) समंतात् (विवासे) परिचरामि ॥८॥ #[अत्र ब्रुवः स्थाने वजादेशः, स्थानिवत्त्वात् चात्मनेपदम्। सं०]

    अन्वयः

    सभाध्यक्षादयः प्रजास्थैः सह किं किं प्रतिजानीरन्नित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    अहं वो युष्मान्मन्मित्रान् घ्नन्तं मा प्रतिवोचे वो युष्माञ्छपंतं मा प्रतिवोचे प्रियं न वदेयम्। किन्तु युष्मान्सुम्नैः सह देवयन्तमिदेवाविवासे ॥८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैःस्वमित्रशत्रौ तन्मित्रेऽपि प्रीतिः कदाचिन्नैव कार्य्या मित्ररक्षा सदैव विधेया। विदुषां मित्राणां प्रियधनभोजनवस्त्रयानादिभिर्नित्यं परिचर्य्या कार्य्या नो अमित्रः सुखमेधते तस्माद्विद्वांसो धार्मिकान् मित्रान्संपादयेयुः ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    सभाध्यक्ष आदि लोग प्रजाजनों के साथ क्या प्रतिज्ञा करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    मैं (वः) मित्ररूप तुम को (घ्नन्तम्) मारते हुए जन से (मा प्रतिवोचे) संभाषण भी न करूं (वः) तुम को (शपंतम्) कोसते हुए मनुष्य से प्रिय (मा०) न बोलूं किन्तु (सुम्नैः) सुखों से सहित तुम को सुख देनेहारे (इत्) ही (देवयन्तम्) दिव्यगुणों की कामना करने हारे की (आविवासे) अच्छे प्रकार सेवा सदा किया करूं ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है कि न अपने शत्रु और न मित्र के शत्रु में प्रीति करे मित्र की रक्षा और विद्वानों की प्रियवाक्य, भोजन वस्त्र पान आदि से सेवा सदा करनी चाहिये क्योंकि मित्र रहित पुरुष सुख की वृद्धि नहीं कर सकता इससे विद्वान् लोग बहुत से धर्मात्माओं को मित्र करें ॥८॥

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    विषय

    हिंसक व निन्दक न बनें

    पदार्थ

    १. (वः) - तुम्हें (घ्नन्तम्) - नष्ट करते हुए को, अर्थात् 'स्नेह, निर्द्वेषता व दान की वृत्ति' को समाप्त करते हुए को (मा प्रति वोचे) - किसी प्रकार का उत्तर न दूँ, अर्थात् ऐसे लोगों के साथ मैं बात न करूँ । 
    २. इसी प्रकार (शपन्तम्) - कोसते हुए, गालियाँ देते हुए के साथ भी मैं किसी प्रकार की बात न करूँ । 
    ३. (देवयन्तम्) - 'मित्र, वरुण व अर्यमा' आदि की कामना करनेवालों के साथ ही मैं बोलूँ । इनके साथ उठने - बैठने से मुझमें भी ये स्नेहादि की भावनाएँ पनपेंगी । 
    ४. (इत्( - निश्चय से (सुम्नैः) - स्तोत्रों के द्वारा (वः) - आपका (आविवासे) - पूजन करता हूँ । आपकी महिमा का स्मरण करता हुआ आपको अपने जीवन में अनूदित करने का प्रयत्न करता हूँ । 
     

    भावार्थ


    भावार्थ - हमारा उठना - बैठना 'हिंसकों व अपशब्द बोलनेवालों' के साथ न हो । हम 'स्नेह, निर्द्वेषता तथा दान व संयम' का ही स्तवन करें । इन्हीं भावनाओं को हृदय - मन्दिर में देवरूप से प्रतिष्ठित करें । 
     

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    विषय

    वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे धार्मिक पुरुषो! विद्वान् अधिकारी जनो! और प्रिय प्रजाजनो! मैं प्रजाजन और राजा भी (वः ध्नन्तम्) आप लोगों को मारने और पीड़ा देने वाले के (प्रति मा बोचे) कभी प्रेम से बात न करूं। और (शपन्तं) व्यर्थ निन्दा वचन कहने वाले से भी (मा प्रति वोचे) प्रेम से न बोलूं। और (वः) आप लोगों के (देवयन्तम्) उत्तम गुणों और विजयी पुरुषों को चाहने वाले मित्र वर्ग की (सुम्नैः इद्) सुखजनक उत्तम पदार्थों द्वारा ही मैं (आ विवासे) सेवा करूं या आच्छादित करूं। मित्र गण को सब प्रकार से ऐश्वर्यों से पूर्ण करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सभाध्यक्ष आदि लोग प्रजाजनों के साथ क्या प्रतिज्ञा करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहं वः युष्मान् मन्मित्रान् घ्नन्तं मा प्रति वोचे वः युष्मान् शपंतं मा प्रतिवोचे प्रियं न वदेयम्। किन्तु युष्मान् सुम्नैः सह देवयन्तम् इत् एव आ विवासे ॥८॥

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (वः) युष्मान्=तुम्हारे, (मन्मित्रान्)=मित्र के रुप में माने हुए लोगों द्वारा तुम लोगों को, (घ्नन्तम्) हिंसन्तम्=मारनेवाले लोगों से, (प्रति) प्रतीतार्थे=स्वीकृत अर्थवाली वाणी, (मा) निषेधार्थे=न, (वोचे) वदेयम्=बोलूँ। (वः) युष्मान्=तुम्हें, (शपन्तम्) आक्रोशन्तम्=अभिशप्त करनेवालों से, (प्रति) प्रतीतार्थे=स्वीकृत अर्थवाली वाणी, (मा) निषेधार्थे=न, (वोचे) वदेयम्=बोलूँ, (प्रियम्)=प्रिय लगनेवाली के, (न)=समान, (वदेयम्)=बोलूँ, (किन्तु)=किन्तु, (युष्मान्)=युष्मान्=तुम्हारे, (सुम्नैः) सुखैः=सुख के, (सह)=साथ, (देवयन्तम्) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम्=देवों के दिव्य गुणों की कामना करते हुए, (इत्) एव=ही, (आ) समंतात्=हर ओर से, (विवासे) परिचरामि=मैं सेवा करूँ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा अपने मित्र के शत्रु से कभी प्रीति नहीं करनी चाहिए, मित्र की रक्षा सदैव करनी चाहिए। विद्वान् मित्रों को प्रिय धन, भोजन, वस्त्र यान आदि से नित्य सेवा सदा करनी चाहिये, क्योंकि मित्रता रहित पुरुष सुख की वृद्धि नहीं कर सकता है, इसलिये विद्वान् लोग धार्मिकों से मित्रता करें ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (वः) तुम्हारे (मन्मित्रान्) मित्र के रुप में माने हुए लोगों द्वारा तुम लोगों को (घ्नन्तम्) मारनेवाले लोगों से (प्रति) स्वीकृत अर्थवाली वाणी (मा) न (वोचे) बोलूँ। (वः) तुम्हें (शपन्तम्) अभिशप्त करनेवालों से (प्रति) स्वीकृत अर्थवाली वाणी (मा) न (वोचे) बोलूँ, (प्रियम्) प्रिय लगनेवाली के (न) समान (वदेयम्) बोलूँ, (किन्तु) किन्तु (युष्मान्) तुम्हारे (सुम्नैः) सुख के (सह) साथ (देवयन्तम्) देवों के दिव्य गुणों की कामना करते हुए (इत्) ही (आ) हर ओर से (विवासे) मैं सेवा करूँ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (मा) निषेधार्थे (वः) युष्मान् (घ्नन्तम्) हिंसन्तम् (मा) (शपन्तम्) आक्रोशन्तम् (प्रति) प्रतीतार्थे (वोचे) वदेयम्। अत्र स्थानिवत्त्वात् आत्मनेपदमडभावश्च (देवयन्तम्) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (सुम्नैः) सुखैः। सुमनमिति सुखना०। निघं० ३।६। (इत्) एव (वः) युष्मान् (आ) समंतात् (विवासे) परिचरामि ॥८॥ विषयः- सभाध्यक्षादयः प्रजास्थैः सह किं किं प्रतिजानीरन्नित्युपदिश्यते। अन्वयः- अहं वो युष्मान्मन्मित्रान् घ्नन्तं मा प्रतिवोचे वो युष्माञ्छपंतं मा प्रतिवोचे प्रियं न वदेयम्। किन्तु युष्मान्सुम्नैः सह देवयन्तमिदेवाविवासे ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैःस्वमित्रशत्रौ तन्मित्रेऽपि प्रीतिः कदाचिन्नैव कार्य्या मित्ररक्षा सदैव विधेया। विदुषां मित्राणां प्रियधनभोजनवस्त्रयानादिभिर्नित्यं परिचर्य्या कार्य्या नो अमित्रः सुखमेधते तस्माद्विद्वांसो धार्मिकान् मित्रान्संपादयेयुः ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी आपल्या शत्रूवर व मित्राच्या शत्रूवर प्रेम करू नये. मित्राचे रक्षण करावे व प्रिय वचन, भोजन, वस्त्र, पान इत्यादींनी विद्वानांची सेवा करावी. कारण मित्ररहित पुरुषाच्या सुखाची वृद्धी होऊ शकत नाही. त्यासाठी विद्वान लोकांनी पुष्कळ धर्मात्म्यांबरोबर मैत्री करावी. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Friends, I must not even speak to the man who hurts or curses you. In stead, I must love and serve the man who feels divine love for you and wishes you well all comfort and joy.

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    Subject of the mantra

    What pledge should the speaker etcetera take with the people, has been discussed in this verse.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (vaḥ)=your, (manmitrān)=to you by people you consider friends, (ghnantam)=from the killers, (prati)=speech with accepted meaning, (mā)=not, (voce)=speak, (vaḥ)=to you, (śapantam)=from cursers, (prati)=speech with accepted meaning, (mā)=not, (voce)=speak, (priyam)=of to be loved, (na)=like, (vadeyam)=speak, (kintu)=but, (yuṣmān)=your, (sumnaiḥ)=of delight, (saha)=with, (devayantam)=desiring the divine qualities of the deities, (it)=only, (ā)=from all sides, (vivāse)=I must serve.

    English Translation (K.K.V.)

    Let me not speak meaningful words accepted by the people who killed you, by the people who are considered as your friends. May I not speak words that are acceptable to those who curse you, may I speak like the one that is dear to you, but may I serve you from all sides while desiring the divine qualities of the Gods along with your happiness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Humans should never love their friend's enemy, they should always protect their friend. Learned friends should always serve their dear ones daily with money, food, clothes, vehicles etc., because a person without friendship cannot increase happiness, hence learned people should make friends with righteous people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What promise should be made by the Presidents of the Assembly and others to the people is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let me not speak sweet words to him who strikes you my friends, nor to him who reviles you you who are desirous of acquiring divine virtues. But let me serve only him who leads you to happiness and noble qualities.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( शपन्तम् ) आक्रोशन्तम् ( शप-आकोशे ) = Reviling or abusing. ( देवयन्तम् देवान् विष्यगुणान् कामयमानम्) = Desiring divine virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A man should not love those who are enemies of his friend and who are their ( his friends' enemies, accomplices or helpers. Friends should always be protected and safe-guarded. The learned friends should always be served with wealth, food) clothes and vehicles etc. A man without friends cannot enjoy happiness, therefore men should make friendship only with righteous and learned persons.

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