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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - वरुणमित्रार्यमणः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    क॒था रा॑धाम सखायः॒ स्तोमं॑ मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः । महि॒ प्सरो॒ वरु॑णस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒था । रा॒धा॒म॒ । स॒खा॒यः॒ । स्तोम॑म् । मि॒त्रस्य॑ । अ॒र्य॒म्णः । महि॑ । प्सरः॑ । वरु॑णस्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कथा राधाम सखायः स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः । महि प्सरो वरुणस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कथा । राधाम । सखायः । स्तोमम् । मित्रस्य । अर्यम्णः । महि । प्सरः । वरुणस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (कथा) केन हेतुना (राधाम) साध्नुयाम। अत्र विकरणव्यत्ययः (सखायः) मित्राः सन्तः (स्तोमम्) गुणस्तुतिसमूहम् (मित्रस्य) सर्वसुहृदः (अर्य्यम्णः) न्यायाधीशस्य (महि) महासुखप्रदम् (प्सरः) यं प्सांति भुञ्जते स भोगः (वरुणस्य) सर्वोत्कृष्टस्य ॥७॥

    अन्वयः

    सर्वैः किं कृत्वैतत्सुखं प्रापयितव्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    वयं सखायः सन्तो मित्रस्यार्य्यम्णो वरुणस्य च महि स्तोमं कथा राधामास्माकं कथं प्सरः सुखभोगः स्यात् ॥७॥

    भावार्थः

    यदा केचित्कंचित्पृच्छेयुर्वयं केन प्रकारेण मैत्रीन्यायोत्तमविद्याः प्राप्नुयामेति स तान् प्रत्येवं ब्रूयात्परस्परं विद्यादानपरोपकाराभ्यामेवैतत्सर्वं प्राप्तुं शक्यं नैतेन विना कश्चित्किंचिदपि सुखं साद्धुं शक्नोतीति ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    सबको क्या करके इस सुख को प्राप्त कराना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हम लोग (सखायः) सबके मित्र होकर (मित्रस्य) सबके सखा (अर्य्यम्णः) न्यायाधीश (वरुणस्य) और सबसे उत्तम अध्यक्ष के (महि) बड़े (स्तोमम्) गुण स्तुति के समूह को (कथा) किस प्रकार से (राधाम) सिद्ध करें और किस प्रकार हमको (प्सरः) सुखों का भोग सिद्ध होवे ॥७॥

    भावार्थ

    जब कोई मनुष्य किसी को पूछे कि हम लोग किस प्रकार से मित्रपन न्याय और उत्तम विद्याओं को प्राप्त होवें वह उनको ऐसा कहे कि परस्पर मित्रता विद्यादान और परोपकार ही से यह सब प्राप्त हो सकता है इसके विना कोई भी मनुष्य किसी सुख को सिद्ध करने को समर्थ नहीं हो सकता ॥७॥

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    विषय

    महान् रूप

    पदार्थ

    १. हे (सखायः) - समान ख्यान - [ज्ञान] - वाले मित्रो ! (मित्रस्य) - मित्र देवता का (अर्यम्णः) - अर्यमा देवता का (वरुणस्य) - वरुण देवता का (प्सरः) - रूप (महि) - महान् है, अर्थात् 'स्नेह, दान व संयम तथा निर्द्वेषता' का महत्त्व अत्यधिक है । इन भावों के हृदय में जागरित होने पर मनुष्य अत्यन्त उन्नत स्थिति में पहुँचता है, 
    २. अतः आओ ! हम मिलकर कथा - कीर्तन के द्वारा (स्तोम राधाम) - स्तुति को सिद्ध करें । इस स्तुति के द्वारा ही हम मित्रादि की भावनाओं को जीवन में सिद्ध कर पाएँगे । यदि प्रभुकृपा से हम 'मित्र, वरुण व अर्यमा' का आराधन कर पाएँगे तो सचमुच जीवन को भी महत्वपूर्ण बना सकेंगे और उन्नत होते हुए प्रभु के समीप प्राप्त होंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - 'मित्र, वरुण व अर्यमा' को जीवन में अनूदित करने पर हम सचमुच महान् बनेंगे, अतः प्रभु - कीर्तन करें और इन देवताओं को अपनाएँ । 
     

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    विषय

    वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (सखायः) मित्र जनो! (मित्रस्य) सबके सुहृद् (अर्यम्णः) न्यायाधीश के (स्तोमं) गुणों का वर्णन या पदाधिकार का हम (कथा) किस प्रकार से (राधाम) करें। (वरुणस्य) सर्व श्रेष्ठ राजा का (प्सरः) भोगने योग्य ऐश्वर्य और वैभव विस्तार या स्वरूप भी (महि) बहुत बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सबको क्या करके इस सुख को प्राप्त कराना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयं सखायः सन्तः मित्रस्य अर्य्यम्णः वरुणस्य च महि स्तोमं कथा राधाम अस्माकं कथं प्सरः सुखभोगः स्यात् ॥७॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम, (सखायः) मित्राः सन्तः=मित्र होते हुए, (मित्रस्य) सर्वसुहृदः=सबके शुभचिंतक के, (अर्य्यम्णः) न्यायाधीशस्य=न्यायाधीश के, (वरुणस्य) सर्वोत्कृष्टस्य=सबसे उत्कृष्ट परमेश्वर के, (च)=भी, (महि) महासुखप्रदम्=बहुत सुख प्रदान करनेवाले, (स्तोमम्) गुणस्तुतिसमूहम्=गुणों की स्तुति के समूह को, (कथा) केन हेतुना=किस कारण से, (राधाम) साध्नुयाम=साधना करते हैं, (अस्माकम्)=हमारे, (कथम्)=कैसे, (प्सरः) यं प्सांति भुञ्जते स भोगः=भोग हों, ये (सुखभोगः)= सुख प्रदान करनेवाला भोग, (स्यात्)=होवे॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जब कोई मनुष्य किसी को पूछे कि वह किस प्रकार से मित्रता, न्याय और उत्तम विद्याओं को प्राप्त करे, वह उनसे ऐसा कहे कि परस्पर विद्या के दान और परोपकार ही से यह सब प्राप्त हो सकता है, इसके विना कोई भी मनुष्य सुख को सिद्ध करने को समर्थ नहीं हो सकता है ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम (सखायः) मित्र होते हुए, (मित्रस्य) सबके शुभचिंतक, (अर्य्यम्णः) न्यायाधीश और (वरुणस्य) सबसे उत्कृष्ट परमेश्वर के (च) भी (महि) बहुत सुख प्रदान करनेवाले (स्तोमम्) गुणों की स्तुति के समूह से (कथा) किस कारण से (राधाम) साधना करते हैं। (अस्माकम्) हमारे (कथम्) कैसे (प्सरः) भोग हों, ये (सुखभोगः) सुख प्रदान करनेवाला भोग (स्यात्) होवे॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (कथा) केन हेतुना (राधाम) साध्नुयाम। अत्र विकरणव्यत्ययः (सखायः) मित्राः सन्तः (स्तोमम्) गुणस्तुतिसमूहम् (मित्रस्य) सर्वसुहृदः (अर्य्यम्णः) न्यायाधीशस्य (महि) महासुखप्रदम् (प्सरः) यं प्सांति भुञ्जते स भोगः (वरुणस्य) सर्वोत्कृष्टस्य ॥७॥ विषयः- सर्वैः किं कृत्वैतत्सुखं प्रापयितव्यमित्युपदिश्यते। अन्वयः- वयं सखायः सन्तो मित्रस्यार्य्यम्णो वरुणस्य च महि स्तोमं कथा राधामास्माकं कथं प्सरः सुखभोगः स्यात् ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा केचित्कंचित्पृच्छेयुर्वयं केन प्रकारेण मैत्रीन्यायोत्तमविद्याः प्राप्नुयामेति स तान् प्रत्येवं ब्रूयात्परस्परं विद्यादानपरोपकाराभ्यामेवैतत्सर्वं प्राप्तुं शक्यं नैतेन विना कश्चित्किंचिदपि सुखं साद्धुं शक्नोतीति ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर एखाद्या माणसाने एखाद्या माणसाला विचारले की, आम्ही कोणत्या प्रकारे मैत्री, न्याय व उत्तम विद्या प्राप्त करावी? त्याने असे म्हणावे की, परस्पर मैत्री, न्याय व उत्तम विद्यादान व परोपकार यांनीच हे सर्व प्राप्त होऊ शकते. याशिवाय कोणताही माणूस, कोणतेही सुख मिळवू शकत नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Friends, how shall we realise in truth of fact the great celebration we offered for the power and glory of Mitra, friend of the people, Aryama, lord of justice, and Varuna, highest leader of our choice, and how shall we achieve the high standard of our comfort and well being?

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    Subject of the mantra

    What everyone should do to get this happiness, this subject has been preached in this verse.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=We, (sakhāyaḥ)=being friend, (mitrasya)=well-wisher of all, (aryyamṇaḥ)=judge and, (varuṇasya)=of the most excellent God, (ca)=also, (mahi)=very pleasurable, (stomam)=from the praise of group of virtues, (kathā)=for what reason, (rādhāma)=meditate, (asmākam)=our, (katham)=how, (psaraḥ) =should be enjoyments, these, (sukhabhogaḥ)=pleasurable indulgence, (syāt)=should be.

    English Translation (K.K.V.)

    Why do we have spiritual practice with a group of praises of the many happiness-giving qualities of the Supreme Lord, the well-wisher of all, the judge and the most excellent of all, being a friend. What kind of enjoyment should we have, it should be the enjoyment that gives happiness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    When a person asks someone, how he can achieve friendship, justice and good knowledge, he should tell them that all this can be achieved only through mutual knowledge and charity, without this no person can be able to achieve happiness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men cause this happiness by doing what is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    How shall we being friendly to one another sing glory of and accomplish the attributes of the person who is friendly to all, of the dispenser of justice and of the best or the most virtuous ? How shall we enjoy happiness ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अर्यम्ण:) न्यायाधीशस्य = Of the dispenser of justice. (वरुणस्य ) सर्वोत्कृष्टस्य = of the best or the most virtuous. ( प्सरः ) यं प्सान्ति भुंजते सभोगः (प्सा-भक्षणे इति धातो:) = Enjoyment.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When some one ask another how shall we attain friendship justice and good knowledge, he should tell him that it is possible to do so only by diffusing knowledge and by benevolence or doing good to others. Without these, it is not possible for any one to enjoy happiness.

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