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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    आ स्वमद्म॑ यु॒वमा॑नो अ॒जर॑स्तृ॒ष्व॑वि॒ष्यन्न॑त॒सेषु॑ तिष्ठति। अत्यो॒ न पृ॒ष्ठं प्रु॑षि॒तस्य॑ रोचते दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय॑न्नचिक्रदत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । स्वम् । अद्म॑ । यु॒वमा॑नः । अ॒जरः॑ । तृ॒षु । अ॒वि॒ष्यन् । अ॒त॒सेषु॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । अत्यः॑ । न । पृ॒ष्ठम् । प्रु॒षि॒तस्य॑ । रो॒च॒ते॒ । दि॒वः । न । सानु॑ । स्त॒नय॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति। अत्यो न पृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। स्वम्। अद्म। युवमानः। अजरः। तृषु। अविष्यन्। अतसेषु। तिष्ठति। अत्यः। न। पृष्ठम्। प्रुषितस्य। रोचते। दिवः। न। सानु। स्तनयन्। अचिक्रदत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं यो युवमानोऽजरो देहादिकमविष्यन्नतसेषु तिष्ठति प्रुषितस्य पूर्णस्य मध्ये स्थितः सन् पृष्ठमत्यो न देहादि वहति सानु दिवो न रोचते विद्युत् स्तनयन्निवाचिक्रदत् स्वमद्म तृष्वाभुङ्क्ते स देही जीव इति मन्तव्यम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (स्वम्) स्वकीयम् (अद्म) अत्तुमर्हं कर्मफलम् (युवमानः) संयोजको भेदकश्च। अत्र विकरणव्यत्ययेन श आत्मनेपदं च। (अजरः) स्वस्वरूपेण जीर्णावस्थारहितः (तृषु) शीघ्रम्। तृष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (अविष्यन्) रक्षणादिकं करिष्यन् (अतसेषु) विस्तृतेष्वाकाशपवनादिषु पदार्थेषु (तिष्ठति) वर्त्तते (अत्यः) अश्वः (न) इव (पृष्ठम्) पृष्ठभागम् (प्रुषितस्य) स्निग्धस्य मध्ये (रोचते) प्रकाशते (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (न) इव (सानु) मेघस्य शिखरः (स्तनयन्) शब्दयन् (अचिक्रदत्) विकलयति ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः पूर्णेनेश्वरेण धृत आकाशादिषु प्रयतते सर्वान् बुध्यादीन् प्रकाशते ईश्वरनियोगेन स्वकृतस्य शुभाशुभाचरितस्य कर्मणः सुखदुःखात्मकं फलं भुङ्क्ते, सोऽत्र शरीरे स्वतन्त्रकर्त्ता भोक्ता जीवोऽस्तीति मनुष्यैर्वेदितव्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जो (युवमानः) संयोग और विभागकर्त्ता (अजरः) जरादि रोगरहित देह आदि की (अविष्यन्) रक्षा करनेवाला होता हुआ (अतसेषु) आकाशादि पदार्थों में (तिष्ठति) स्थित होता (प्रुषितस्य) पूर्ण परमात्मा में कार्य्य का सेवन करता हुआ (न) जैसे (अत्यः) घोड़ा (पृष्ठम्) अपनी पीठ पर भार को बहाता है, वैसे देहादि को बहाता है (न) जैसे (दिवः) प्रकाश से (सानु) पर्वत के शिखर वा मेघ की घटा प्रकाशित होती है, वैसे (रोचते) प्रकाशमान होता है, जैसे (स्तनयन्) बिजुली शब्द करती है, वैसे (अचिक्रदत्) सर्वथा शब्द करता है, जो (स्वम्) अपने किये (अद्म) भोक्तव्य कर्म को (तृषु) शीघ्र (आ) सब प्रकार से भोगता है, वह देह का धारण करनेवाला जीव है ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पूर्ण ईश्वर ने धारण किया, आकाशादि तत्त्वों में प्रयत्नकर्त्ता, सब बुद्धि आदि का प्रकाशक, ईश्वर के न्याय-नियम से अपने किये शुभाशुभ कर्म के सुखदुःखरूप फल को भोगता है, सो इस शरीर में स्वतन्त्रकर्ता भोक्ता जीव है, ऐसा सब मनुष्य जानें ॥ २ ॥

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    विषय

    मानव - भोजन व अजीर्णशक्तिता

    पदार्थ

    १. मन्त्र का ऋषि 'नोधा गौतम' (स्वं अद्य) = अपने भोजन को, अर्थात् मनुष्योचित भोजन को फल - मूल - वनस्पति, न कि मांस को (आयुवमानः) = सब प्रकार से अपने साथ सम्मिश्रित करनेवाला होता है । वस्तुतः इसकी सब प्रकार की उन्नतियों का मूल यही है कि यह अमानवीय भोजन से बचा रहता है २. (अजरः) = भोजन की मर्यादा के पालन से, अर्थात् फल - मूल आदि को भी मर्यादित - [शरीर के लिए जितना आवश्यक है] - रूप में लेने से यह अजीर्णशक्ति बना रहता है । ३. (तृषु) = [Thirsting for] भोजन की अत्यन्त प्रबल इच्छा होने पर ही यह (अविष्यन्) = खाने के स्वभाववाला होता है [अविष्यन् - अत्तिकर्मा] । वस्तुतः भूख के प्रबल होने पर ही अन्न ग्रहण किया जाए तो ठीक रहता है । आमाशय चाहे तो उसे देना, अन्यथा नहीं । ४. (अतसेषु) = [वायुषु, अतति इति] खूब खुली हवावाले स्थानों में (तिष्ठति) = निवास करता है । ५. इस प्रकार के आहार - विहार के परिणामस्वरूप (प्रुषितस्य) = शक्ति से सिक्त इस पुरुष का (पृष्ठम्) = ऊपर का भाग - बाह्यभाग (अत्यः न) = एक घोड़े के समान (रोचते) = चमकता है । यह बड़ा तेजस्वी प्रतीत होता है । ६. (दिवः न सानु) = ज्ञान का तो मानो यह पर्वतशिखर ही हो जाता है, अर्थात् अपने ज्ञान को यह अत्यन्त उन्नत करता है और ७. (स्तनयत्) = प्रभु के नामों का उच्च स्वर से उच्चारण करता हुआ (अचिक्रदत्) = उस प्रभु का आह्वान करता है । प्रभु - नामोच्चारण ही उसके कण्ठ का व्यायाम हो जाता है । इस प्रकार के जीवन से यह गौतम - प्रशस्तेन्द्रिय तो बनता ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मानवोचित भोजन करते हुए अजीर्णशक्ति हों ; ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ हों और हमारी जिह्वा प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाली हो ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( स्वम् अद्म ) अपने भोग्य कर्मफल को भोग्य अन्न के समान ( आ युवमानः ) प्राप्त करता हुआ ( अजरः ) जरा से रहित आत्मा ( तृषु ) शीघ्र ही (अतसेषु) काष्ठों के बीच अग्नि जिस प्रकार उनका भोग करता हुआ भी उनके ही आश्रय में रहता है, उसी प्रकार ( अतसेषु) व्यापक, आकाश, पृथ्वी आदि तत्वों के आश्रय पर ही और ( तृषु ) शीघ्र ही पिपासित के समान उनही पदार्थों का ( अविष्यन् ) भोग करता हुआ उनके ही बीच में ( तिष्ठति ) रहता है । और ( अत्यः न ) जिस प्रकार वेगवान् अश्व मार्ग को पार करता ( रोचते ) अच्छा मालूम होता है और जिस प्रकार ( प्रुषितस्य ) अति अधिक दाहकारी अग्नि का ( पृष्ठ ) ऊपर का भाग ( रोचते ) अति उज्वल होता है उसी प्रकार ( प्रुषितस्य ) अति तेजस्वी, सब पापों को भस्म कर देने हारे इस जीवात्मा का ( पृष्ठम् ) आनन्द सेचन करने वाला स्वरूप भी ( रोचते ) बहुत ही प्रिय प्रतीत होता है । (दिवः सानुम् न) आकाश में स्थित मेघ के खण्ड के समान वह (दिव:) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर को भजन करने वाला जीव भी ( स्तनयन् ) गर्जते मेघ के समान ही ( अचिक्रदत् ) अन्तार्नाद करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह जीव कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं यः युवमानः अजरः देहादिकम् अविष्यन् अतसेषु तिष्ठति प्रुषितस्य पूर्णस्य मध्ये स्थितः सन् पृष्ठमत्यः न देहादि वहति सानु दिवः न रोचते विद्युत् स्तनयन् इव अचिक्रदत् स्वम् अद्म तृषु आ भुङ्क्ते स देही जीव इति मन्तव्यम् ॥२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः) =जो, (युवमानः) संयोजको भेदकश्च=छिन्न-भिन्न करनेवाले और जोड़नेवाले हो, (अजरः) स्वस्वरूपेण जीर्णावस्थारहितः= अपने स्वरूप से जीर्ण अवस्था प्राप्त न करनेवाले हो, (देहादिकम्)= देह आदि की, (अविष्यन्) रक्षणादिकं करिष्यन्=रक्षा आदि करते हुए, (अतसेषु) विस्तृतेष्वाकाशपवनादिषु पदार्थेषु=विस्तृत आकाश और पवन आदि पदार्थों में, (तिष्ठति) वर्त्तते=रहते हो, (प्रुषितस्य) स्निग्धस्य मध्ये= चिकनी वस्तु के अन्दर, (पूर्णस्य)=पूर्ण वस्तु के, (मध्ये)=अन्दर, (स्थितः)= स्थित, (सन्)=होते हुए, (पृष्ठम्) पृष्ठभागम्=पीछे के भाग में, (अत्यः) अश्वः= अश्व के, (न) इव=समान, (देहादि)= शरीर आदि को, (वहति)= आगे ले जाते हैं, (सानु) मेघस्य शिखरः=बादल की चोटी पर से, (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात्=सूर्य के प्रकाश के, (न) इव =समान, (रोचते) प्रकाशते= प्रकाशित, (विद्युत्)= विद्युत्, (स्तनयन्) शब्दयन्=शब्द करती हुई के, (इव) =समान, (अचिक्रदत्) विकलयति= व्याकुल करता है, (स्वम्) स्वकीयम्=अपने, (अद्म) अत्तुमर्हं कर्मफलम्=खाने योग्य अर्थात् भोगने योग्य कर्म फल को, (तृषु) शीघ्रम्=शीघ्र, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (भुङ्क्ते) =भोग करे, (सः) =वह, (देही)=शरीरी, (जीव)= जीव है, (इति)=ऐसा, (मन्तव्यम्)= मानना चाहिए॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पूर्ण ईश्वर ने धारण किया, आकाश आदि सक्रिय है, सब की बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, निश्चित रूप से ईश्वर के आदेश से ही अपने किये गये शुभ और अशुभ कर्मों के सुख और दुःख रूपी फल को भोगता है, इसलिये इस शरीर में स्वतन्त्र कर्ता और भोक्ता जीव है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (यः) जो (युवमानः) छिन्न-भिन्न करनेवाले और जोड़नेवाले हो, (अजरः) अपने स्वरूप से जीर्ण अवस्था न प्राप्त करनेवाले हो, (देहादिकम्) शरीर आदि की (अविष्यन्) रक्षा आदि करते हुए, (अतसेषु) विस्तृत आकाश और पवन आदि पदार्थों में (तिष्ठति) रहते हो। (प्रुषितस्य) चिकनी वस्तु के अन्दर और (पूर्णस्य) पूर्ण वस्तु के (मध्ये) अन्दर (स्थितः) स्थित (सन्) होते हुए (पृष्ठम्) पीठ में (अत्यः) अश्व के (न) समान (देहादि) शरीर आदि को (वहति) आगे ले जाते हैं। (सानु) बादल की चोटी पर से (दिवः) सूर्य के प्रकाश के (न) समान (रोचते) प्रकाशित (विद्युत्) विद्युत् (स्तनयन्) शब्द करते हुई के (इव) समान (अचिक्रदत्) व्याकुल करता है। (स्वम्) अपने (अद्म) खाने योग्य अर्थात् भोगने योग्य कर्म फल को (तृषु) शीघ्र (आ) हर ओर से (भुङ्क्ते) भोग करे, (सः) वह (देही) शरीरी (जीव) जीव है, (इति) ऐसा (मन्तव्यम्) मानना चाहिए॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (स्वम्) स्वकीयम् (अद्म) अत्तुमर्हं कर्मफलम् (युवमानः) संयोजको भेदकश्च। अत्र विकरणव्यत्ययेन श आत्मनेपदं च। (अजरः) स्वस्वरूपेण जीर्णावस्थारहितः (तृषु) शीघ्रम्। तृष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (अविष्यन्) रक्षणादिकं करिष्यन् (अतसेषु) विस्तृतेष्वाकाशपवनादिषु पदार्थेषु (तिष्ठति) वर्त्तते (अत्यः) अश्वः (न) इव (पृष्ठम्) पृष्ठभागम् (प्रुषितस्य) स्निग्धस्य मध्ये (रोचते) प्रकाशते (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (न) इव (सानु) मेघस्य शिखरः (स्तनयन्) शब्दयन् (अचिक्रदत्) विकलयति ॥२॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यो युवमानोऽजरो देहादिकमविष्यन्नतसेषु तिष्ठति प्रुषितस्य पूर्णस्य मध्ये स्थितः सन् पृष्ठमत्यो न देहादि वहति सानु दिवो न रोचते विद्युत् स्तनयन्निवाचिक्रदत् स्वमद्म तृष्वाभुङ्क्ते स देही जीव इति मन्तव्यम् ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः पूर्णेनेश्वरेण धृत आकाशादिषु प्रयतते सर्वान् बुध्यादीन् प्रकाशते ईश्वरनियोगेन स्वकृतस्य शुभाशुभाचरितस्य कर्मणः सुखदुःखात्मकं फलं भुङ्क्ते, सोऽत्र शरीरे स्वतन्त्रकर्त्ता भोक्ता जीवोऽस्तीति मनुष्यैर्वेदितव्यम् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो पूर्ण ईश्वराकडून धारण केलेल्या आकाश इत्यादी तत्त्वात प्रयत्नकर्ता, सर्वांच्या बुद्धीचा प्रकाशक असलेल्या ईश्वराच्या न्यायनियमानुसार आपल्या केलेल्या शुभाशुभ कर्माचे सुखदुःखस्वरूप फळ भोगतो त्यामुळे शरीरात स्वतंत्रकर्ता भोक्ता जीव आहे हे सर्व माणसांनी जाणावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Unaging and immortal, instantly consuming its food, it protects the environment and abides in the winds and the vast skies. Like a courser on the wings, it flies and shines on top when it is sprinkled with ghrta, and as on the peak of heaven, it thunders as lightning.

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    Subject of the mantra

    Then how is that living being, this topic is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =that, (yuvamānaḥ)you are the one who disintegrate and unite, (ajaraḥ) =you are not going to get old due to your form, (dehādikam)= of body etc., (aviṣyan)=while protecting etc., (ataseṣu)=in vast sky and wind etc. (tiṣṭhati) =reside, (pruṣitasya)= inside the greasy object and, (pūrṇasya)= of complete object, (madhye) =inside,(sthitaḥ) =placed, (san) =being, (pṛṣṭham) =in the back, (atyaḥ) =of horse, (na) =like, (dehādi) =to the body etc., (vahati) =take foreward, (sānu) =from the top of the cloud, (divaḥ)=of Sunlight, (na) =like, (rocate) =illuminated, (vidyut) =electricity, (stanayan)=while uttering words, (iva)=like, (acikradat)= is disturbing, (svam) =own, (adma)=the rewards of action worth eating i.e. worth enjoying, (tṛṣu) =soon, (ā) =from all sides, (bhuṅkte) =must enjoy, (saḥ) =that, (dehī) =bodily, (jīva) =living being, (iti) =such, (mantavyam)=should be believed.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you, who are the ones who disintegrate and unite, who do not become dilapidated by your nature, live in things like the vast sky and wind etc., protecting the body etc. Being situated inside the greasy object and inside the complete object, the body etc. is taken forward like a horse in the back. The electricity shining like Sunlight from the top of the clouds disturbs like a sound. It should be believed that he is a bodily being and should quickly enjoy the rewards of his actions which are edible, i.e., worth enjoying, from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. The one, who is possessed by the Supreme God, is active in the sky etc., illuminates everyone's intelligence etc., definitely experiences the rewards of happiness and sorrow of the auspicious and inauspicious deeds done by him only by the order of God, hence in this body every human being should know that he is an independent doer and enjoyer.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the soul is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should know that to be the soul that by her real nature is free from old age and death etc. dwells on the basis of the sky, the air and other substances protecting the body, being established in Perfect God. As a horse carries some load on its back, so the soul carries or supports the body. Like the cloud in the sky, the soul singing the glory of the Refulgent God makes internal sound in a Yogic State. On account of Inner light, she shines brightly. She soon enjoys the fruits of her actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अझ) अत्तुमंर्ह कर्मफलम् = The enjoyable fruit of actions. (तृषु) शीघ्रम्-तृष्विति क्षिप्रनाम (निघ० २.१५) (सानु ) मेघस्य शिखर: = The summit of the cloud.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that the soul is the free doer of actions and enjoys soon the fruits of its good or bad actions in the form of happiness and misery under the Superintendence of God. It is upheld by Perfect God and based upon the sky and other substances for its nourishment. It illumines the intellect and mind etc.

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