ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 5
तपु॑र्जम्भो॒ वन॒ आ वात॑चोदितो यू॒थे न सा॒ह्वाँ अव॑ वाति॒ वंस॑गः। अ॒भि॒व्रज॒न्नक्षि॑तं॒ पाज॑सा॒ रजः॑ स्था॒तुश्च॒रथं॑ भयते पत॒त्रिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतपुः॑ऽजम्भः । वने॑ । आ । वात॑ऽचोदितः । यू॒थे । न । सा॒ह्वान् । अव॑ । वा॒ति॒ । वंस॑गः । अ॒भि॒ऽव्रज॑न् । अक्षि॑तम् । पाज॑सा । रजः॑ । स्था॒तुः । च॒रथ॑म् । भ॒य॒ते॒ । प॒त॒त्रिणः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपुर्जम्भो वन आ वातचोदितो यूथे न साह्वाँ अव वाति वंसगः। अभिव्रजन्नक्षितं पाजसा रजः स्थातुश्चरथं भयते पतत्रिणः ॥
स्वर रहित पद पाठतपुःऽजम्भः। वने। आ। वातऽचोदितः। यूथे। न। साह्वान्। अव। वाति। वंसगः। अभिऽव्रजन्। अक्षितम्। पाजसा। रजः। स्थातुः। चरथम्। भयते। पतत्रिणः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो वंसगो वातचोदितस्तपुर्जम्भोऽग्निरिव जीवो यूथे साह्वानाववाति विस्तृतो भूत्वा हिनस्ति योऽभिव्रजन् चरथमक्षितं रजः पाजसा धरति स्थातुस्तिष्ठतो वृक्षादेर्मध्ये पतत्रिण इव भयते तद्युष्माकमात्मस्वरूपमस्तीति विजानीत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(तपुर्जम्भः) तपूंषि तापा जम्भो वक्रमिव यस्य सः (वने) रश्मौ (आ) समन्तात् (वातचोदितः) वायुना प्रेरितः (यूथे) सैन्ये (न) इव (साह्वान्) सहनशीलो वीरः (अव) विनिग्रहे (वाति) गच्छति (वंसगः) यो वंसान् सम्भक्तान् पदार्थान् गच्छति प्राप्नोति सः (अभिव्रजन्) अभितः सर्वतो गच्छन् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (पाजसा) बलेन। पाज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (रजः) सकारणं लोकसमूहम् (स्थातुः) कृतस्थितेः (चरथम्) चर्यते गम्यते भक्ष्यते यस्तम् (भयते) भयं जनयति। अत्र व्यत्ययेन बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् आत्मनेपदञ्च (पतत्रिणः) पक्षिणः ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्योऽन्तःकरणप्राणेन्द्रियशरीरप्रेरकः सर्वेषामेतेषां धर्त्ता नियन्ताऽधिष्ठातेच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानादिगुणोऽस्ति सोऽत्र देहे जीवोऽस्तीति वेद्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्य लोगो ! जो (वंसगः) भिन्न-भिन्न पदार्थों को प्राप्त होता (वातचोदितः) प्राणों से प्रेरित (तपुर्जम्भः) जिस का मुख के समान प्रताप, वह जीव अग्नि के सदृश जैसे (यूथम्) सेना में (साह्वान्) सहनशील जीव (अववाति) सब शरीर की चेष्टा कराता है, जो विस्तृत होके दुःखों का हनन करता जो (अभिव्रजन्) जाता-आता हुआ (चरथम्) चरनेहारे (अक्षितम्) क्षयरहित (रजः) कारण के सहित लोकसमूह को (पाजसा) बल से धरता जो (स्थातुः) स्थिर वृक्ष में बैठे हुए (पतत्रिणः) पक्षी के समान (भयते) भय करता है, सो तुम्हारा आत्मस्वरूप है, इस प्रकार तुम लोग जानो ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार, प्राण अर्थात् प्राणादि दशवायु इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्रादि दश इन्द्रियों का प्रेरक, इन का धारक और नियन्ता, स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणवाला है, वह इस देह में जीव है, ऐसा निश्चित जानो ॥ ५ ॥
विषय
अक्षयलोक की ओर
पदार्थ
१. (तपुर्जम्भः) = तपस्यायुक्त है मुख जिसका, अर्थात् जिसे खान - पान का कोई चस्का नहीं है, (वने) = उस प्रभु की उपासना में (आवातचोदितः) सब प्रकार से वायु से प्रेरणा को प्राप्त किया हुआ, अर्थात् जो प्रभु का ध्यान करता है और वायु की भाँति क्रियाशील बना रहता है, यह व्यक्ति (यूथे) = गौवों के झुण्ड में (वंसगाः) = वननीय गतिवाले (साह्वान्) = प्रतिस्पर्धियों का पराभव करनेवाले वृषभ की भाँति (अववाति) = विषयों से दूर हो जाता है । विषय गोयूथ के समान हैं, यह तपुर्जम्भ उनमें विचरनेवाले वृषभ की भाँति है । इन विषयों में विचरता हुआ यह काम - क्रोध - लोभादि प्रतिस्पर्धियों से पराभूत नहीं होता । कामादि को पराभूत करके ही यह विषयों का यथायोग्य सेवन करता है । २. इस प्रकार विषयों का यथायोग्य सेवन करता हुआ यह (पाजसा )- शक्ति के द्वारा (अक्षितं रजः) = अक्षयलोक की (अभिवज्रन्) = ओर जानेवाला होता हैं ३. (पतत्रिणः) = कामादि शत्रुओं पर प्रबल आक्रमण करनेवाले इस 'गौतम' से (स्थातुः चरथम्) = सारा स्थावर व जंगम संसार (भयते) = भयभीत होता है, अर्थात् उसके वशवर्ती होकर उसकी अनुकूलता में चलता है । जिसने काम आदि को जीत लिया वह सारे संसार को ही जीत लेता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम स्वादेन्द्रिय को जीतें, वायु की भाँति क्रियावाले हों । विषयवासना से ऊपर उठकर विचरें । शक्तिसम्पन्न होकर अक्षय लोक की ओर चलें । काम आदि पर आक्रमण करनेवाले हमसे सारा लोक भयभीत हो ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
( १ ) जीवके पक्ष में—(तपुर्जम्भः) ज्वाला रूप मुख वाला अग्नि जिस प्रकार (वातचोदितः) वायु से प्रेरित होकर, प्रचण्ड होकर ( वने आ वाति ) जंगल में फैल जाता है उसी प्रकार यह जीव भी (वातचोदितः) वायु रूप प्राणों से प्रेरित होकर (तपुर्जम्भः) संताप देने वाले जाठर अग्नि को अपना मुख या साधन बना कर ( वने ) भोग्य विषय में, या संसार में (आवाति) गति करता है। उत्तम जीव (वातचोदितः) ज्ञानवान् पुरुष से प्रेरित होकर (तपुर्जम्भः) तपस्या द्वारा बाधक कारणों को नाश करता हुआ ( वने ) वन में, अरण्य में सेवनयोग्य परम ब्रह्म या आत्मा के अपने स्वरूप में (आ वाति) प्रवेश करता है । वह जीव ( वंसगः यूथे न ) वृषभ जिस प्रकार गो-समूह में (साह्वान्) प्रबल प्रतिस्पर्द्धा वाले बृषभ को पराजित करने में समर्थ होकर (अव वाति) गौओं के पीछे २ जाता है उसी प्रकार (वंसगः) नाना भोग योग्य पदार्थों के पीछे जाने हारा, तृष्णा युक्त जीव ( यूथे ) इन्द्रिय गण में ( साह्वान् ) प्रतिस्पर्धी काम, क्रोध आदि आभ्यन्तर शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ होकर भी ( अव वाति ) प्रायः इन्द्रियों के अधीन होकर नीचे गिर जाता है। और जिस प्रकार (अभिव्रजन्) शत्रु पर आक्रमण करने वाला वीर पुरुष ( पाजसा ) अपने बल बीर्य से (अक्षितं) अक्षय ( रजः ) ऐश्वर्य को (आवाति) प्राप्त करता है उसी प्रकार यह जीव भी (अभिव्रजन्) उन संसार के बंधनों को परित्याग करके परिव्राजक होकर साक्षात् परमेश्वर को लक्ष्य कर उसी की तरफ चलता हुआ (पाजसा) अपने ज्ञान सामर्थ्य से ( अक्षितम् ) अक्षय ( रजः ) ऐश्वर्य, अक्षय लोक, मोक्ष या परमेश्वर को ( आवाति ) प्राप्त होता है। जिस प्रकार व्यापनशील अग्नि से स्थावर जंगम सभी भय करते हैं उसी प्रकार ( पतत्रिणः ) देहान्तर में जाने वाले उस जीवात्मा से मृत्यु के अवसर में ( स्थातुः ) स्थावर और (चरथम्) जंगम सभी प्राणी (भयते) भय करते हैं। अथवा—( पाजसा चरथम् अक्षितं रजः धरति ) बल से और ज्ञान से भोग योग्य अन्नादि, कर्म फल, सुखजनक अक्षय लोक प्राप्त करता है और ( स्थातुः पतत्रिणः इव भयते ) वृक्ष के ऊपर बैठे पक्षियों के समान भय करता है । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥ ( २ ) वीर राजा के पक्ष में – ( वने आवात चोदितः ) वन में वायु से प्रचण्ड हुए अग्नि के समान सेनापति (तपुर्जम्भः) संतापकारी शस्त्रों से युक्त होकर ( आवाति ) आगे बढ़े । ( यूथे वंसगः नः ) गोयूथ में बड़े वृषभ के समान ( साह्वान् अव वाति ) शत्रु को पराजय करने समर्थ होकर टूट पड़े । (पाजसा अभिवजन्) प्राप्त करता हुआ वल वीर्य से (अक्षितंरजः) अक्षय लोक को या ऐश्वर्य को प्राप्त करे। ( पतत्रिणः ) वेग से आक्रमण करने वाले उससे (स्थातुः) युद्ध में स्थिर पुरुष और ( चरथम् भयते ) बढ़ने वाला सैन्य भी भय करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह जीव कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यः वंसगः वातचोदितः तपुर्जम्भः अग्निः इव जीवः यूथे {न} साह्वान् आ अव वाति विस्तृतः भूत्वा हिनस्ति यः अभिव्रजन् चरथम् अक्षितं रजः पाजसा धरति स्थातुः तिष्ठतः वृक्षादेः मध्ये पतत्रिण इव भयते तत् युष्माकम् आत्मस्वरूपम् अस्ति इति विजानीत ॥५॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यः)=जो, (वंसगः) यो वंसान् सम्भक्तान् पदार्थान् गच्छति प्राप्नोति सः=बंटे हुए पदार्थों को प्राप्त करनेवाला, (वातचोदितः) वायुना प्रेरितः=वायु से प्रेरित, (तपुर्जम्भः) तपूंषि तापा जम्भो वक्रमिव यस्य सः=जल रहे गर्म टेढ़े जैसे जबड़ेवाली, {वने} रश्मौ=किरणों में, (अग्निः) = अग्नि के, (इव)= समान, (जीवः)=जीव, (यूथे) सैन्ये=सेना के, {न} इव=समान, (साह्वान्) सैन्ये =सेना में, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (अव) विनिग्रहे=पृथक्-पृथक्, (वाति) गच्छति=जाता है, (विस्तृतः) =बढ़ा हुआ, (भूत्वा) =होकर, (हिनस्ति) =मारता है, (यः) =जो, (अभिव्रजन्) अभितः सर्वतो गच्छन्=हर ओर जाते हुआ, (चरथम्) चर्यते गम्यते भक्ष्यते यस्तम्= खाता है, (अक्षितम्) क्षयरहितम्=क्षयरहित, (रजः) सकारणं लोकसमूहम्= कारण सहित लोकों के समूह को, (पाजसा) बलेन=बल से, (धरति)=धारण करता है, और (स्थातुः) कृतस्थितेः =तिष्ठतः=स्थित होकर, (वृक्षादेः)= वृक्ष आदि के, (मध्ये) =बीच में, (पतत्रिणः) पक्षिणः=पक्षियों के, (इव) =समान, (भयते) भयं जनयति=भय उत्पन्न करता है, (तत्)= इसलिये, (युष्माकम्)=तुम सबका, (आत्मस्वरूपम्)= आत्मा का स्वरूप, (अस्ति)=है, (इति) =ऐसा, (विजानीत)=तुम सब जानो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के करण प्राण इन्द्रियाँ शरीर की प्रेरक हैं। सबको इनका धारण कर्त्ता, चलानेवाला, शासन कर्त्ता और इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख व ज्ञान आदि गुणवाला है। वह इस शरीर में जीव है, ऐसा जानना चाहिए ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यः) जो (वंसगः) बंटे हुए पदार्थों को प्राप्त करनेवाला, (वातचोदितः) वायु से प्रेरित, (तपुर्जम्भः) जल रहे गर्म टेढ़े जबड़ेवाली {वने} किरणों में (अग्निः) अग्नि के (इव) समान (जीवः) जीव है। [जो] (यूथे) सेना के {न} समान (साह्वान्) सेना में (आ) हर ओर से (अव) पृथक्-पृथक् होकर (वाति) जाता है, [वह] (विस्तृतः) बढ़े हुए स्वरूप मे (भूत्वा) होकर (हिनस्ति) मारता है। (यः) जो (अभिव्रजन्) हर ओर जाते हुए, (चरथम्) खाता है, (अक्षितम्) क्षयरहित और (रजः) कारण सहित लोकों के समूह को (पाजसा) [अपने] बल से (धरति) धारण करता है और (स्थातुः) स्थित होकर (वृक्षादेः) वृक्ष आदि के (मध्ये) बीच में [स्थित होकर] (पतत्रिणः) पक्षियों के (इव) समान (भयते) भय उत्पन्न करता है। (तत्) इसलिये (युष्माकम्) तुम सबका (आत्मस्वरूपम्) आत्मा का स्वरूप (अस्ति) है, (इति) ऐसा (विजानीत) तुम सब जानो ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तपुर्जम्भः) तपूंषि तापा जम्भो वक्रमिव यस्य सः (वने) रश्मौ (आ) समन्तात् (वातचोदितः) वायुना प्रेरितः (यूथे) सैन्ये (न) इव (साह्वान्) सहनशीलो वीरः (अव) विनिग्रहे (वाति) गच्छति (वंसगः) यो वंसान् सम्भक्तान् पदार्थान् गच्छति प्राप्नोति सः (अभिव्रजन्) अभितः सर्वतो गच्छन् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (पाजसा) बलेन। पाज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (रजः) सकारणं लोकसमूहम् (स्थातुः) कृतस्थितेः (चरथम्) चर्यते गम्यते भक्ष्यते यस्तम् (भयते) भयं जनयति। अत्र व्यत्ययेन बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् आत्मनेपदञ्च (पतत्रिणः) पक्षिणः ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यः वंसगो वातचोदितस्तपुर्जम्भोऽग्निरिव जीवो यूथे साह्वानाववाति विस्तृतो भूत्वा हिनस्ति योऽभिव्रजन् चरथमक्षितं रजः पाजसा धरति स्थातुस्तिष्ठतो वृक्षादेर्मध्ये पतत्रिण इव भयते तद्युष्माकमात्मस्वरूपमस्तीति विजानीत ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्योऽन्तःकरणप्राणेन्द्रियशरीरप्रेरकः सर्वेषामेतेषां धर्त्ता नियन्ताऽधिष्ठातेच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानादिगुणोऽस्ति सोऽत्र देहे जीवोऽस्तीति वेद्यम् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी जो अंतःकरण (अर्थात) मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार, प्राण अर्थात प्राण इत्यादी दहा वायू अर्थात श्रोत्र इत्यादी दहा इंद्रियांचा प्रेरक, त्यांचे धारण व नियंता स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख व ज्ञान इत्यादी गुणयुक्त असतो तो या देहात जीव आहे, हे निश्चित जाणा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Voracious power of the jaws of flame, enveloped in the rays of its own light, inspired by the energy of Vayu, it moves around bold and fearless like a bull in the herd of cows in the forest far and near. It moves across the moving and undecaying world of earth and sky up and down with its force, and the world feels afraid of it whether it stays or flies like a bird.
Subject of the mantra
Then how is that living being, this topic is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (yaḥ) =that, (vaṃsagaḥ)=One who receives divided substances, (vātacoditaḥ)=inspired by air, (tapurjambhaḥ)=the one with burning hot crooked jawed, {vane}=in the rays, (agniḥ) =of fire, (iva) =like, (jīvaḥ) =living being is, [jo]=which, (yūthe) =of army, {na} =like (sāhvān) =in army, (ā) =from all side, (ava) =separately,ā (vāti) =goes, [vaha]=that, (vistṛtaḥ) =in enlarged form, (bhūtvā) =being, (hinasti) =kills, (yaḥ) =that, (abhivrajan) =going to all sides, (caratham) =eats, (akṣitam)= decay free and, (rajaḥ) =to a group of worlds with reason, (pājasā) [apane]=with own power, (dharati)=holding and, (sthātuḥ) =being stationed, (vṛkṣādeḥ) =of trees etc., (madhye) = between, [sthita hokara]=being stationed, (patatriṇaḥ) =of birds, (iva) =like, (bhayate) =creates fear, (tat) =therefore, (yuṣmākam) =of all of you, (ātmasvarūpam)=nature of soul, (asti)=is, (iti) =such, (vijānīta) =all of you must know.
English Translation (K.K.V.)
O humans! The one who receives the divided substances, is inspired by the wind, and is like fire in the hot, crooked jawed rays. The one who goes separately from all sides like an army, he kills in an enlarged form. He who eats while going everywhere, holds the group of worlds with his strength, without decay and with reason, and by being situated in the middle of trees etc., creates fear like birds. That's why you all must know the nature of your soul.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The means of action of human beings, vital senses are the motivators of the body. All of them are possessed by the wearer, the one who runs them, the one who rules and has qualities like desire, hatred, effort, happiness, sorrow and knowledge etc. One should know that he is a living being in this body.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is the soul is taught further in the fifth mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The soul is like the fire with devouring flames, moved or excited by the breeze, assailing the un-exhaled moisture of the trees, with all its strength. It is like the bull that rushes triumphant against all things in the forest and all, whether stationary or movable are afraid of it, like the birds sitting on a tree. The soul is like wise mighty person moved or excited by the Prana. Going everywhere fearlessly like a recluse or Sanyasi, it upholds the worlds with its power of knowledge and all wicked or unrighteous persons are afraid of him. You should know this to be the nature of your soul.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that the soul in the body is the impeller of the body, its organs and inner senses, their upholder, controller, master, possessing desires, malice, volition, happiness. misery and consciousness. (पाजसा) बलेन पाज इति बलनाम ( निघ० २.९) = With its strength.
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