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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क्रा॒णा रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिः पु॒रोहि॑तो॒ होता॒ निष॑त्तो रयि॒षाळम॑र्त्यः। रथो॒ न वि॒क्ष्वृ॑ञ्जसा॒न आ॒युषु॒ व्या॑नु॒षग्वार्या॑ दे॒व ऋ॑ण्वति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्रो॒णा । रु॒द्रेभिः॑ । वसु॑ऽभिः । पु॒रःऽहि॑तः । होता॑ । निऽस॑त्तः । र॒यि॒षाट् । अम॑र्त्यः । रथः॑ । न । वि॒क्षु । ऋ॒ञ्ज॒सा॒नः । आ॒युषु॑ । वि । आ॒नु॒षक् । वार्या॑ । दे॒वः । ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्राणा रुद्रेभिर्वसुभिः पुरोहितो होता निषत्तो रयिषाळमर्त्यः। रथो न विक्ष्वृञ्जसान आयुषु व्यानुषग्वार्या देव ऋण्वति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्राणा। रुद्रेभिः। वसुऽभिः। पुरःऽहितः। होता। निऽसत्तः। रयिषाट्। अमर्त्यः। रथः। न। विक्षु। ऋञ्जसानः। आयुषु। वि। आनुषक्। वार्या। देवः। ऋण्वति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो रुद्रेभिर्वसुभिः सह निषत्तो होता पुरोहितो रयिषाडमर्त्यः क्राणा ऋञ्जसानो विक्षु रथो नेवायुष्वानुषग्वार्य्या व्यृण्वति साध्नोति, स एव देवो जीवात्माऽस्तीति यूयं विजानीत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (क्राणा) कर्त्ता। अत्र कृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (रुद्रेभिः) प्राणैः (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः सहः (पुरोहितः) पूर्वं ग्रहीता (होता) अत्ता (निषत्तः) स्थितः (रयिषाट्) यो रयिं द्रव्यं सहते (अमर्त्यः) नाशरहितः (रथः) रमणीयस्वरूपः (न) इव (विक्षु) प्रजासु (ऋञ्जसानः) य ऋञ्जति प्रसाध्नोति सः। अत्र ऋञ्जिवृधिमदि० (उणा०२.८७) अनेन सानच् प्रत्ययः। (आयुषु) बाल्यावस्थासु (वि) विशिष्टार्थे (आनुषक्) अनुकूलतया (वार्या) वर्त्तुं योग्यानि वस्तूनि (देवः) देदीप्यमानः (ऋण्वति) कर्माणि साध्नोति ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये पृथिव्यां प्राणैश्चेष्टन्ते, मनोऽनुकूलेन रथेनेव शरीरेण सह रमन्ते, श्रेष्ठानि वस्तूनि सुखं चेच्छन्ति, त एव जीवा इति वेद्यम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जो (रुद्रेभिः) प्राणों और (वसुभिः) वास देनेहारे पृथिवी आदि पदार्थों के साथ (निसत्तः) स्थित चलता फिरता (होता) देहादि का धारण करने हारा (पुरोहितः) प्रथम ग्रहण करने योग्य (रयिषाट्) धन का सहनकर्त्ता (अमर्त्यः) मरणधर्मरहित (क्राणा) कर्मों का कर्त्ता (ऋञ्जसानः) जो किये हुए कर्म को प्राप्त होता (विक्षु) प्रजाओं में (रथो न) रथ के समान शरीरसहित होके (आयुषु) बाल्यादि जीवनावस्थाओं में (आनुषक्) अनुकूलता से वर्त्तमान (वार्या) उत्तम पदार्थ और सुखों को (व्यृण्वति) विविध प्रकार सिद्ध करता है, वही (देवः) शुद्ध प्रकाशस्वरूप जीवात्मा है, ऐसा जानो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी में प्राणों के साथ चेष्टा, मन के अनुकूल, रथ के समान शरीर के साथ क्रीड़ा, श्रेष्ठ वस्तु और सुख की इच्छा करते हैं, वे ही जीव हैं, ऐसा सब लोग जानें ॥ ३ ॥

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    विषय

    उत्तम संग व उत्तम जीवन

    पदार्थ

    १. यह 'नोधा गौतम' (रुदेभिः वसभिः) = ज्ञान देनेवाले [रुत्+र] तथा अपने निवास को उत्तम बनानेवाले पुरुषों के साथ (क्राणा) = कर्मों का करनेवाला होता है । इसका सङ्ग सदा उत्तम पुरुषों के ही साथ रहता है । २. यह (पुरोहितः) = औरों के समान [पुरः] आदर्श जीवनवाले के रूप में अपने को स्थापित करता है [हितः] । अपने जीवन को औरों के लिए आदर्श बनाने का प्रयत्न करता है । ३. होता यह दानपूर्वक अदन करनेवाला होता है । यह देने के बाद सदा यज्ञशेष को ही खाता है । ४. (निषत्तः) = प्रातः - सायं नम्रता से प्रभु - चरणों में बैठता है । ५. (रयिषाट्) = धन का पराभव करनेवाला बनता है, अर्थात् धन को अपना स्वामी नहीं बनने देता, सदा धन का स्वामी बना रहता है । यह धन पर आरूढ़ होता है, धन इसपर आरूढ़ नहीं हो जाता । ६. (अमर्त्यः) = यह विषय - वासनाओं के पीछे मरनेवाला नहीं होता । ७. (विक्षुः) = प्रजाओं में (रथः न) = यह रथ के समान होता है । जैसे रथ हमें उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार यह अपने को उद्दिष्ट स्थान पर ले - जानेवाला होता है । जीवनयात्रा में आगे और आगे बढ़ता है । ८. (आयुषु ऋञ्जसानः) = गतिशील पुरुषों में यह कार्यों को सिद्ध करनेवाला व जीवन को अलंकृत करनेवाला होता है, गतिशील होता है और जीवन को सुन्दर बनाता है । ९. (देवः) = दिव्य गुणोंवाला व दान की वृत्तिवाला बनता हुआ यह (आनुषक्) = निरन्तर (वार्या) = वरणीय धनों को (ऋण्वति) = प्राप्त होता है । इसे चाहने योग्य धन सदा प्राप्त होते हैं । यह उन धनों का प्रयोग देव की भाँति करता है, नकि एक असुर की भाँति, अर्थात् सब स्वयं नहीं खा जाता देकर बचे हुए को ही खाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा सङ्ग रुद्रों व वसुओं के साथ हो । हम देववृत्तिवाले बनकर वरणीय धनों को प्राप्त करें । उत्तम सङ्ग से हमारा जीवन भी उत्तम हो ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( वसुभिः रुद्रेभिः पुरोहितः होता ) जिस प्रकार वसु और रुद्र नामक ब्रह्मचारी विद्वान् पुरुषों द्वारा वरा जाकर, पुरोहित हो, उसी प्रकार (रुद्रेभिः) प्राणों द्वारा और (वसुभिः) देह में और ब्रह्माण्ड में वास के आश्रय पृथिवी आदि तत्वों द्वारा (पुरः हितः) सब से प्रथम अपने भीतर धारण किया जाकर, (होता) समस्त ग्राह्य, भोग्य, रूप आदि विषयों का ग्रहण करने हारा है। और (अमर्त्यः) कभी मृत्यु द्वारा भी विनाश न होकर, (नि षत्तः) स्थिर रह कर (रयिषाड्) बल और वीर्य, रयि अर्थात् दैहिक विभूतियों को अपने वश करता है। वही जीव ( रथः ) एक देह से दूसरे देह में जाने वाला और ( रथः ) अपने को प्रिय लगने वाला, ( रथः ) रस स्वरूप या स्वतः आनन्द प्रद ( विक्षु रथः न ) प्रजाओं में रथी के समान ( ऋञ्जसानः ) सब कार्यों को सहज ही में साधता हुआ (आयुषु) बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि आयुकी नाना दशाओं में (आनुषक्) अनुकूल या निरन्तर, एक समान परिवर्तन रहित रह कर ( देवः) सुखप्रद, स्वयं द्रष्टा होकर (वार्या) नाना वरण करने योग्य ऐश्वर्यो को स्वयं ( वि ऋण्वति ) विविध उपायों से प्राप्त करता और भोगता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह जीवात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यः रुद्रेभिः वसुभिः सह निषत्तः होता पुरोहितः रयिषाट् अमर्त्यः क्राणा ऋञ्जसानः विक्षु रथः न इव आयुषु आनुषक् वार्य्या व्यृण्वति साध्नोति, स एव देवः जीवात्मा अस्ति इति यूयं विजानीत ॥३॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यः) =जो, (रुद्रेभिः) प्राणैः= प्राणों के द्वारा, (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः सह=पृथिवी आदि के साथ, (निषत्तः)= स्थित= स्थित होकर, (होता) अत्ता=हवियों को देनेवाले और (पुरोहितः) पूर्वं ग्रहीता=इससे पहले उनको ग्रहण करनेवाले, (रयिषाट्) यो रयिं द्रव्यं सहते=धन को सहनेवाले, (अमर्त्यः) नाशरहितः= नाशरहित, (क्राणा) कर्त्ता= कर्त्ता को, (ऋञ्जसानः) य ऋञ्जति प्रसाध्नोति सः= अलंकृत करनेवाली, (विक्षु) प्रजासु=प्रजाओं में, (रथः) रमणीयस्वरूपः= रमणीय स्वरूप के, (न) इव=समान, (आयुषु) बाल्यावस्थासु=बाल्य अवस्था में, (आनुषक्) अनुकूलतया=अनुकूल रूप से, (वार्या) वर्त्तुं योग्यानि वस्तूनि=व्यवहार के योग्य वस्तुओं को, (वि) विशिष्टार्थे =विशेष रूप से, (ऋण्वति) कर्माणि साध्नोति=कर्मों को साधता है, (सः)=वह, (एव)=ही, (देवः) देदीप्यमानः= अतिशय रूप से प्रकाशित, (जीवात्मा)= जीवात्मा, (अस्ति)=है, (इति)=ऐसा, (यूयम्)=तुम सब, (वि) विशिष्टार्थे= विशेष रूप से, (जानीत)=जानो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी में प्राणों के साथ पुरुषार्थ करते हैं, मन के अनुकूल रथ के समान शरीर से रमण करते हैं, श्रेष्ठ वस्तुओं और सुख की इच्छा करते हैं, वे ही जीव हैं, ऐसा सब लोग जानें ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यः) जो (रुद्रेभिः) प्राणों के द्वारा (वसुभिः) पृथिवी आदि के साथ, (निषत्तः) स्थित होकर (होता) अत्ता=[हवियों को] देनेवाले और (पुरोहितः) [इससे पहले उनको] ग्रहण करनेवाले, (रयिषाट्) धन को सहनेवाले, (अमर्त्यः) नाशरहित और (क्राणा) कर्त्ता को (ऋञ्जसानः) अलंकृत करनेवाली (विक्षु) प्रजाओं में (रथः) रमणीय स्वरूप के (न) समान (आयुषु) बाल्य अवस्था में (आनुषक्) अनुकूल रूप से (वार्या) व्यवहार के योग्य वस्तुओं को और (वि) विशेष रूप से (ऋण्वति) कर्मों को साधता है। (सः) वह (एव) ही (देवः) अतिशय रूप से प्रकाशित (जीवात्मा) जीवात्मा (अस्ति) है, (इति) ऐसा (यूयम्) तुम सब (वि) विशेष रूप से (जानीत) जानो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (क्राणा) कर्त्ता। अत्र कृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (रुद्रेभिः) प्राणैः (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः सह(पुरोहितः) पूर्वं ग्रहीता (होता) अत्ता (निषत्तः) स्थितः (रयिषाट्) यो रयिं द्रव्यं सहते (अमर्त्यः) नाशरहितः (रथः) रमणीयस्वरूपः (न) इव (विक्षु) प्रजासु (ऋञ्जसानः) य ऋञ्जति प्रसाध्नोति सः। अत्र ऋञ्जिवृधिमदि० (उणा०२.८७) अनेन सानच् प्रत्ययः। (आयुषु) बाल्यावस्थासु (वि) विशिष्टार्थे (आनुषक्) अनुकूलतया (वार्या) वर्त्तुं योग्यानि वस्तूनि (देवः) देदीप्यमानः (ऋण्वति) कर्माणि साध्नोति ॥३॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यो रुद्रेभिर्वसुभिः सह निषत्तो होता पुरोहितो रयिषाडमर्त्यः क्राणा ऋञ्जसानो विक्षु रथो नेवायुष्वानुषग्वार्य्या व्यृण्वति साध्नोति, स एव देवो जीवात्माऽस्तीति यूयं विजानीत ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ये पृथिव्यां प्राणैश्चेष्टन्ते, मनोऽनुकूलेन रथेनेव शरीरेण सह रमन्ते, श्रेष्ठानि वस्तूनि सुखं चेच्छन्ति, त एव जीवा इति वेद्यम् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पृथ्वीवर प्राणाबरोबर गती (प्रयत्न), मनोनुकूल, रथाप्रमाणे शरीराबरोबर क्रीडा करतात व श्रेष्ठ वस्तू व सुखाची इच्छा धरतात, ते जीव आहेत, हे सर्व लोकांनी जाणावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Immortal agent of nature’s karma, living and acting with pranic energies and the abodes and supports of life, it is the high priest of cosmic yajna both offering and receiving the oblations in the dynamics of existence, and it is the treasure source of wealth. Beautiful and moving like a chariot, mixing with people, it integrates with life and age and, brilliant and generous, it creates and provides the choicest gifts of life.

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yaḥ) =that, (rudrebhiḥ) =by life breath, (vasubhiḥ)=with earth etc., (niṣattaḥ)=having stationed in the earth, (hotā)= and before that accepts them, [haviyoṃ ko]= gives the offerings, (purohitaḥ)= receivers, [isase pahale unako]= before them, (rayiṣāṭ)=those who tolerate wealth, (amartyaḥ)=indestructible and (krāṇā)=to the doer, (ṛñjasānaḥ)=doing embellishment, (vikṣu) =among the people, (rathaḥ) =of delightful form, (na) =like, (āyuṣu)= in childhood, (ānuṣak) =favourably, (vāryā) things worth dealing with and, (vi) =especially, (ṛṇvati) =to karmas, =accomplishes, (saḥ) =that, (eva) =only, (devaḥ)=highly illuminated, (jīvātmā) =soul, (asti) =is, (iti) =such, (yūyam) =all of you, (vi)= especially, (jānīta) =know.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Who, through life breath, having stationed in the earth etc., gives the offerings and before that accepts them, who endures the wealth, who is free from destruction and who adorns the karmas, like a beautiful form among the subjects, in the childhood stage, provides things worthy of favourable treatment and specially performs the tasks effectively. He is the most illuminated soul, you all should know this especially.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Those who make efforts on earth with all their life breath, enjoy the body like a chariot according to the mind, desire the best things and happiness, they are the living beings, everyone should know this.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni (in the form of soul here) is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, You should know that the shining soul is that which is with the Pranas or vital breaths, is with the earth and other worlds, is eater of the fruit of its actions, is the conqueror of wealth on account of its consciousness and knowledge, is immortal, is the doer of various deeds, is the accomplisher of various acts, perceives the objects before hand, is charming among the people, persists in various stages of life, the childhood, youth, old age etc. which shining on account of its attributes suitably acquires acceptable articles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (क्राणा) कर्ता = Doer of goods. (रुद्रेभिः) प्राणैः = With the Pranas or vital breaths. (रथ:) रमणीयस्वरूपः = Charming.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The souls are those which move on earth with the Pranas (vital breaths), which play so to speak with bodies like the chariots and which desire good articles and happiness.

    Translator's Notes

    For the meaning of Rudras as Pranas see the following clear authorities in the Brahmanas. In the Jaimineeyopanishad Brahmana 4.2.6 it is stated. प्राणा वै रुद्राः | प्राणा हीदं सर्वं रोदयन्ति। (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ४.२.६) = In the Shatapatha Brahmana 11.6.3.7 it is stated. कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशः यदास्मान्मर्त्याच्छरीरादुत्क्रामन्ति अथ रोदयन्ति तद्यद् रोदयन्ति तस्माद् रुद्रा इति ( शतपथ ११.६३.७)

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