ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 8
अच्छि॑द्रा सूनो सहसो नो अ॒द्य स्तो॒तृभ्यो॑ मित्रमहः॒ शर्म॑ यच्छ। अग्ने॑ गृ॒णन्त॒मंह॑स उरु॒ष्योर्जो॑ नपात्पू॒र्भिराय॑सीभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छि॑द्रा । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । नः॒ । अ॒द्य । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । अग्ने॑ । गृ॒णन्त॑म् । अंह॑सः । उ॒रु॒ष्य॒ । ऊर्जः॑ । न॒पा॒त् । पूः॒ऽभिः । आय॑सीभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छिद्रा सूनो सहसो नो अद्य स्तोतृभ्यो मित्रमहः शर्म यच्छ। अग्ने गृणन्तमंहस उरुष्योर्जो नपात्पूर्भिरायसीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छिद्रा। सूनो इति। सहसः। नः। अद्य। स्तोतृऽभ्यः। मित्रऽमहः। शर्म। यच्छ। अग्ने। गृणन्तम्। अंहसः। उरुष्य। ऊर्जः। नपात्। पूःऽभिः। आयसीभिः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथात्मविदो योगिनः कीदृशः स्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सहसः सूनो मित्रमहोऽग्ने विद्वँस्त्वमद्यात्मस्वरूपोपदेशेन नोंऽहसः पाह्यच्छिद्रा शर्म यच्छ स्तोतृभ्यो नो विद्याः प्रापय। हे विद्वँस्त्वमात्मानं गृणन्तं स्तुवन्तमायसीभिः पूर्भिरूर्ज उरुष्य दुःखात् पृथग्रक्ष ॥ ८ ॥
पदार्थः
(अच्छिद्रा) अच्छिद्राणि छिद्ररहितानि (सूनो) यः सूयते सुनोति वा तत्सम्बुद्धौ (सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तोतृभ्यः) विद्यया पदार्थगुणस्तावकेभ्यः (मित्रमहः) मित्राणां महः सत्कारस्य कारयितः (शर्म) शर्माणि सुखानि (यच्छ) प्रदेहि (अग्ने) अग्निमिव प्रकाशक विद्वन् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (अंहसः) दुःखात् (उरुष्य) पृथग्रक्ष। अयं कण्वादिगणे नामधातुर्गणनीयः। (ऊर्जः) पराक्रमात् (नपात्) न कदाचिदधः पतति (पूर्भिः) पूर्णाभिः पालनसमर्थाभिः क्रियायुक्ताभिरन्नमयादिभिः (आयसीभिः) अयसः सुवर्णनिर्मितान्याभूषणानीवेश्वरेण रचिताभिः ॥ ८ ॥
भावार्थः
हे आत्मपरमात्मविदो योगिनो यूयमात्मपरमात्मन उपदेशेन सर्वान् नॄन् दुःखाद् दूरे कृत्वा सततं सुखिनः कुरुत ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब आत्मज्ञ योगीजन कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (सहसः) पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से शरीर और विद्या से आत्मा के बलयुक्त जन का (सूनो) पुत्र (मित्रमहः) सबके मित्र और पूजनीय (अग्नेः) अग्निवत् प्रकाशमान विद्वन् ! (नपात्) नीच कक्षा में न गिरनेवाला तू (अद्य) आज अपने आत्मस्वरूप के उपदेश से (नः) हम को (अंहसः) पापाचरण से (पाहि) अलग रक्षा कर (अच्छिद्रा) छेद-भेद रहित (शर्म) सुखों को (यच्छ) प्राप्त कर (स्तोतृभ्यः) विद्वानों से विद्याओं की प्राप्ति हम को करा। हे विद्वन् ! तू आत्मा की (गृणन्तम्) स्तुति के कर्त्ता को (आयसीभिः) सुवर्ण आदि आभूषणों की ईश्वर की रचनारूप (पूर्भिः) रक्षा करने में समर्थ अन्न आदि क्रियाओं के साथ (ऊर्जः) पराक्रम के बल से (उरुष्य) दुःख से पृथक् रख ॥ ८ ॥
भावार्थ
हे आत्मा और परमात्मा को जाननेवाले योगी लोगो ! तुम आत्मा और परमात्मा के उपदेश से सब मनुष्यों को दुःख से दूर करके निरन्तर सुखी किया करो ॥ ८ ॥
विषय
अच्छिद्र शर्म
पदार्थ
१. हे (सहसः सूनो) = सहस् के, बल के पुत्र, शक्ति के पुतले, सर्वशक्तिमन् प्रभो ! हे (मित्रमहः) = [प्रमीतेः त्रायते, महस् - तेज] पाप से बचानेवाली दीप्तिवाले प्रभो ! (नः स्तोतृभ्यः) = हम स्तोताओं के लिए (अद्य) = आज (अच्छिद्रा शर्म) = छिद्र व विच्छेद से रहित, निरन्तर, सुखों को (यच्छ) = प्राप्त कराइए । प्रभु शक्ति व ज्ञान के भण्डार हैं, अतः उनके कार्यों में कौन रुकावट डाल सकता है । हे प्रभो ! आप अपनी कृपा से हमें सतत कल्याण दीजिए । २. हे (अग्ने) हमारी अग्रगतियों के साधक प्रभो ! (गृणन्तम्) = आपका स्तवन करनेवाले मुझको आप (अंहसः) = पाप से (उरुष्य) = बचाइए । वस्तुतः प्रभुस्तवन मनुष्य को पापवृत्ति से ऊपर उठाता है । स्तवन से प्रभु के गुणों के धारण की वृत्ति पैदा होती है । ३. हे (ऊर्जो नपात्) = शक्ति को न गिरने देनेवाले प्रभो ! आप (आयसीभिः पूर्भिः) = लोहवत् दृढ़ शरीरों से हमारा रक्षण कीजिए । हमारे शरीर लोहवत् दृढ़ हों और वे किसी रोग से आक्रान्त न हो सकें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम उस प्रभु का स्तवन करनेवाले हों जो शक्ति के पुञ्ज हैं, पाप से बचानेवाली दीप्ति से युक्त हैं । यह प्रभुस्तवन हमें पाप से बचाए । हमारे शरीर लोहवत् दृढ़ हों और रोगों से आक्रान्त न हों ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( सहसः सूनो ) बल के उत्पन्न करने हारे या विद्यादि से उत्पन्न होने वाले । हे ( मित्रमहः ) सूर्य के समान तेजस्विन् ! और हे स्नेहवान् पुरुषों के आदर करने हारे ! ( अद्य ) आज के समान सदा, ( स्तोतृभ्यः ) सत्य गुणों के वर्णन करने वाले विद्वानों को तू (अच्छिद्रा ) त्रुटि रहित, कभी विच्छिन्न न होने वाले ( शर्म ) सुखों को ( यच्छ ) प्रदान कर । हे ( अग्ने ) अग्नि के समान विद्या के प्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करने हारे विद्वन् ! आत्मन् ! तू (नपात्) कभी भी शिष्ट मर्यादा से न गिरता हुआ, स्वयं दृढ़ रहकर (गृणन्तम्) स्तुति करने वाले की (आयसीभिः पूर्भिः) राजा प्रजाजन की जिस प्रकार लोह की बनी या शास्त्रों से सजी प्रकोटों से रक्षा करता है उसी प्रकार तू ज्ञान साधनों से बनी ( पूर्भिः ) पालन करने वाली साधनाओं से ( अंहसः ) पाप और पाप से उत्पन्न हुए दुःख से ( उरुष्य ) रक्षा कर । राजा भी बल पराक्रम के कारण अभिषेक योग्य होने से ‘सहसः सूनु’ है । मित्र राजाओं के आदर करने और सूर्य के समान तेजस्वी होने से ‘मित्रमहः’ है । वह स्तुतिकर्त्ता विद्वानों को त्रुटि रहित सुख दे । पराक्रम से कभी पछाड़ न खाने वाला होने से ‘ऊर्जः नपात्’ है । (आयसीभिः पूर्भिः) वह लोह के शस्त्रों से सुसज्जित पुरियों या पालनकारी सेनाओं से रक्षा के प्रार्थी प्रजाजन की रक्षा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब आत्मज्ञ योगीजन कैसे हों, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सहसः सूनो मित्रमहः अग्ने विद्वन् त्वं अद्य आत्मस्वरूपोपदेशेन नः अंहसः पाहि अच्छिद्रा शर्म यच्छ स्तोतृभ्यः नः विद्याः प्रापय। हे विद्वन् त्वम् आमात्मानं गृणन्तं स्तुवन्तम् आयसीभिः पूर्भिः ऊर्ज {नपात्} उरुष्य दुःखात् पृथक् रक्ष ॥८॥
पदार्थ
हे (सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य=विद्या, विनय और बल वाले का, (सूनो) यः सूयते सुनोति वा तत्सम्बुद्धौ=पुत्र, (मित्रमहः) मित्राणां महः सत्कारस्य कारयितः=मित्रों का बहुत सत्कार करनेवाला, (अग्ने) अग्निमिव प्रकाशक विद्वन्=अग्नि के समान प्रकाशक विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज, (आत्मस्वरूपोपदेशेन)= आत्मा के स्वरूप के उपदेश से, (नः)=हमारी, (अंहसः) दुःखात्=दुःखों से, (पाहि)=रक्षा कीजिये, (अच्छिद्रा) अच्छिद्राणि छिद्ररहितानि=पूर्ण, (शर्म) शर्माणि सुखानि=सुख, (यच्छ) प्रदेहि=प्रदान कीजिये, (स्तोतृभ्यः) विद्यया पदार्थगुणस्तावकेभ्यः= तुम्हारे लिये विद्या से पदार्थ के गुणों की (नः) अस्मभ्यम्=हमें, (विद्याः)= विद्या, (प्रापय)=प्राप्त कराइये। हे (विद्वन्)= विद्वान्! (त्वम्) =तुम, (आमात्मानम्)=अपने को, (गृणन्तम्) स्तुवन्तम्=स्तुति करनेवाले को, (आयसीभिः) अयसः सुवर्णनिर्मितान्याभूषणानीवेश्वरेण रचिताभिः= लोहा और सोने के समान ईश्वर निर्मित आभूषण, (पूर्भिः) पूर्णाभिः पालनसमर्थाभिः क्रियायुक्ताभिरन्नमयादिभिः=पूर्ण, पालन करने में समर्थों और क्रिया युक्त अन्नमय आदि के द्वारा, (ऊर्जः) पराक्रमात्= पराक्रम से, {नपात्} न कदाचिदधः पतति= कभी भी नीचे नहीं गिरता है, (दुःखात्)=दुःख से, (पृथक्)= पृथक् अर्थात् अलग, (रक्ष)=रक्षा करो ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे आत्मा और परमात्मा को जाननेवाले योगी लोगो ! तुम आत्मा और परमात्मा के उपदेश से सब मनुष्यों को दुःख से दूर करके, निरन्तर सुखी किया करो ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सहसः) विद्यावान्, विनयवान् और बलवान् के (सूनो) पुत्र, (मित्रमहः) मित्रों का बहुत सत्कार करनेवाले और (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशक विद्वान् ! (त्वम्) तुम (अद्य) आज ही के दिन (आत्मस्वरूपोपदेशेन) आत्मा के स्वरूप के उपदेश से, (नः) हमारी (अंहसः) दुःखों से (पाहि) रक्षा कीजिये और (अच्छिद्रा) पूर्ण (शर्म) सुख (यच्छ) प्रदान कीजिये। (स्तोतृभ्यः) तुम्हारी विद्या से पदार्थ के गुणों के लिये, (नः) हमें (विद्याः) विद्या (प्रापय) प्राप्त कराइये। हे (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (आमात्मानम्) अपनी (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए, (आयसीभिः) लोहे और सोने के समान ईश्वर निर्मित आभूषण, (पूर्भिः) पूर्ण, पालन करने में समर्थ और क्रिया युक्त अन्नमय आदि के द्वारा (ऊर्जः) पराक्रम से {नपात्} कभी भी नीचे नहीं गिरते हो। (दुःखात्) दुःख से (पृथक्) पृथक् करते हुए (रक्ष) रक्षा करो ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अच्छिद्रा) अच्छिद्राणि छिद्ररहितानि (सूनो) यः सूयते सुनोति वा तत्सम्बुद्धौ (सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तोतृभ्यः) विद्यया पदार्थगुणस्तावकेभ्यः (मित्रमहः) मित्राणां महः सत्कारस्य कारयितः (शर्म) शर्माणि सुखानि (यच्छ) प्रदेहि (अग्ने) अग्निमिव प्रकाशक विद्वन् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (अंहसः) दुःखात् (उरुष्य) पृथग्रक्ष। अयं कण्वादिगणे नामधातुर्गणनीयः। (ऊर्जः) पराक्रमात् (नपात्) न कदाचिदधः पतति (पूर्भिः) पूर्णाभिः पालनसमर्थाभिः क्रियायुक्ताभिरन्नमयादिभिः (आयसीभिः) अयसः सुवर्णनिर्मितान्याभूषणानीवेश्वरेण रचिताभिः ॥८॥ विषयः- अथात्मविदो योगिनः कीदृशः स्युरित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सहसः सूनो मित्रमहोऽग्ने विद्वँस्त्वमद्यात्मस्वरूपोपदेशेन नोंऽहसः पाह्यच्छिद्रा शर्म यच्छ स्तोतृभ्यो नो विद्याः प्रापय। हे विद्वँस्त्वमात्मानं गृणन्तं स्तुवन्तमायसीभिः पूर्भिरूर्ज उरुष्य दुःखात् पृथग्रक्ष ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे आत्मपरमात्मविदो योगिनो यूयमात्मपरमात्मन उपदेशेन सर्वान् नॄन् दुःखाद् दूरे कृत्वा सततं सुखिनः कुरुत ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे आत्मा व परमात्मा यांना जाणणाऱ्या योग्यांनो ! तुम्ही आत्मा व परमात्म्याच्या उपदेशाने सर्व माणसांना दुःखांपासून दूर करून निरंतर सुखी करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, child of omnipotence, greatest friend most adorable, give us today, your devotees, perfect peace and comfort of a happy home, energy and power of the world. Save the devotee and admirer from sin and perfect him with the strength of steel and beauties of gold.
Subject of the mantra
Now, what kind of an enlightened yogi should be, has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sahasaḥ)=of the learned, humble and strong, (sūno) =son, (mitramahaḥ) =very respectful of friends and, (agne) scholar like fire, (tvam) =you, (adya) =today itself, (ātmasvarūpopadeśena)=by the teachings of the form of the soul, (aṃhasaḥ) =from sorrow, (pāhi) =protect and, (acchidrā) =full, (śarma) =delights, (yaccha) =provide, (stotṛbhyaḥ) tumhārī vidyā se padārtha ke guṇoṃ ke liye, (naḥ) hameṃ (vidyāḥ) vidyā (prāpaya) prāpta karāiye| He=O! (vidvan) =scholar, (tvam) =you, (āmātmānam) =own, (gṛṇantam) =praising, (āyasībhiḥ)=God made ornaments like iron and gold, (pūrbhiḥ) Complete, capable of nourishing and having action through energy composed of food etc. (ūrjaḥ) =bravely, {napāt}=never allow to fall down, (duḥkhāt) =from sorrow, (pṛthak) =separating, (rakṣa) =protect.
English Translation (K.K.V.)
O son of the learned, humble and strong, the one who respects his friends a lot and the scholar who illuminates like fire! Today itself, by the teachings of the form of the soul, protect us from sorrows and grant us complete happiness. Through your knowledge, give us knowledge about the properties of matter. O scholar! The one, who praises you, the ornament made by God like iron and gold, perfect, capable of nourishing and full of action, and never falls down due to your bravery. Protect by separating from pain.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O yogi people who know the soul and God! You, with the advice of the soul and God, remove all human beings from sorrow and make them happy continuously.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Yogis, knowers of Atma (God and Soul) is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O son of a person possessing knowledge, humility and strength, O respect or of your friends, shining like fire, protect us from sins to-day (for ever) by giving us the real knowledge of the soul and God. Grant to thy admirers un-interrupted felicity or happiness and knowledge of various sciences. Preserve him from all misery who praises you by strong means like the iron cities or invincible forts. Never fall down or depart from power.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य = Of a person endowed with knowledge, humility and strength. (उरुष्य) पृथक् रक्ष = Keep away from all misery.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O knowers of the soul and God, make all people happy by casting away the misery of all through the sermons on the real nature of the soul and God.
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