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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि वात॑जूतो अत॒सेषु॑ तिष्ठते॒ वृथा॑ जु॒हूभिः॒ सृण्या॑ तुवि॒ष्वणिः॑। तृ॒षु यद॑ग्ने व॒निनो॑ वृषा॒यसे॑ कृ॒ष्णं त॒ एम॒ रुश॑दूर्मे अजर ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । वात॑ऽजूतः । अ॒त॒सेषु॑ । ति॒ष्ठ॒ते॒ । वृथा॑ । जु॒हूभिः॑ । सृण्या॑ । तु॒वि॒ऽस्वणिः॑ । तृ॒षु । यत् । अ॒ग्ने॒ । व॒निनः॑ । वृ॒ष॒ऽयसे॑ । कृ॒ष्णम् । ते॒ । एम॑ । रुश॑त्ऽऊर्मे । अ॒ज॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः। तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णं त एम रुशदूर्मे अजर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। वातऽजूतः। अतसेषु। तिष्ठते। वृथा। जुहूभिः। सृण्या। तुविऽस्वणिः। तृषु। यत्। अग्ने। वनिनः। वृषऽयसे। कृष्णम्। ते। एम। रुशत्ऽऊर्मे। अजर ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे रुशदूर्मेऽजराग्ने जीव ! यो भवानतसेषु वितिष्ठते यद्यो वातजूतो जुहूभिः सृण्या च सह वनिनः प्राप्य त्वं वृथाऽभिमानं परित्यज्य स्वात्मानं जानीहि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (वि) विशेषार्थे (वातजूतः) वातेन वायुना जूतः प्राप्तवेगः (अतसेषु) व्याप्तव्येषु तृणकाष्ठभूमिजलादिषु (तिष्ठते) वर्त्तते (वृथा) व्यर्थे (जुहूभिः) जुह्वति याभिः क्रियाभिः (सृण्या) धारणेन हननेन वा। द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। (निरु०१३.५) (तुविष्वणिः) यस्तुविषो बहून् पदार्थान् वनति सम्भजति सः (तृषु) शीघ्रम् (यत्) यः (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान (वनिनः) प्रशस्ता रश्मयो वनानि वा येषां तेषु वा तान् (वृषायसे) वृष इवाचरसि (कृष्णम्) कर्षति विलिखति येन ज्योतिः समूहेन तम् (ते) तव (एम) विज्ञाय प्राप्नुयाम (रुशदूर्मे) रुशन्त्य ऊर्मयो ज्वाला यस्य तत्सम्बुद्धौ (अजर) स्वयं जरादिदोषरहित ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वरोऽभिवदति मया यदुपदिष्टं तदेव युष्मदात्मस्वरूपमस्तीति वेदितव्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (रुशदूर्मे) अपने स्वभाव से गतिशील (अजर) वृद्धावस्था से रहित (अग्ने) बिजुली के तुल्य वर्त्तमान जीव ! जो तू (अतसेषु) आकाशादि व्यापक पदार्थों में (वितिष्ठते) ठहरता (यत्) जो (वातजूतः) वायु का प्रेरक और वायु के समान वेगवाला (तुविष्वणिः) बहुत पदार्थों का सेवक (जुहूभिः) ग्रहण करने के साधनरूप क्रियाओं और (सृण्या) धारण तथा हननरूप कर्म्म से सह वर्त्तमान (वनिनः) विद्युत् युक्त प्राणों को प्राप्त होके तू (तृषु) शीघ्र (वृषायसे) बलवान् होता है, जिस (ते) तेरे (कृष्णम्) कर्षणरूप गुण को हम लोग (एम) प्राप्त होते हैं, सो तू (वृथा) अभिमान को छोड़ के अपने स्वरूप को जान ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है कि जैसा मैंने जीव के स्वभाव का उपदेश किया है, वही तुम्हारा स्वरूप है, यह निश्चित जानो ॥ ४ ॥

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    विषय

    प्रभु का मार्ग आकर्षक है

    पदार्थ

    १. यह 'नोधा गौतम' (अतसेषु) = वायुओं में, खुली हवाओं में (वितिष्ठते) = विशेषरूप से स्थित होता है । इसका जीवन प्रायः खुली हवा में ही बीतता है । (वातजूतः) = यह वायु से प्रेरित होता है, वायु से प्रेरणा प्राप्त करता है और वायु की भाँति स्वाभाविकरूप से क्रियाशील होता है । २. (वृथा) = अनायास, इच्छापूर्वक (जुहूभिः) = त्याग की वृत्तियों से और (सृण्या) = गतिशीलता से, अर्थात् त्याग और गति के साथ (तुविष्वणिः) = यह महान् स्तवनवाला होता है, उस प्रभु के नामों का खुब ही उच्चारण करता है । ३. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यत्) = चूँकि आप (वनिनः) = उपासकों को (तृषु) = शीघ्र ही (वृषायसे) = शक्तिशाली कर देते हैं । आपकी उपासना से भक्त शक्तिशाली बनता है, अतः (रुशदूर्मे) = दीप्तज्ञान की ज्वालावाले (अजर) = कभी जीर्ण न होनेवाले प्रभो ! (ते एम) = आपका मार्ग (कृष्णम्) = आकर्षक है, इसलिए ज्ञानी का आपके मार्ग की ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक ही है । ज्ञानी पुरुष सदा प्रभु की ओर झुकते हैं । वे यह समझते हैं कि यह मार्ग हमें शक्तिशाली बनानेवाला है और यदि हम प्रकृति की ओर झुक गये तो क्षीणशक्ति ही होंगे । प्रकृति के भोग सब इन्द्रियों के तेज को जीर्ण ही तो करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम जीवन तो यही है कि खुली हवा में रहा जाए, त्याग व क्रियाशीलता के साथ प्रभु - कीर्तन हो । प्रभु अपने भक्तों को शक्तिशाली बनाते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (वातजूतः) वायु के वेग से तीव्र होकर अग्नि जिस प्रकार (अतसेषु) तृणों और काष्ठों में (वि तिष्ठते) विविध रूप से फैलता है उसी प्रकार यह आत्मा भी ( वातजूतः ) प्राणों द्वारा वेगवान्, गतिमान् ( अतसेषु ) पृथिवी, वायु, जल आदि तत्वों में भी (वि तिष्ठते) विविध देहों को धार कर विविध रूपों में स्थित है। और जिस प्रकार ( जुहूभिः) ज्वालाओं द्वारा और ( सृण्या ) अपने वेग से गमन करने की शक्ति से (तुवि-स्वनिः) अग्नि चटचटा आदि बहुत प्रकार के शब्द करता है। अथवा अग्नि जिस प्रकार (जुहूभिः) अपने भीतर अग्नि तत्वों को रखने वाले मैनसिल, पोटास आदि पदार्थों और (सृण्या ) फूट कर वेग से निकलने वाली बारूद आदि की शक्ति से ( तुवि-स्वनिः ) बड़ा भारी धड़ाके का शब्द करता है उसी प्रकार वह ( जुहूभिः ) अपने भीतर आत्मा को धारण करने वाले प्राणों और ( सृण्या ) स्वयं सरण करने वाली वाणी द्वारा ( वृथा ) अनायास ही ( तुवि-स्वनिः ) बहुत से स्वन, अर्थात् वर्ण ध्वनियों को उत्पन्न करता है। आत्मा प्राणों और स्वयं देह से देहान्तर में जाने वाली क्रिया या ( सृण्या ) भरण पोषण करने वाली अन्न प्राप्ति से ( तुविस-वनिः ) बहुतसे सुखों को भोगने में समर्थ होता है । हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप जीवात्मन् ! हे ( अजर ) जन्म मरण रहित ! हे (रुशदूर्मे) दीप्ति वाली ज्वाला से युक्त ! ( यत् ) जिस प्रकार (वनिनः) वन में स्थित वृक्षों के प्रति तू (वृषायसे) महा वृषभ के समान उनको चरता या खा लेना चाहता है उसी प्रकार तू आत्मा भी ( वनिनः ) नाना सुखप्रद पदार्थों की ( वृषायसे ) अत्यन्त अधिक कामना करता है । (एम कृष्णं ) जिस प्रकार आग्नि का मार्ग कृष्ण है अर्थात् जिस पर अग्नि चली जाय वह काला कोयला हो जाता है उसी प्रकार हे जीवात्मन् ! ( ते एम ) तेरा प्राप्त करने योग्य परमपद भी ( कृष्णम् ) अत्यन्त आकर्षण करने वाला, हृदयग्राही है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह जीव कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे रुशदूर्मे अजर अग्ने जीव ! यः भवान् अतसेषु वि तिष्ठते यत् यः वातजूतः जुहूभिः सृण्या{तुविष्वणिः}{तृषु} च सह वनिनः{वृषायसे} {कृष्णम्}{ते{एम} प्राप्य त्वं वृथा अभिमानं परित्यज्य स्व आत्मानं जानीहि ॥४॥

    पदार्थ

    हे (रुशदूर्मे) रुशन्त्य ऊर्मयो ज्वाला यस्य तत्सम्बुद्धौ=आहत करनेवाली प्रकाश की ज्वाला, (अजर) स्वयं जरादिदोषरहित= स्वयं बुढ़ापे आदि के दोष से रहित, (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान=विद्युत् के समान वर्त्तमान, (जीव)=जीव ! (यः)=जो, (भवान्)=आप, (अतसेषु) व्याप्तव्येषु तृणकाष्ठभूमिजलादिषु=तिनके, लकड़ी, भूमि और जल आदि में, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (तिष्ठते) वर्त्तते=निवास करते हैं, (यत्) यः=जो, (वातजूतः) वातेन वायुना जूतः प्राप्तवेगः=वायु के द्वारा प्राप्त वेग, (जुहूभिः) जुह्वति याभिः क्रियाभिः=जिस क्रिया से आहुति देते हैं, (सृण्या) धारणेन हननेन वा=धारण करने से या मारने से, {तुविष्वणिः} यस्तुविषो बहून् पदार्थान् वनति सम्भजति सः=बहुत पदार्थों को प्रदान करता है, {तृषु} शीघ्रम्=शीघ्र, (च)=और, (सह) =साथ में, (वनिनः) प्रशस्ता रश्मयो वनानि वा येषां तेषु वा तान्= प्रशस्त लकड़ियां या किरणों वाले, {वृषायसे} वृष इवाचरसि= वृषभ के समान व्यवहार करते हो, {कृष्णम्} कर्षति विलिखति येन ज्योतिः समूहेन तम्=जिस किरणों के समूह से रेखायें बनाता है, {ते} तव=तुम्हारे, {एम} विज्ञाय प्राप्नुयाम प्राप्य= बुद्धि द्वारा जानने योग्य से, (त्वम्)=तुम, (वृथा) व्यर्थे= व्यर्थ में, (अभिमानम्)= अभिमान को, (परित्यज्य)=अच्छी तरह से त्याग कर, (स्व)= अपने, (आत्मानम्)=आपको, (जानीहि)=जानो॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है कि जैसा मैंने जीव के स्वभाव का उपदेश किया है, वही तुम्हारा अपना स्वरूप है, यह निश्चित जानो॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (रुशदूर्मे) आहत करनेवाली प्रकाश की ज्वाला, (अजर) स्वयं बुढ़ापे आदि के दोष से रहित और (अग्ने) विद्युत् के समान वर्त्तमान (जीव) जीव ! (यः) जो (भवान्) आप (अतसेषु) तिनके, लकड़ी, भूमि और जल आदि में (वि) विशेष रूप से (तिष्ठते) निवास करते हो। (यत्) जो (वातजूतः) वायु के द्वारा प्राप्त वेग, (जुहूभिः) जिस आहुति की क्रिया से, (सृण्या) धारण करने से या मारने से, {तुविष्वणिः} बहुत पदार्थों को प्रदान करता है।(च) और {तृषु} शीघ्र ही (सह) साथ में (वनिनः) प्रशस्त लकड़ियां या किरणों वाले तुम, {वृषायसे} वृषभ के समान व्यवहार करते हो। {कृष्णम्} जिस किरणों के समूह से रेखायें बनाते है, {ते} तुम्हारी {एम} बुद्धि द्वारा जानने योग्य से (त्वम्) तुम (वृथा) व्यर्थ में (अभिमानम्) अभिमान को (परित्यज्य) अच्छी तरह से त्याग कर (स्व) अपने (आत्मानम्) आपको (जानीहि) जानो॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (वातजूतः) वातेन वायुना जूतः प्राप्तवेगः (अतसेषु) व्याप्तव्येषु तृणकाष्ठभूमिजलादिषु (तिष्ठते) वर्त्तते (वृथा) व्यर्थे (जुहूभिः) जुह्वति याभिः क्रियाभिः (सृण्या) धारणेन हननेन वा। द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। (निरु०१३.५) (तुविष्वणिः) यस्तुविषो बहून् पदार्थान् वनति सम्भजति सः (तृषु) शीघ्रम् (यत्) यः (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान (वनिनः) प्रशस्ता रश्मयो वनानि वा येषां तेषु वा तान् (वृषायसे) वृष इवाचरसि (कृष्णम्) कर्षति विलिखति येन ज्योतिः समूहेन तम् (ते) तव (एम) विज्ञाय प्राप्नुयाम (रुशदूर्मे) रुशन्त्य ऊर्मयो ज्वाला यस्य तत्सम्बुद्धौ (अजर) स्वयं जरादिदोषरहित ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे रुशदूर्मेऽजराग्ने जीव ! यो भवानतसेषु वितिष्ठते यद्यो वातजूतो जुहूभिः सृण्या च सह वनिनः प्राप्य त्वं वृथाऽभिमानं परित्यज्य स्वात्मानं जानीहि ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वरोऽभिवदति मया यदुपदिष्टं तदेव युष्मदात्मस्वरूपमस्तीति वेदितव्यम् ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांना ईश्वर उपदेश करतो की जसे मी जीवाच्या स्वभावाबाबत उपदेश केलेला आहे. तेच तुझे स्वरूप आहे हे निश्चित जाण. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Impelled by Vayu, Agni abides in its natural abodes, in wind and air and in its own flames, moving on loud and bold by its yajnic actions. Agni, unaging and ever young, refulgent with your own light, since you instantly shower the supplicants with favours, may we, we pray, share your love and protection.

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    Subject of the mantra

    Then how is that living being, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (ruśadūrme)=a blaze of hurtful light, (ajara) =himself free from the defects of old age etc. and, (agne) =present like electricity, (jīva) =living being, (yaḥ) =that, (bhavān) =you, (ataseṣu)=In straw, wood, land and water etc., (vi) =especially, (tiṣṭhate) =live, (yat) =that, (vātajūtaḥ)=velocity achieved by air, (juhūbhiḥ)=by the act of offering, (sṛṇyā)=by holding or by killing, {tuviṣvaṇiḥ}=provides many substances, (ca) aura {tṛṣu} =soon, (saha) =with, (vaninaḥ)=you with broad woods or rays,{vṛṣāyase}=you behave like a Taurus, {kṛṣṇam} he group of rays from which lines are made, {te} =your, {ema} =capable of being known by the intellect, (tvam) =you, (vṛthā) =in vain, (abhimānam) =pride, (parityajya) give up well, (sva) =own, (ātmānam) =to you, (jānīhi) =know.

    English Translation (K.K.V.)

    O flame of hurtful light, free from the defects of old age etc. and living being like electricity! You reside exclusively in straw, wood, land and water etc. The velocity obtained through air, the act of offering, wearing or killing, provides many substances. And soon you, with broad woods or rays, behave like Taurus. The group of rays from which lines are made, which is capable of being known by your intellect, give up your vain pride and know yourself thoroughly

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches to all human beings that as He have preached about the nature of the living being, that is your own nature, know this for sure.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the soul is further taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O soul free from old age etc. by thy nature, shining on account of thy attributes, thou dwellest in the grass, wood, earth and waters etc. (according to thy actions) moved by Prana with thy various movements which uphold desirable objects and annihilate undesirable articles; thou enjoyest the fruits of the trees, taking many nourishing substances like a mighty bull. Thou art powerful like electricity. Let us know thy charming nature. Give thou up all vanity and know thy real nature.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अतसेषु ) व्याप्तव्येषु तृणकाष्ठभूमिजलादिषु = In the grass, wood earth and water etc. (सृण्या) धारणेन हननेन वा द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च (निरु० १३.५ ) = By upholding desirable virtues and things and by annihilating demerits and undesirable articles. (जुहूभिः) जुह्वति याभिः क्रियाभिः = By the means of various processes. ( रुशदूर्मे) रुशन्त्य: ऊर्मय: ज्वाला यस्य तत् सम्बुद्धौ = Possessing shining rays.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God tells all men. What I have taught through the Vedas, is the real nature of your soul. You should know it well.

    Translator's Notes

    रुशि-भासार्थः धातुकल्पदुमे दीप्त्यर्थः अतति-गतिकर्मा ( निघ० २.१४ ) गतेस्त्रयोऽर्था-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणं कृतं महर्षिणा व्याप्तिरूपेण हुदानादनयो: आदाने च अत्र आदानार्थग्रहणम्

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