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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द॒धुष्ट्वा॒ भृग॑वो॒ मानु॑षे॒ष्वा र॒यिं न चारुं॑ सु॒हवं॒ जने॑भ्यः। होता॑रमग्ने॒ अति॑थिं॒ वरे॑ण्यं मि॒त्रं न शेवं॑ दि॒व्याय॒ जन्म॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धुः । त्वा॒ । भृग॑वः । मानु॑षे॒षु । आ । र॒यिम् । न । चारु॑म् । सु॒ऽहव॑म् । जने॑भ्यः । होता॑रम् । अ॒ग्ने॒ । अति॑थिम् । वरे॑ण्यम् । मि॒त्रम् । न । शेव॑म् । दि॒व्याय॑ । जन्म॑ने ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधुष्ट्वा भृगवो मानुषेष्वा रयिं न चारुं सुहवं जनेभ्यः। होतारमग्ने अतिथिं वरेण्यं मित्रं न शेवं दिव्याय जन्मने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधुः। त्वा। भृगवः। मानुषेषु। आ। रयिम्। न। चारुम्। सुऽहवम्। जनेभ्यः। होतारम्। अग्ने। अतिथिम्। वरेण्यम्। मित्रम्। न। शेवम्। दिव्याय। जन्मने ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने स्वप्रकाशस्वरूप ! त्वं यं त्वा भृगवो मानुषेषु जनेभ्यश्चारुं सुहवं रयिं न धनमिव होतारमतिथिं वरेण्यं शेवं लब्ध्वा दिव्याय जन्मने मित्रं न सखायमिव त्वाऽऽदधुस्तमेव जीवं विजानीहि ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (दधुः) धरन्तु (त्वा) त्वाम् (भृगवः) परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः (मानुषेषु) मानवेषु (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम् (न) इव (चारुम्) सुन्दरम् (सुहवम्) सुखेन होतुं योग्यम् (जनेभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (होतारम्) दातारम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (अतिथिम्) न विद्यते नियता तिथिर्यस्य तम् (वरेण्यम्) वरीतुमर्हं श्रेष्ठम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (शेवम्) सुखस्वरूपम्। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (दिव्याय) दिव्यभोगान्विताय (जन्मने) प्रादुर्भावाय ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    यथा मनुष्या विद्याश्रियौ मित्रांश्च प्राप्य सुखमेधन्ते, तथैव जीवस्वरूपस्य वेदितारोऽत्यन्तानि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश स्वप्रकाशस्वरूप जीव ! तू जिस (त्वा) तुझको (भृगवः) परिपक्व ज्ञानवाले विद्वान् (मानुषेषु) मनुष्यों में (जनेभ्यः) विद्वानों से विद्या को प्राप्त होके (चारुम्) सुन्दरस्वरूप (सुहवम्) सुखों के देनेहारे (रयिम्) धन के (न) समान (होतारम्) दानशील (अतिथिम्) अनियत स्थिति अर्थात् अतिथि के सदृश देह-देहान्तर और स्थान-स्थानान्तर में जानेहारा (वरेण्यम्) ग्रहण करने योग्य (शेवम्) सुखरूप जीव को प्राप्त होके (दिव्याय) शुद्ध (जन्मने) जन्म के लिये (मित्रं न) मित्र के सदृश तुझ को (आदधुः) सब प्रकार धारण करते हैं, उसी को जीव जान ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य विद्या वा लक्ष्मी तथा मित्रों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही जीव के स्वरूप को जाननेवाले विद्वान् लोग अत्यन्त सुखों को प्राप्त होते हैं ॥

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    विषय

    भृगु द्वारा प्रभु का धारण

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वा) = आपको (मानुषेषु) = मनुष्यों में (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपाक करनेवाले लोग ही (आदधुः) = सर्वथा धारण करते हैं । वस्तुतः ज्ञान से मनुष्य प्रभु को पाता है और इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भृगु - तपस्वी बनना आवश्यक है । २. आप उपासकों के लिए (चारुं रयिं न) = सुन्दर धन के समान हैं । प्रभु से बढ़कर सुन्दर धन क्या हो सकता है ! वे प्रभु तो लक्ष्मीपति हैं । लक्ष्मीपति के प्राप्त होने पर लक्ष्मी तो प्राप्त हो ही जाती है । इन भक्तों का योग - क्षेम तो स्वयं प्रभु चलाते हैं । ३. ये प्रभु (जनेभ्यः) = लोगों के लिए (सुहवम्) = सुगमता से पुकारने योग्य हैं । हम पुकारते हैं तो प्रभुरक्षण के लिए विद्यमान होते हैं । पुत्र के लिए पिता के समान हमारे लिए वे प्रभु 'सूपायन' है - हम उनके समीप सुगमता से पहुँच सकते हैं । ४. (होतारम्) = आप सब - कुछ देनेवाले हैं । सृष्टि - यज्ञ के आप होता हैं । इस सृष्टि को बनाकर उन्नति के लिए आवश्यक सब पदार्थों को वे प्राप्त कराते हैं । ५. (अतिथिम्) = हमारे हित के लिए सदा हमें प्राप्त होनेवाले हैं [अत सातत्यगमने] । ६. (वरेण्यम्) = वे प्रभु ही वरने योग्य हैं । प्रकृति को न चुनकर हमें प्रभु को ही चुनना चाहिए । प्रकृति हमें पाँव - तले कुचल देगी, प्रभु के हम कन्धों पर स्थित होंगे । ७. (मित्रं न शेवम्) = वे प्रभु एक मित्र के समान कल्याण करनेवाले हैं । ये प्रभु ही हमारे (दिव्याय जन्मने) = दिव्य जन्म के लिए होते हैं । प्रभुकृपा से ही हम जन्म - मरण के चक्र से ऊपर उठते हैं और इस चक्र से ऊपर उठकर हम मुक्त हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम भृगु बनकर प्रभु का ध्यान करें । वे प्रभु ही हमारे सच्चे धन हैं और मित्र के समान कल्याण करनेवाले हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( १ ) जीवपक्ष में—हे (अग्ने) काष्ठों में देहों में अव्यक्त रूप से रहने हारे ! जीवात्मन् (मानुषेषु) मननशील ज्ञानी पुरुषों में से भी (भृगवः) परिपक्व विज्ञान वाले, तपस्वी, आत्माभ्यासी जन ( जनेभ्यः ) अपने से अधिक ज्ञान वाले गुरुजनों से शिक्षा प्राप्त कर के ( चारुम् ) उत्तम, ( सुहवं ) सुखप्रद, ( रयिम् न ) ऐश्वर्य के ख़ज़ाने के समान ( चारुम् ) विषयों के भोक्ता, (सुहवम्) उत्तम सुख के देने हारा और सुखपूर्वक ज्ञान और स्तुति करने योग्य, ( रयिम् ) वीर्य स्वरूप जान कर (त्वा दधुः) तुझे धारण करते हैं। और ( होतारम् ) सब को सुख और विविध ऐश्वर्य के देने वाले, (अतिथिम्) अतिथि के समान देह रूप गृह में अकस्मात् आने और चले जाने वाले, अथवा देह से देहान्तर में जाने वाला वा अतिथि के समान पूजा और आदर के योग्य, (वरेण्यम्) सबसे अधिक वरण करने योग्य, अत्यन्त प्रिय और (मित्रं न शेवम्) मित्र के समान सुखकारी, तुझको ( दिव्याय ) दिव्य, तेजोमय, सात्विक जन्म से लेने के लिये, अथवा (दिव्याय = दिवि भवाय ) ज्ञान प्रकाश युक्त जन्म ग्रहण करने के लिये ( त्वा दधुः ) धारण करते हैं । वीर सेनापति पक्ष में—( जनेभ्यः ) जनपदों के हितार्थ, (भृगवः) शत्रुओं को भून देने वाले प्रतापी वीर जन भी उत्तम सुखदाता, स्तुति योग्य तुझको ( रयिं न ) खज़ाने के समान रक्षा करते हैं। वेतन, अन्न, पदाधिकार के दाता, (अतिथिम्) पूज्य सर्व श्रेष्ठ मित्र के समान तेरे दिव्य रूप से प्रादुर्भाव राज्यारोहणादि के लिये तुझे स्थापित करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह जीव का स्वरूप कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने स्वप्रकाशस्वरूप ! त्वं यं त्वा भृगवः मानुषेषु जनेभ्यः चारुं सुहवं रयिं न धनम् इव होतारम् अतिथिं वरेण्यं शेवं लब्ध्वा दिव्याय जन्मने मित्रं न सखायम् इव त्वा आ दधुः तम् एव जीवं विजानीहि॥६॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान=पवित्र कर्त्ता के समान, (स्वप्रकाशस्वरूप)= स्वप्रकाशस्वरूप ! (त्वम्)=तुम, (यम्)=जिस, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (भृगवः) परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः= परिपक्व विशेष ज्ञानवाले विद्वान्, (मानुषेषु) मानवेषु=मनुष्यों में, (जनेभ्यः) मनुष्यादिभ्यः= मनुष्य आदि, (चारुम्) सुन्दरम्=सुन्दर, (सुहवम्) सुखेन होतुं योग्यम् =सुख से होता के योग्य, (रयिम्) धनम्=धन के, (न) इव=समान, (होतारम्) दातारम्=दाता, (अतिथिम्) न विद्यते नियता तिथिर्यस्य तम्=विना तिथि के आनेवाले विद्वान् को, (वरेण्यम्) वरीतुमर्हं श्रेष्ठम्=चुनने के लिये श्रेष्ठ को, (शेवम्) सुखस्वरूपम्=सुखस्वरूप को, (लब्ध्वा)=प्राप्त करके, (दिव्याय) दिव्यभोगान्विताय=दिव्य भोग से सम्बन्धित की, (जन्मने) प्रादुर्भावाय=उत्पत्ति के लिये, (मित्रम्) सखायम् =मित्र के, (न) इव =समान, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (दधुः) धरन्तु=धारण करें, (तम्)=उसको, (एव) =ही, (जीवम्) =जीव, (विजानीहि)=जानो॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे मनुष्य विद्या और लक्ष्मी तथा मित्रों को प्राप्त करके सुखों को प्राप्त करते हैं, वैसे ही जीव के स्वरूप को जाननेवाले विद्वान् लोग अत्यन्त सुखों को प्राप्त करते हैं ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) पवित्र कर्त्ता के समान (स्वप्रकाशस्वरूप) स्वप्रकाशस्वरूप ! (त्वम्) तुम, (यम्) जिस (त्वा) तुमको (भृगवः) परिपक्व विशेष ज्ञानवाले विद्वान् (मानुषेषु) मनुष्यों में, (जनेभ्यः) मनुष्य [विशेष आदि], (चारुम्) सुन्दर, (सुहवम्) सुख से होता होने के योग्य (रयिम्) धन के (न) समान, (होतारम्) दाता, (अतिथिम्) विना तिथि के आनेवाले विद्वान् को, (वरेण्यम्) चुनने के लिये श्रेष्ठ को और (शेवम्) सुखस्वरूप को (लब्ध्वा) प्राप्त करके (दिव्याय) दिव्य भोग से सम्बन्धित वस्तु की, (जन्मने) उत्पत्ति के लिये (मित्रम्) मित्र के (न) समान (त्वा) तुमको (आ) हर ओर से (दधुः) धारण करें। (तम्) उसको (एव) ही (जीवम्) जीव (विजानीहि) जानो॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दधुः) धरन्तु (त्वा) त्वाम् (भृगवः) परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः (मानुषेषु) मानवेषु (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम् (न) इव (चारुम्) सुन्दरम् (सुहवम्) सुखेन होतुं योग्यम् (जनेभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (होतारम्) दातारम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (अतिथिम्) न विद्यते नियता तिथिर्यस्य तम् (वरेण्यम्) वरीतुमर्हं श्रेष्ठम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (शेवम्) सुखस्वरूपम्। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (दिव्याय) दिव्यभोगान्विताय (जन्मने) प्रादुर्भावाय ॥ ६ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे अग्ने स्वप्रकाशस्वरूप ! त्वं यं त्वा भृगवो मानुषेषु जनेभ्यश्चारुं सुहवं रयिं न धनमिव होतारमतिथिं वरेण्यं शेवं लब्ध्वा दिव्याय जन्मने मित्रं न सखायमिव त्वाऽऽदधुस्तमेव जीवं विजानीहि॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा मनुष्या विद्याश्रियौ मित्रांश्च प्राप्य सुखमेधन्ते, तथैव जीवस्वरूपस्य वेदितारोऽत्यन्तानि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे विद्या, लक्ष्मी व मित्रांना प्राप्त करून सुखी होतात. तसेच जीवाच्या स्वरूपाला जाणणारे विद्वान अत्यंत सुखी होतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, eminent scholars of science among humanity hold and install you as precious wealth for the people, Agni, divine yajnic power, welcome as a cherished visitor, worthy of choice, deserving of hospitality like a dear friend, bliss incarnate. They install you so that you kindle, rise and blaze like a divinity of heaven.

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    Subject of the mantra

    Then what is the form of that living being, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne) =self-effulgent, having form like the one who makes pious, (tvam) =you, (yam) =which, (tvā) =to you, (bhṛgavaḥ)= mature scholar, having specific knowledge, (mānuṣeṣu) =among humans, (janebhyaḥ) =human, [viśeṣa ādi]=special etc., (cārum) =beautiful, (suhavam) =capable of being happy, (rayim) =of wealth, (na) =like,, (hotāram) =provider, (atithim) =to the scholar coming without date, (vareṇyam) =to choose the best and, (śevam)= to the form of happiness, (labdhvā) =having obtained, (divyāya)=of things related to divine enjoyment, (janmane) =for origin, (mitram) =of friend, (na) =like, (tvā) =to you, (ā) =from all sides, (dadhuḥ) =must hold, (tam) =to that, (eva) =only, (jīvam) =living being, (vijānīhi) =know.

    English Translation (K.K.V.)

    O self-effulgent, having form like the one who makes pious! You, the one who has given you matured scholars with special knowledge among human beings, special human beings etc., beautiful, capable of being blessed with happiness, like wealth, provider, the scholar who comes without date, to choose the best and related to divine enjoyment by attaining the form of happiness. May I embrace you from all sides like a friend for the creation of things. Know that only as a living being.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just, as humans attain happiness by acquiring knowledge and Lakshmi (wealth) and friends, similarly the learned people who know the nature of the living being attain immense happiness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the soul is taught further in the fifth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O self-effulgent conscious soul, shining like the fire, men of nature wisdom and knowledge regard thee like a precious treasure for the attainment of divine birth, like a charming wealth, to be accepted with pleasure and happiness, giver of delight, a welcome guest who art to be valued like an affectionate friend. They do so for the benefit of all people among mankind. Know this to be thy real nature.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भृगव:) परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः = Wise men of mature knowledge. भ्रस्ज-पाके ( शेवम् ) सुखस्वरूपम् शेवमिति सुखनाम (निघ० ३.६ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men enjoy happiness by acquiring knowledge, wealth and friends, in the same manner, the knowers of the real nature of the soul get extreme happiness and joy.

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