ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
परि॒ प्रजा॑तः॒ क्रत्वा॑ बभूथ॒ भुवो॑ दे॒वानां॑ पि॒ता पु॒त्रः सन् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । प्रऽजा॑तः । क्रत्वा॑ । ब॒भू॒थ॒ । भुवः॑ । दे॒वाना॑म् । पि॒ता । पु॒त्रः । सन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि प्रजातः क्रत्वा बभूथ भुवो देवानां पिता पुत्रः सन् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि। प्रऽजातः। क्रत्वा। बभूथ। भुवः। देवानाम्। पिता। पुत्रः। सन् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
यो मनुष्य उषो जारो नेव शुक्रः शुशुक्वान् पप्रा भुवो दिवः समीची ज्योतिर्न परि प्रज्ञातः क्रत्वा सह वर्त्तमानो देवानां पुत्रः सन् पिता बभूथ भवति, स एव सर्वैस्सेव्यः ॥ १ ॥
पदार्थः
(शुक्रः) वीर्यवान् शुद्धः (शुशुक्वान्) शोचकः (उषः) उषाः। अत्र सुपां सुलुगिति ङमो लुक्। (न) इव (जारः) वयोहन्ता सूर्यः (पप्रा) स्वविद्या पूर्णः। अत्र आदृगमहनजन० इति किः। सुपां सुलुगिति सोर्डादेशश्च। (समीची) सम्यगञ्चति प्राप्नोति सा भूमिः (दिवः) प्रकाशात् (न) इव (ज्योतिः) (परि) सर्वतः (प्रजातः) प्रसिद्ध उत्पन्नः (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (बभूथ) अत्र बभूथाततन्थजगृभ्म०। (अष्टा०७.२.६४) इति निपातनादिडभावः। (भुवः) पृथिव्याः (देवानाम्) विदुषाम् (पिता) अध्यापकः (पुत्रः) अध्येता (सन्) अस्ति ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। नहि कश्चिदपि विद्यार्थित्वेन विना विद्वान् जन्यते हि कस्यचिद् विद्युदादिविद्यासंप्रयोगाभ्यां विना महान् सुखलाभो जायत इति ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उनहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
जो मनुष्य (उषः) प्रातःकाल की वेला के (जारः) आयु के हन्ता सूर्य के (न) समान (शुक्रः) वीर्यवान् शुद्ध (शुशुक्वान्) शुद्ध कराने (पप्रा) अपनी विद्या से पूर्ण (युवः) भूमि के मध्य (दिवः) प्रकाश से (समीची) पृथिवी को प्राप्त हुए (ज्योतिः) दीप्ति के (न) समान (परि) सब प्रकार (प्रजातः) प्रसिद्ध उत्पन्न (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि वा कर्म्म के साथ वर्त्तमान (देवानाम्) विद्वानों के (पुत्रः) पुत्र के तुल्य पढ़नेवाला सब विद्याओं को पढ़ के (पिता) पढ़ानेवाला (बभूथ) होता है, उसका सेवन सब मनुष्य करें ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। विद्यार्थी न होके कोई भी मनुष्य विद्वान् नहीं हो सकता और किसी मनुष्य को बिजुली आदि विद्या तथा उसके संप्रयोग के विना बड़ा भारी सुख भी नहीं हो सकता ॥ १ ॥
विषय
पुत्र होते हुए पिता
पदार्थ
१. वे प्रभु (शुक्रः) = अत्यन्त शुद्ध हैं, (शुशुक्वान्) = भक्तों के जीवनों को शुद्ध व दीप्त बनानेवाले हैं, (उषः न) = जैसे उषः काल आकर अन्धकार को जीर्ण कर देता है, उसी प्रकार वे प्रभु हमारे हृदयान्धकारों को (जारः) = जीर्ण करनेवाले हैं ।
२. वे प्रभु (दिवः न) = द्युलोक के समान (समीची) = [सम् अञ्च] परस्पर मिलकर गति करनेवाले (ज्योतिः पप्रा) = ज्योति से पूर्ण कर देते है । समीची शब्द का अर्थ भाष्यों में द्यावापृथिवी किया गया है । “द्यौरह पृथिवी त्वम्” इस वाक्य के अनुसार द्यावापृथिवी से यहाँ पति - पत्नी का ही ग्रहण है । वे पति - पत्नी जो बड़े प्रेम के साथ परस्पर सामञ्जस्यपूर्वक जीवन बिताते हैं, इनके जीवनों को प्रभु उसी प्रकार ज्ञान के प्रकाश से भर देते हैं, जैसेकि इस द्युलोक से पृथिवीलोक तक व्यापक आकाश को प्रकाश से ।
३. (क्रत्वा) = यज्ञों व ज्ञान से (प्रजातः) = प्रादुर्भूत हुए - हुए ये प्रभु (परिबभूथ) = चारों ओर व्याप्त हैं । प्रभु सर्वव्यापक हैं, परन्तु प्रभु - दर्शन हमें तभी होता है जब हम अपने जीवन में यज्ञ व ज्ञान को स्थान देते हैं ।
४. वे प्रभु यज्ञशेष का सेवन करनेवाले [हविर्भुक् - देव] अथवा प्रकाशमय जीवन बितानेवाले [दिव् - द्युति] (देवानाम्) = देवों के (पुत्रः सन्) = पुत्र होते हुए (पिता) = पिता हैं । “पुत्र होते हुए पिता” इन शब्दों में विरोधाभास अलंकार है । इसका परिहार इस प्रकार है कि पुत्र का अर्थ “पुनाति त्रायते” पवित्र करता है और त्राण करता है, इस प्रकार कर लेने पर यह हो जाता है - ‘वे प्रभु देवों के जीवनों को पवित्र करते हैं और उनका त्राण करते हैं और इस प्रकार वे उनके पिता - पालयिता हैं’ ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु दीप्त हैं, दीप्त करनेवाले हैं, देवों को पवित्रता व त्राण प्राप्त करते हुए उनके पालयिता हैं ।
विषय
जीव
भावार्थ
( वेधाः ) ज्ञानवान्, मेधावी और उत्तम कर्त्तव्यों का विधान और उपदेश करने वाला ( अग्निः ) अग्रणी, ज्ञानी पुरुष ( विजानन् ) विशेष रूप से और विविध विद्याओं का ज्ञाता होकर भी ( अदृप्तः ) गर्व रहित हो । ( गोनां ऊधः न ) वह गौवों के थान के समान उत्तम ज्ञान रसों का देने वाला और ( पितूनाम् स्वाद्मा ) पुष्टि कारक अन्नों का खाने वाला और अन्यों को उत्तम अन्नों के खिलाने वाला हो । वह (जने शवः नः) जनों के बीच में सब को सुखकारी सर्व प्रिय के समान ( आहूर्यः ) आदर से बुलाने योग्य हो । ( सन् ) वह प्राप्त होकर ( मध्ये ) समस्त सभा जनों के बीच में (निषत्तः) विराजमान हो। और ( दुरोणे ) घर में ( रण्वः ) सबको आनन्द देने हारा हो । अध्यात्म में—आत्मा ज्ञानवान्, गर्व रहित, गायों के थान के समान आनन्दघन, अन्नादि कर्म फलों का भोक्ता, सुखकारी, स्मरणीय, देह के बीच विराजमान, नवद्वारमय देह में रमण करने हारा है, वह जीव भी ‘अग्नि’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशरः शक्तिपुत्र ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पंक्तिः । २, ३ निचृत् पंक्तिः। ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ विराट् पंक्तिः पंचर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- अब उनहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः मनुष्यः उषः जारः न इव शुक्रः शुशुक्वान् पप्रा भुवः दिवः समीची ज्योतिः न परि {प्रजातः} क्रत्वा सह वर्त्तमानः देवानां पुत्रः सन् पिता बभूथ भवति, स एव सर्वैः सेव्यः ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- (यः)=जो, (मनुष्यः)= मनुष्य, (उषः) उषाः= उषा, (जारः) वयोहन्ता सूर्यः=आयु को नष्ट करनेवाले सूर्य के, (न) इव=समान, (शुक्रः) वीर्यवान् शुद्धः= वीर्यवान् और शुद्ध, (शुशुक्वान्) शोचकः= दीप्त करनेवाला, (पप्रा) स्वविद्या पूर्णः=अपनी विद्या में पूर्ण, (भुवः) पृथिव्याः=पृथिवी के, (दिवः) प्रकाशात्=प्रकाश से, (समीची) सम्यगञ्चति प्राप्नोति सा भूमिः=अच्छी तरह से प्राप्त करनेवाली भूमि, (ज्योतिः)=प्रकाश के, (न) इव=समान, (परि) सर्वतः=हर ओर से, {प्रजातः} प्रसिद्ध उत्पन्नः= उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न, (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा=प्रज्ञा और कर्म के, (सह)=साथ, (वर्त्तमानः) =उपस्थित, (देवानाम्) विदुषाम्=विद्वानों के, (पुत्रः) अध्येता= अध्ययन करनेवाला, (सन्) =होता हुआ, (पिता) अध्यापकः= अध्यापक, (बभूथ) भवति= होता है, (सः)=वह, (एव)=ही, (सर्वैः)=सबके द्वारा, (सेव्यः)=पूजा करने के योग्य है ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। किसी में भी विद्यार्थी के गुण हुए विना विद्वान् नहीं हो सकते हैं और विद्वान् होने पर भी किसी विद्युत् आदि विद्या का अच्छी तरह से प्रयोग किये विना महान् सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (मनुष्यः) मनुष्य, (उषः) उषा और (जारः) आयु को नष्ट करनेवाले सूर्य के (न) समान (शुक्रः) वीर्यवान्, शुद्ध और (शुशुक्वान्) दीप्त करनेवाला है। (पप्रा) अपनी विद्या में पूर्ण, (भुवः) पृथिवी के (दिवः) प्रकाश को (समीची) अच्छी तरह से प्राप्त करनेवाली भूमि और (ज्योतिः) प्रकाश के (न) समान (परि) हर ओर से {प्रजातः} उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न (क्रत्वा) प्रज्ञा और कर्म के (सह) साथ (वर्त्तमानः) उपस्थित (देवानाम्) विद्वानों का, (पुत्रः) अध्ययन करनेवाला औरस पुत्र (सन्) होता हुआ (पिता) अध्यापक (बभूथ) होता है, (सः) वह (एव) ही (सर्वैः) सबके द्वारा (सेव्यः) पूजा किये जाने के योग्य है ॥१॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ शु॒क्रः । शु॒शु॒क्वान् । उ॒षः । न । जा॒रः । प॒प्रा । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । दि॒वः । न । ज्योतिः॑ ॥ परि॑ । प्रऽजा॑तः । क्रत्वा॑ । ब॒भू॒थ॒ । भुवः॑ । दे॒वाना॑म् । पि॒ता । पु॒त्रः । सन् ॥ विषयः- अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। नहि कश्चिदपि विद्यार्थित्वेन विना विद्वान् जन्यते हि कस्यचिद् विद्युदादिविद्यासंप्रयोगाभ्यां विना महान् सुखलाभो जायत इति ॥१॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी गाईची कास दूध देऊन सर्वांना सुख देते, जशी विद्वान माणसे सर्वांवर उपकार करतात तसेच सभा इत्यादीमध्ये स्थित शुभगुणयुक्त सभापती तू सर्वांना सुख देणारा हो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Bright and blazing, pure and purifying as the sun, lover of the dawn, filling both earth and heaven like the light of the sun, Agni, emerging and rising, shines over all with its light and power, being both generator and generated of the divinities of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned person are are taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man should be served by all who like the lustre of the sun, the Dawn's lover or extinguisher is pure, virile, splendid, bright and illuminator of all by his knowledge. Being himself full of wisdom, he fills the earth and the heaven with the light of knowledge. He being endowed with intelligence and the power of action although the son or disciple of a highly learned trnthful person becomes their teacher revered as illustrious father.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुक्रः) वीर्यवान् शुद्धः Virile and pure. (पप्रा:) स्वविद्यापूर्णा: = Full of knowledge and wisdom. (शुशुक्कान) शोधक: = Illuminator.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No one becomes learned without being a good student. None can enjoy great happiness without the knowledge and practical application of the science of electricity and other substances.
Translator's Notes
ईशुचिर-पूतीभावे शोचति ज्वलति कर्मा (निघ० १.१६) पृ-पालन पूरणयोः
Subject of the mantra
Now the sixty-ninth hymn starts. In its first mantra, the qualities of scholars have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =That, (manuṣyaḥ) =man, (uṣaḥ) =dawn and, (jāraḥ) =of the age-destroying Sun, (na) =like (śukraḥ)=virile, pure and (śuśukvān) =is illuminating,(paprā) = complete in his learning, (bhuvaḥ) =of earth, (divaḥ) =to light, (samīcī) =well receivng land and, (jyotiḥ) =of light, (na) =like (pari) =from all sides, {prajātaḥ} =excellently produced, (kratvā) =of wisdom and action, (saha) =with, (varttamānaḥ) =present, (devānām) =of scholars, (putraḥ)= the legitimate son of the one who studies, (san) =being, (pitā) =teacher, (babhūtha) =is, (saḥ) =he, (eva) =only, (sarvaiḥ) =by all, (sevyaḥ)= is worthy of being worshiped.
English Translation (K.K.V.)
The man, like the dawn and the Sun which destroys age, is virile, purifying and illuminating. Complete in his learning, like the land well receiving the light of the earth, excellently produced from every side, of the scholars present there with wisdom and action, the one who studies being the legitimate son of the teacher, he alone is worthy of being worshiped by all.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are paronomasia and simile as a figurative at two places in this mantra. No one can be a scholar without having the qualities of a student and even after being a scholar, one cannot attain great happiness without using any knowledge like electricity et cetera properly.
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