ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 9
ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा विराट्
स्वरः - पञ्चमः
उ॒षो न जा॒रो वि॒भावो॒स्रः संज्ञा॑तरूप॒श्चिके॑तदस्मै ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षः । न । जा॒रः । वि॒भाऽवा॑ । उ॒स्रः । सञ्ज्ञा॑तऽरूपः । चिके॑तत् । अ॒स्मै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषो न जारो विभावोस्रः संज्ञातरूपश्चिकेतदस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठउषः। न। जारः। विभाऽवा। उस्रः। सञ्ज्ञातऽरूपः। चिकेतत्। अस्मै ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 9
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 9
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
य उषो न जार उस्र इव संज्ञातरूपो विभावास्ति तं मनुष्यश्चिकेतज्जानीयादस्मै सर्वं समर्पयतु। हे मनुष्या ! यथैवं कुर्वन्तो विश्वे विद्वांसस्त्मना स्वर्वन्तो दृशीके व्यवहारे दुरो व्यृण्वन् हिंसन्ति सन्नुवन्ति तथैव यूयं सदैतत्कुरुत तं सदा नवन्त ॥ ५ ॥
पदार्थः
(उषः) प्रत्यूषकालस्य (न) इव (जारः) दुःखहन्ता सविता (विभावा) यः सर्वं विभातीति सः (उस्रः) रश्मिरिव (संज्ञातरूपः) सम्यग्ज्ञातं रूपं येन सः (चिकेतत्) जानीयात् (अस्मै) विदुषे (त्मना) आत्मना जीवेन (वहन्तः) उपदेशेन प्राप्नुवन्तः (दुरः) दुष्टान् (वि) विशेषे (ऋण्वन्) हिंसन् (नवन्त) प्रशंसत (विश्वे) सर्वे धार्मिका मनुष्याः (स्वः) सुखप्रापकम् (दृशीके) द्रष्टव्ये ज्ञानव्यवहारे ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषोपमालुप्तोपमालङ्काराः। मनुष्यैर्यः सूर्यवत् सर्वविद्याप्रकाशकोऽग्निवत्सर्वदुःखदाहकः परमेश्वरो विद्वान् वास्ति तमात्मनाऽश्रित्य दुष्टव्यवहारांस्त्यक्त्वा सत्येषु व्यवहारेषु सुखं सदा प्राप्तव्यम् ॥ ५ ॥ ।अत्र विद्वद्विद्युदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (उषः) प्रातःकाल के (न) समान (जारः) दुःख का नाश करनेवाला (उस्रः) किरणों के समान (संज्ञातरूपः) अच्छी प्रकार रूप जानने (विभावा) सब प्रकाश करनेवाला है, उसको मनुष्य (चिकेतत्) जाने (अस्मै) उस ईश्वर वा विद्वान् के लिये सब कुछ उत्तम पदार्थ समर्पण करे। हे मनुष्यो ! जैसे इस प्रकार करते हुए (विश्वे) सब विद्वान् लोग (त्मना) आत्मा से (स्वः) सुख प्राप्त करनेवाले विद्यासमूह को (वहन्तः) प्राप्त होते हुए (दृशीके) देखने योग्य व्यवहार में (दुरः) शत्रुओं को (व्यृण्वन्) मारते तथा सज्जनों की प्रशंसा करते हैं, वैसे तुम भी शत्रुओं को मारो तथा (नवन्त) सज्जनों की स्तुति करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष, उपमा और लुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यो को चाहिये कि जो सूर्य्य के समान विद्या का प्रकाशक, अग्नि के समान सब दुःखों को भस्म करनेवाला परमेश्वर वा विद्वान् है, उसको अपने आत्मा से आश्रय कर दुष्ट व्यवहारों को त्याग और सत्य व्यवहारों में स्थित होकर सदा सुख को प्राप्त हों ॥ ५ ॥ इस सूक्त में विद्वान् बिजुली और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्वसूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
प्रभुभक्त का दीप्त जीवन
पदार्थ
१. (उषः न जारः) = जैसे उषः काल उदित होकर अन्धकार को जीर्ण कर देता है, वैसे ही यह प्रभुभक्त भी अज्ञानान्धकार को दूर करने का प्रयत्न करता है । २. उसके लिए (विभावा) = स्वयं विशिष्ट दीप्तिवाला बनता है । स्वयं के पास ज्ञान न होने पर वह औरों को क्या ज्ञान देगा ! (उस्रः) = यह सबको निवास देनेवाला होता है, अर्थात् ज्ञान देने की प्रक्रिया में यह इस बात का बड़ा ध्यान रखता है कि यह उनको वह ज्ञान दे जिससे उनका निवास उत्तम बने । ३. (संज्ञातरूपः) = यह संज्ञात रूपवाला होता है । यह माया व चालाकी के कारण लोगों के लिए पहेली नहीं बना रहता । सरल होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति इसे समझता है । इसके मन, वाणी और कर्म में एकरूपता होती है । (अस्मै चिकेतत्) = इसके लिए प्रभु जानते हैं, अर्थात् प्रभु इसके लिए सब अभिमत फल प्राप्त कराते हैं । इसके योग - क्षेम में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । ४. ये लोग (त्मना) = स्वयं (वहन्तः) = अपना बोझ वहन करते हैं । ये आत्मनिर्भर होते हैं, औरों पर आश्रित होना इनके स्वभाव में नहीं होता । ५. ये (दुरः) = मोक्षद्वारों को (विऋण्वन्) = विशेष रूप से प्राप्त होते हैं । “शम, विचार, सन्तोष एवं साधुसंगम” रूप मोक्षद्वारों को ये अपने जीवन में विशेष स्थान देते हैं और इसी का यह परिणाम होता है कि (ये विश्वे) = सब (दृशीके) = दर्शनीय (स्वः) = उस प्रकाशस्वरूप प्रभु में (नवन्त) = [गच्छन्ति] जानेवाले होते हैं, ये प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - स्वयं अपने जीवन को “दीप्त, सरल व आत्मनिर्भर” बनाकर हम “शम, विचार, सन्तोष व साधुसंगम” रूप मोक्षद्वारों को प्राप्त करें और प्रभु - दर्शन के योग्य बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के प्रारम्भ में काव्यमय भाषा में कहा है कि प्रभु हमारे पुत्र हैं और हम पिता हैं [१] । इस प्रभु का सच्चा पुत्र दूध व अन्नों का ही स्वाद जानता है, मद्य - मांस के स्वाद को नहीं [२] । यह प्रजाओं में एकत्व का प्रचार करता है [३] । व्रतपालन करते हुए क्लेशों का नाश करता है [४] । दीप्त जीवनवाला बनकर लोगों को भी ज्ञान देता है और अन्ततः प्रभु - दर्शन करता है [५] । हम अपने जीवनों को पूर्ण बनाकर प्रभु का उपासन करें - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, bright and blazing like the sun, lover of the dawn, is the dispeller of darkness like the first ray of morning light and reveals the beauteous forms of things, opening the doors of yajna, and destroys suffering. Carrying gifts of homage for it with their heart and soul in every noble act of yajna, let all the people know It and bow to it.
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