ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 6
ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा विराट्
स्वरः - पञ्चमः
विशो॒ यदह्वे॒ नृभिः॒ सनी॑ळा अ॒ग्निर्दे॑व॒त्वा विश्वा॑न्यश्याः ॥
स्वर सहित पद पाठविशः॑ । यत् । अह्वे॑ । नृऽभिः॑ । सऽनी॑ळाः । अ॒ग्निः । दे॒व॒ऽत्वा । विश्वा॑नि । अ॒श्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विशो यदह्वे नृभिः सनीळा अग्निर्देवत्वा विश्वान्यश्याः ॥
स्वर रहित पद पाठविशः। यत्। अह्वे। नृऽभिः। सऽनीळाः। अग्निः। देवऽत्वा। विश्वानि। अश्याः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्य ! यद्योऽग्निरिव दुरोणे जातः पुत्रो न रण्वो वाजी न प्रीतो विशो वितारीत्। योऽह्वे नृभिः सनीडा विशो विश्वानि देवत्वा प्रापयति ते त्वमप्यश्याः ॥ ३ ॥
पदार्थः
(पुत्रः) पित्रादीनां पालयिता (न) इव (जातः) उत्पन्नः (रण्वः) रमणीयः। अत्र रम धातोर्बाहुलकादौणादिको वः प्रत्ययः। (दुरोणे) गृहे (वाजी) अश्वः (न) इव (प्रीतः) प्रसन्नः (विशः) प्रजाः (वि) विशेषार्थे (तारीत्) दुःखात्सन्तारयेत् (विशः) प्रजाः (यत्) यः (अह्वे) अह्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् (नृभिः) नेतृभिर्मनुष्यैः (सनीडाः) समानस्थानाः (अग्निः) पावक इव पवित्रः सभाध्यक्षः (देवत्वा) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा भावरूपाणि (विश्वानि) सर्वाणि (अश्याः) प्राप्नुयाः। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नहि मनुष्याणां विज्ञानविद्वत्सङ्गाश्रयेण विना सर्वाणि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्तीति वेदितव्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्य ! (यत्) जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य सभाध्यक्ष (दुरोणे) गृह में (जातः) उत्पन्न हुआ (पुत्रः) पुत्र के (न) समान (रण्वः) रमणीय (वाजी) अश्व के (न) समान (प्रीतः) आनन्ददायक (विशः) प्रजा को (वितारीत्) दुःखों से छुड़ाता है (अह्वे) व्याप्त होनेवाले व्यवहार में (सनीडाः) समानस्थान (विशः) प्रजाओं को (विश्वानि) सब (देवत्वा) विद्वानों के गुण, कर्मों को प्राप्त करता है, उसको तू (अश्याः) प्राप्त हो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को विज्ञान और विद्वानों के सङ्ग के विना सब सुख प्राप्त नहीं हो सकते, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३ ॥
विषय
प्रीतः वाजी
पदार्थ
१. प्रभुभक्त (जातः पुत्रः न) = उत्पन्न हुए - हुए पुत्र के समान (दुरोणे) = गृह में (रण्वः) = रमणीय होता है । इसके सुन्दर जीवन में सबको प्रसन्नता का अनुभव होता है । (वाजी न) = शक्तिशाली पुरुष की भाँति (प्रीतः) = प्रसन्न स्वभाववाला यह (विशः) = सब प्रजाओं को (वितारीत्) = कष्टों से पार करता है । निर्बल व क्षीण - शक्ति पुरुष ही चिड़चिड़े स्वभाव का होता है । यह औरों का हित करने में भी समर्थ नहीं होता । [वितारीत् - दुःखात् सन्तारयते - द०] । शक्तिशाली पुरुष प्रसन्न स्वभाववाला होता है तथा औरों के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करता है । २. (विशः) = प्रजाओं को (यत्) = जब (अह्वे) = [आह्वयामि] पुकारता हूँ उनको सम्बोधित करके कुछ कहता हूँ तो यही कहता हूँ कि तुम (नृभिः सनीळाः) = सब मनुष्यों के साथ समान नीडवाले हो, तुम सबका समान गृह प्रभु है, तुम सब प्रभु के पुत्र हो । ३. इस प्रकार उपदेश देने और समझानेवाला व्यक्ति ही (अग्निः) = अग्नणी है, उन्नति - पथ पर आगे बढ़नेवाला है । यह (विश्वानि देवत्वा) = सब दिव्य गुणों को (अश्याः) = प्राप्त होता है [अश्नुते व्याप्नोति - सा०] । अग्नि वही है जो सभी में प्रभु का वास देखता है और सबको प्रभु में देखता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा जीवन रमणीय हो । हम शक्तिशाली व प्रसन्नचेता बनकर औरों के दुःखों को दूर करें । सभी को एक ही बात कहें कि सब एक ही प्रभुरूप घर में रहनेवाले हो । इस भावना के द्वारा अपने में दिव्यत्व बढ़ाएँ ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Rising like a darling son, delight of the home, beautiful and joyous as a horse, Agni takes people across the hurdles of life. To whatever creative and productive yajnic programmes people invite and invoke Agni, It joins the people with Its light and divinity of power and blesses them with all the wealths of life.
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