ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 10
ऋषिः - पराशरः शाक्तः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒ता ते॑ अग्न उ॒चथा॑नि वेधो॒ जुष्टा॑नि सन्तु॒ मन॑से हृ॒दे च॑। श॒केम॑ रा॒यः सु॒धुरो॒ यमं॒ तेऽधि॒ श्रवो॑ दे॒वभ॑क्तं॒ दधा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । उ॒चथा॑नि । वे॒धः॒ । जुष्टा॑नि । स॒न्तु॒ । मन॑से । हृ॒दे । च॒ । श॒केम॑ । रा॒यः । सु॒ऽधुरः॑ । यम॑म् । ते॒ । अधि॑ । श्रवः॑ । दे॒वऽभ॑क्तम् । दधा॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता ते अग्न उचथानि वेधो जुष्टानि सन्तु मनसे हृदे च। शकेम रायः सुधुरो यमं तेऽधि श्रवो देवभक्तं दधानाः ॥
स्वर रहित पद पाठएता। ते। अग्ने। उचथानि। वेधः। जुष्टानि। सन्तु। मनसे। हृदे। च। शकेम। रायः। सुऽधुरः। यमम्। ते। अधि। श्रवः। देवऽभक्तम्। दधानाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं तत्सहायेन किं प्राप्यत इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वेधोऽग्ने जगदीश्वर ! ते तव कृपयैतोचथान्यस्माकं मनसे हृदे च जुष्टानि सन्तु ते तव सम्बन्धेन यमं देवभक्तं श्रवो दधानाः सुधुरो वयं राया धनानि प्राप्तुमधि शकेम ॥ १० ॥
पदार्थः
(एता) एतानि (ते) तव (अग्ने) विज्ञानप्रद (उचथानि) वेदवचनानि (वेधः) प्रज्ञाप्रद (जुष्टानि) प्रीतानि सेवितानि (सन्तु) भवन्तु (मनसे) (हृदे) आत्मने (च) समुच्चये (शकेम) शक्नुयाम। अत्र व्यत्ययेन शप्। (रायः) धनानि (सुधुरः) शोभना धुरो धारणानि येषान्ते (यमम्) यच्छति येन तम् (ते) तव (अधि) उपरिभावे (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणम् (देवभक्तम्) विद्वद्भिः सेवितम् (दधानाः) धरन्तः ॥ १० ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वाणि सुखानि प्राप्य सर्वेभ्यः प्रापयितव्यानि ॥ १० ॥ अत्रेश्वराग्निविद्वत्सूर्य्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसको उसके सहाय से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (वेधः) सबके अन्तःकरण में रहने से सबको बुद्धिप्रद धर्त्ता (अग्ने) विज्ञान के देनेवाले जगदीश्वर (ते) आपकी कृपा से (एता) (उचथानि) वेदवचन हम लोगों के (मनसे) मन (च) और (हृदे) आत्मा के लिये (जुष्टानि) सेवन किये हुए प्रीतिकारक (सन्तु) होवें, वे (ते) आपके सम्बन्ध से (यमम्) नियम करने (देवभक्तम्) विद्वानों ने सेवन किये हुए (श्रवः) श्रवण को (दधानाः) धारण करते हुए (सुधुरः) उत्तम पदार्थों के धारण करनेवाले हम लोग (रायः) धनों के प्राप्त होने को (अधि शकेम) समर्थ हों ॥ १० ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि आप सब सुखों को प्राप्त होकर और सभी के लिये प्राप्त करावें ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर, अग्नि, विद्वान् और सूर्य के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्वसूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी उचित है ॥
विषय
वेदवचनों का मनन व उनके प्रति श्रद्धा
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (वेधः) = प्रज्ञाप्रद प्रभो ! (एता) = ये (ते) = आपके (उचथानि) = वेदवचन (मनसे) = मेरे मन के लिए (हृदे च) = और हृदय के लिए (जुष्टानि सन्तु) = प्रीति उत्पन्न करनेवाले हों, अर्थात् मैं इन वेदवचनों का मनन करनेवाला बनूं और इन वाक्यों के लिए श्रद्धावाला हो । २. हे प्रभो ! (सुधुरः) = उत्तम इन्द्रियों, मन व बुद्धि को धारण करनेवाले हम (ते) = आपके (यमम्) = जीवन को नियमित करनेवाले (देवभक्तम्) = देवों व विद्वानों से सेवित (श्रवः) = ज्ञान को (अधिदधानः) = आधिक्येन धारण करते हुए (रायः) = धनों को (शकेम) = प्राप्त करने में समर्थ हों । ज्ञान हमारे जीवन में नियमितता को पैदा करता है । ज्ञान को प्राप्त करके जब हम धनार्जन करते हैं तब धन के कारण होनेवाली बुराइयों से बचे रहते हैं । इसलिए आवश्यकता है कि हमारे अवकाश का सारा समय वेदमन्त्रों के मनन में बीते, ज्ञान - प्राप्ति में हम अवकाश का विनियोग करें ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें ज्ञान प्रिय हो । ज्ञान को धारण करते हुए हम धनों का अर्जन करनेवाले बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि पिता से प्राप्त धन हमें अध्यात्म - उन्नति के लिए पर्याप्त अवकाश देकर हमारे जीवन को उत्कृष्ट करे [१] । वे प्रभु सत्यज्ञानवाले हैं, अतएव धारणीय हैं [२] । प्रभु की आँखों से ओझल न होते हुए हम पतिव्रता नारी के समान आनन्दित जीवनवाले हों [३] । हम ज्योतिर्मय जीवनवाले हों [४] । यज्ञशील बनकर हम उत्तम अन्नों को प्राप्त करें [५] । आदरणीय आचार्य से ज्ञान को प्राप्त करें [६] । पूर्वपक्ष व उत्तरपक्ष के विचार से हमारा ज्ञान परिष्कृत हो [७] । हम धनसम्पन्न व यज्ञशील हों [८] । उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले वीर नर हों [९] । वेदमन्त्रों का हम मनन करें व उनके प्रति श्रद्धावाले हों [१०] । प्रभु की उपासना करते हुए मन्त्रों का उच्चारण करें, इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
मनुष्यों को उत्तम उपदेश ।
भावार्थ
हे ( वेधः ) समस्त शासन-विधानों के विधातः विद्वन् और ज्ञानप्रद परमेश्वर ! हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! ज्ञानवन् ! ( ते ) तेरे ( एता ) ये नाना (उचथानि) ज्ञानमय वचन (मनसे) मन और ( हृदे ) हृदय, या आत्मा को ( जुष्टानि ) प्रिय लगें । अर्थात् ‘मन’, मनन तर्क वितर्ककारी बुद्धि द्वारा सुविचारित और अन्तःकरण द्वारा श्रद्धा और विश्वास करने योग्य सत्य और प्रिय हों। हम लोग ( सुधुरः ) धुरा के समान उत्तम रीति से कार्यभार को उठाने में समर्थ होकर ( ते ) तेरे अधीन ( देवभक्तं ) विद्वानों और वीरों से सेवन करने योग्य ( श्रवः ) ज्ञान अन्न, और ऐश्वर्य को ( दधानाः ) धारण करते हुए ( रायः ) राज्य आदि ऐश्वर्यों का ( यमं ) संयमन अर्थात् प्रबन्ध करने में (अधिशकेम) अच्छी प्रकार समर्थ हो । इति विंशो वर्गः ॥ इति द्वादशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर उस देव भक्त को उस ईश्वर की सहायता से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे वेधः अग्ने जगदीश्वर ! ते तव कृपया एता उचथानि अस्माकं मनसे हृदे च जुष्टानि सन्तु ते तव सम्बन्धेन यमं देवभक्तं श्रवः दधानाः सुधुरः वयं राया धनानि प्राप्तुम् अधि शकेम ॥१०॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (वेधः) प्रज्ञाप्रद=प्रज्ञा प्रदान करनेवाले, (अग्ने) विज्ञानप्रद=विशेष ज्ञान प्रदान करनेवाले, (जगदीश्वर)=परमेश्वर ! (ते) तव=तुम्हारी, (कृपया)= कृपा से, (एता) एतानि=ये, (उचथानि) वेदवचनानि= वेद के वचन, (अस्माकम्)=हमें, (मनसे)= मन में, (च) समुच्चये= और, (हृदे) आत्मने=आत्मा में, (जुष्टानि) प्रीतानि सेवितानि=प्रेम पर विश्वास करनेवाले, (सन्तु) भवन्तु=हों। (ते) तव=तुम्हारे, (सम्बन्धेन)= सम्बन्ध से, (यमम्) यच्छति येन तम्=देनेवाले, (देवभक्तम्) विद्वद्भिः सेवितम्= विद्वानों के द्वारा अनुसरण किये गये, (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणम्= समस्त विद्याओं को श्रवण और, (दधानाः) धरन्तः=धारण करते हुए, (सुधुरः) शोभना धुरो धारणानि येषान्ते=उत्तम आधारवाले, (वयम्)=हम, (रायः) धनानि=धनों को, (प्राप्तुम्) =प्राप्त करने के लिये, (अधि+ शकेम)उपरिभावे शक्नुयाम =समर्थ होवें ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर, अग्नि, विद्वान् और सूर्य के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी उचित है ॥१०॥
विशेष
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा सब सुखों को प्राप्त करके, सबके लिये प्राप्त कराना चाहिए ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (वेधः) प्रज्ञा और (अग्ने) विशेष ज्ञान को प्रदान करनेवाले (जगदीश्वर) परमेश्वर ! (ते) तुम्हारी (कृपया) कृपा से (एता) ये (उचथानि) वेद के वचन (अस्माकम्) हमें (मनसे) मन में (च) और (हृदे) आत्मा में, (जुष्टानि) प्रेम पर विश्वास करनेवाले (सन्तु) होंवें। (ते) तुम्हारे (सम्बन्धेन) सम्बन्ध से (यमम्) देनेवाले और (देवभक्तम्) विद्वानों के द्वारा अनुसरण की गई (श्रवः) समस्त विद्याओं को श्रवण और (दधानाः) धारण करते हुए (सुधुरः) उत्तम आधारवाले (वयम्) हम (रायः) धनों को (प्राप्तुम्) प्राप्त करने में (अधि+ शकेम) समर्थ होवें ॥१०॥
संस्कृत भाग
ए॒ता । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । उ॒चथा॑नि । वे॒धः॒ । जुष्टा॑नि । स॒न्तु॒ । मन॑से । हृ॒दे । च॒ । श॒केम॑ । रा॒यः । सु॒ऽधुरः॑ । यम॑म् । ते॒ । अधि॑ । श्रवः॑ । दे॒वऽभ॑क्तम् । दधा॑नाः ॥ विषयः- पुनस्तं तत्सहायेन किं प्राप्यत इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वाणि सुखानि प्राप्य सर्वेभ्यः प्रापयितव्यानि ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वराग्निविद्वत्सूर्य्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी स्वतः सर्व सुख प्राप्त करून सर्वांना सुख प्राप्त करून द्यावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and life, omniscient giver of knowledge and vision, may these holy words of divinity be songs of faith and love for our mind and soul. May we, holding holy foods and blest by words of divine souls, be steady on our path of life and be able to conduct the management of life’s wealth in proper yajnic manner.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is gained by His (God's) help is taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God Giver of knowledge and good intellect: May these Vedic Mantras be dear to our mind and heart being served with love by Thy Grace. May we be competent to obtain Thy well-supporting wealth being endowed with the knowledge of all sciences which enable us to have self-control and which is served or acquired by all learned persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(उचथानि) वेदवचनानि = Vedic Mantras. (जुष्टानि) प्रीतानि सेवितानि = Dear and served. (जुषी-प्रीति सेवनयोः) (श्रवः) सर्व विद्याश्रवणम् = hearing or knowledge of all sciences. (देवभक्तम्) विद्वद्भिः सेवितम् Served by learned persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should attain all happiness and should make others to do so.
Translator's Notes
Here ends the the commentary on the 73rd hymn and 20th Varga of the Rigveda First Mandala. It is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes of God, fire, learned persons and the Sun.
Subject of the mantra
Then, what a devotee of God achieves with the help of that God?This subject has been preached in the next mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vedhaḥ) =wisdom and, (agne) =imparting special knowledge, (jagadīśvara) =God, (te) =your, (kṛpayā) =by grace, (etā)=these, (ucathāni) =words of Vedas, (asmākam) =to us, (manase) =in mind, (ca) =and, (hṛde) =in soul, (juṣṭāni) =believers in love, (santu) =be, (te) =your, (sambandhena) =by relation, (yamam) =providers and, (devabhaktam) =followed by scholars, (śravaḥ)= listening all the knowledge and, (dadhānāḥ) =possessing, (sudhuraḥ) =with good foundation, (vayam) =we, (rāyaḥ) =of wealth, (prāptum) =in obtaining, (adhi+ śakema) be capable.
English Translation (K.K.V.)
O God who bestows wisdom and special knowledge! By your grace, may these words of Veda make us believe in love in our mind and soul. By listening to and imbibing all the knowledge followed by the provider and scholars related to you, may we be capable to attain wealth with good foundation.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
After attaining all the happiness by human beings, these should be made available to all.
TRANSLATOR’S NOTES-
Since the qualities of God, fire, scholar and Sun are described in this hymn, it is appropriate to understand the consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal