ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 8
यान्रा॒ये मर्ता॒न्त्सुषू॑दो अग्ने॒ ते स्या॑म म॒घवा॑नो व॒यं च॑। छा॒येव॒ विश्वं॒ भुव॑नं सिसक्ष्यापप्रि॒वान्रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम् ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । रा॒ये । म॒र्ता॑न् । सुसू॑दः । अ॒ग्ने॒ । ते । स्या॒म॒ । म॒घऽवा॑नः । व॒यम् । च॒ । छा॒याऽइ॑व । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सि॒स॒क्षि॒ । आ॒प॒प्रि॒ऽवान् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यान्राये मर्तान्त्सुषूदो अग्ने ते स्याम मघवानो वयं च। छायेव विश्वं भुवनं सिसक्ष्यापप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम् ॥
स्वर रहित पद पाठयान्। राये। मर्तान्। सुसूदः। अग्ने। ते। स्याम। मघऽवानः। वयम्। च। छायाऽइव। विश्वम्। भुवनम्। सिसक्षि। आपप्रिऽवान्। रोदसी इति। अन्तरिक्षम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथैतत्सृष्टिकर्त्तेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने जगदीश्वर ! यस्त्वं यान् सुसूदो मर्त्तानस्मान् राये सिसक्षि, ते वयं मघवानः स्याम। यो भवान् छायेव विश्वं भुवनं रोदसी अन्तरिक्षं चापप्रिवान् व्याप्तवानसि तं सर्वे वयमुपास्महे ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यान्) उत्तमविद्यास्वभावान् (राये) धनाय (मर्त्तान्) मनुष्यान् (सुसूदः) क्षयशरीरादियुक्तान् (अग्ने) जगदीश्वर (ते) तव (स्याम) भवेम (मघवानः) प्रशस्तधनयुक्ताः (वयम्) पुरुषार्थिनः (च) समुच्चये (छायेव) यथा शरीरैः सह छाया वर्त्तते तथा (विश्वम्) अखिलम् (भुवनम्) जगत् (सिसक्षि) समवैति (आपप्रिवान्) सर्वतो व्याप्तवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अन्तरिक्षम्) आकाशम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भिरीश्वरोपासनापुरुषार्थाभ्यां स्वयं विद्यादिधनवन्तो भूत्वा सर्वे मनुष्या विद्यादिधनवन्तः कार्याः ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सृष्टिकर्त्ता ईश्वर कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जो आप (यान्) जिन (सुसूदः) क्षयवृद्धि धर्म्मयुक्त (मर्त्तान्) मनुष्यों को (राये) विद्यादि धन के लिये (सिसक्षि) संयुक्त करते हो (ते) वे (वयम्) हम लोग (मघवानः) प्रशंसा योग्य धनवाले (स्याम) होवें (च) और जो आप (छायेव) शरीरों की छाया के समान (विश्वम्) सब (भुवनम्) जगत् और (रोदसी) आकाश, पृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आपप्रिवान्) पूर्ण करनेवाले हो, उन आपकी सब लोग उपासना करें ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की उपासना और अपने पुरुषार्थ से आप विद्यादि धनवाले होकर सब मनुष्यों को भी करें ॥ ८ ॥
विषय
धनसम्पन्न व यज्ञशील
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = आगे ले जानेवाले प्रभो ! (यान् मर्तान्) = जिन मनुष्यों को आप (राये) = ऐश्वर्यों के लिए (सुषूदः) = उत्तमता से प्रेरित करते हैं, (ते वयम्) = वे हम (स्याम) = हों, (च) = और (मघवानः) = [मघ = ऐश्वर्यं तथा मघ = यज्ञ] ऐश्वर्य का यज्ञों में विनियोग करनेवाले हों । हम उन मनुष्यों में से हों जो प्रभुकृपा से ऐश्वर्यों के स्वामी होते हैं और उन ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करते हैं । २. हे प्रभो ! आप (रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष को (आपप्रिवान्) = पूर्ण किये हुए हैं, सब लोक - लोकान्तरों में व्याप्त हैं तथा (विश्वं भुवनम्) = सब प्राणियों को (छाया इव) = छाया की भाँति (सिसक्षि) = समवेत [संयुक्त] करते हैं । जैसे छाया पदार्थों को छोड़कर दूर नहीं होती, उसी प्रकार प्रभु सब प्राणियों के साथ समवेत हैं । प्रभु प्राणियों का साथ नहीं छोड़ते । हम प्रभु को भूल जाएँ तो भूल जाएँ, परन्तु प्रभु हमें कभी नहीं भूलते ।
भावार्थ
भावार्थ - हम धनसम्पन्न व यज्ञशील बनें । हमें प्रभुकृपा सदा प्राप्त रहे ।
विषय
परमेश्वर और मध्यस्थ राजपद ।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! राजन् ! ईश्वर ! (यान्) जिन (सुसूदः) उत्तम, दृढ़, नश्वर देहों से युक्त ( मर्त्तान् ) पुरुषों को ( राये ) ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए ( सिसक्षि ) एकत्र कर उनको संघटित करता है ( ते ) वे और (वयम्) हम प्रजाजन भी ( ते ) तेरे अधीन रहकर ( मघवानः ) ऐश्वर्यवान् ( स्याम ) हों । अथवा—(यान् मर्त्तान् राये सुषूदः) तू जिनको ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है वे और हम सब धन सम्पन्न हों । तू ( विश्वम् भुवनम् ) समस्त संसार को (रोदसी) आकाश और भूमि तथा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को भी (आपप्रिवान्) सब तरह से पूर्ण करता हुआ ( छाया इच ) छाया के समान उनके भीतर व्याप्त है। राजा के पक्ष में—( रोदसी ) राज-प्रजावर्ग और ( अन्तरिक्षम् ) मध्यस्थ पद को ( आपप्रिवान् ) पूर्ण करता हुआ विद्वान् राजा (विश्वम् भुवनम् ) समस्त राष्ट्र को (छाया इव) आच्छादक छत्र या वृक्ष की छाया के समान (सिसक्षि) उनको शान्तिप्रद, रक्षक शरण रूप से प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर सृष्टिकर्त्ता ईश्वर कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने जगदीश्वर ! यः त्वं यान् सुसूदः मर्त्तान् अस्मान् राये सिसक्षि, ते वयं मघवानः स्याम यः भवान् छायेव विश्वं भुवनं रोदसी अन्तरिक्षं च आपप्रिवान् व्याप्तवान् असि तं सर्वे वयम् उपास्महे ॥८॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) जगदीश्वर=परमेश्वर ! (यः)=जो, (त्वम्) =तुम, (यान्) उत्तमविद्यास्वभावान् = उत्तम विद्या और स्वभाव के, (सुसूदः) क्षयशरीरादियुक्तान्= नष्ट होनेवाले शरीर से युक्त, (मर्त्तान्) मनुष्यान्= मनुष्यों को, (अस्मान्)=हमें, (राये) धनाय =धन के लिये, (सिसक्षि) समवैति= संगृहीत करता है, (ते) तव=तुम्हारे, (वयम्) पुरुषार्थिनः=हम पुरुषार्थी, (मघवानः) प्रशस्तधनयुक्ताः=श्रेष्ठ धन से युक्त, (स्याम) भवेम=होवें, (यः)=जो, (भवान्)=आप, (छायेव) यथा शरीरैः सह छाया वर्त्तते तथा= शरीर के साथ जैसे उसकी छाया होती है, (विश्वम्) अखिलम्=सकल, (भुवनम्) जगत्= जगत्, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ= द्यौ, पृथिवी (च) समुच्चये= और, (अन्तरिक्षम्) आकाशम्= आकाश में, (आपप्रिवान्) सर्वतो व्याप्तवान्=हर ओर व्याप्त, (असि)=हो। (तम्) =उसकी, (वयम्)=हम, (सर्वे)=सब, (उपास्महे)=उपासना करें ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्वानों के द्वारा ईश्वर की उपासना और अपने पुरुषार्थ से स्वंय विद्यावान् और धनवान् होकर, सब मनुष्यों को विद्यावान् और धनवान् बनाना चाहिए ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) परमेश्वर ! (यः) जो (त्वम्) तुम (यान्) उत्तम विद्या और स्वभाव के, (सुसूदः) नष्ट होनेवाले शरीर से युक्त (मर्त्तान्) मनुष्यों को, (अस्मान्) हमें (राये) धन के लिये (सिसक्षि) संगृहीत करता है। (ते) तुम्हारे (वयम्) हम पुरुषार्थी लोग (मघवानः) श्रेष्ठ धन से युक्त (स्याम) होवें। (यः) जो (भवान्) आप, (छायेव) शरीर के साथ जैसे उसकी छाया होती है, [वैसे] (विश्वम्) सकल (भुवनम्) जगत्, (रोदसी) द्यौ, पृथिवी (च) और (अन्तरिक्षम्) आकाश में (आपप्रिवान्) हर ओर व्याप्त (असि) हो। (तम्) उस [परमेश्वर की] (वयम्) हम सब (सर्वे) उपासना करें ॥८॥
संस्कृत भाग
यान् । रा॒ये । म॒र्ता॑न् । सुसू॑दः । अ॒ग्ने॒ । ते । स्या॒म॒ । म॒घऽवा॑नः । व॒यम् । च॒ । छा॒याऽइ॑व । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सि॒स॒क्षि॒ । आ॒प॒प्रि॒ऽवान् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥ विषयः- अथैतत्सृष्टिकर्त्तेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भिरीश्वरोपासनापुरुषार्थाभ्यां स्वयं विद्यादिधनवन्तो भूत्वा सर्वे मनुष्या विद्यादिधनवन्तः कार्याः ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी ईश्वराची उपासना व आपल्या पुरुषार्थाने स्वतः विद्या इत्यादी धन प्राप्त करून सर्व माणसांनाही तसेच बनवावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, the mortals whom you inspire and guide for the achievement of wealth, may they all and we all be blest with wealth and honour and the favours of Divinity. Lord omnipresent, pervading the earth, the skies and the heavens, the entire universe abides with you inseparably since you are one with it as body is with the shadow and you shelter them all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God the Creator of the world is taught in the eight Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! May we mortals whom Thou hast directed for well as (spiritual as acquisition of wealth material) be full of such wealth or opulent. Thou pervadest the earth, heaven and firmament and protectest it like a sheltering shade. This whole universe is attached to Thee as Thou art Omnipresent.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सिसक्षि) समवैति = Is united with or is attached to.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should themselves be full of the wealth of knowledge and wisdom etc. by the communion with God and industriousness and then should make others possessed of such wealth of knowledge etc.
Translator's Notes
सुषूदः षूद-प्रेरणे लेट् सिसक्षि षच समवाये शचः श्लुः
Subject of the mantra
Then, how is the Creator of world God?This topic is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) =God, (yaḥ) =those, (tvam) =you, (yān)= of excellent knowledge and nature, (susūdaḥ)= having a perishable body, (marttān) =to humans, (asmān) =to us, (rāye) =for wealth, (sisakṣi) =accumulates, (te) =your, (vayam) =we hard working people, (maghavānaḥ) =rich with wealth, (syāma) =be, (yaḥ) =that, (bhavān) =you, (chāyeva) =the body is like its shadow, [vaise]=in the same way, (viśvam) =whole, (bhuvanam) =world, (rodasī) =space, earth, (ca)= and, (antarikṣam)=in sky, (āpaprivān) =pervaded everywhere, (asi) ho=are, (tam) =that, [parameśvara kī]=of God, (vayam) =all of us, (sarve) =should worship.
English Translation (K.K.V.)
O God! Who, you, a man of excellent knowledge and nature, endowed with a perishable body, accumulates us for wealth. May we your hardworking people be blessed with excellent wealth. You, along with the body, like its shadow, should be pervaded everywhere in the entire world i.e. space, earth and sky. Let us all worship that God.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Scholars should become learned and wealthy by worshiping God and by their own efforts and make all human beings learned and wealthy.
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