ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
ऋषिः - पराशरः शाक्तः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि पृक्षो॑ अग्ने म॒घवा॑नो अश्यु॒र्वि सू॒रयो॒ दद॑तो॒ विश्व॒मायुः॑। स॒नेम॒ वाजं॑ समि॒थेष्व॒र्यो भा॒गं दे॒वेषु॒ श्रव॑से॒ दधा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । पृक्षः॑ । अ॒ग्ने॒ । म॒घऽवा॑नः । अश्युः॑ । वि । सू॒रयः॑ । दद॑तः । विश्व॑म् । आयुः॑ । स॒नेम॑ । वाज॑म् । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । अ॒र्यः । भा॒गम् । दे॒वेषु॑ । श्रव॑से । दधा॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि पृक्षो अग्ने मघवानो अश्युर्वि सूरयो ददतो विश्वमायुः। सनेम वाजं समिथेष्वर्यो भागं देवेषु श्रवसे दधानाः ॥
स्वर रहित पद पाठवि। पृक्षः। अग्ने। मघऽवानः। अश्युः। वि। सूरयः। ददतः। विश्वम्। आयुः। सनेम। वाजम्। सम्ऽइथेषु। अर्यः। भागम्। देवेषु। श्रवसे। दधानाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्कृपासङ्गाभ्यां सह मनुष्यैः किं किं प्राप्यत इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यथाऽर्यो भागं मघवानो ददतः सूरयः समिथेषु देवेषु वाजं दधानाः श्रवसे पृक्षो विश्वमायुश्च व्यश्युस्तथा वयमपि विसनेम ॥ ५ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषे (पृक्षः) अत्युत्तमान्यन्नानि (अग्ने) सुखरूप विद्वन् (मघवानः) सत्कृतधनाः (अश्युः) भुञ्जते (वि) विशेषार्थे (सूरयः) मेधाविनः (ददतः) दानशीलाः (विश्वम्) अखिलम् (आयुः) जीवनं प्राप्तव्यं वस्तु वा (सनेम) संभजेम (वाजम्) विज्ञानम् (समिथेषु) संग्रामेषु। समिथे इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (अर्य्यः) स्वामी वणिग्जनो वा। (भागम्) भागसमूहम् (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा (श्रवसे) श्रूयते येन यशसा तस्मै (दधानाः) धरन्तः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरविद्वत्सहायपुरुषार्थाभ्यां सर्वाणि सुखानि प्राप्यन्ते नान्यथेति ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर और विद्वानों के सङ्ग से मनुष्यों को क्या-क्या प्राप्त होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) सुखस्वरूप विद्वन् ! आपके उपदेश से जैसे (अर्य्यः) स्वामी वा वैश्य (भागम्) सेवनीय पदार्थों के समान (मघवानः) सत्कारयुक्त धनवाले (ददतः) दानशील (सूरयः) मेधावी लोग (समिथेषु) संग्रामों तथा (देवेषु) विद्वान् वा दिव्यगुणों में (वाजम्) विज्ञान को (दधानाः) धारण करते हुए (श्रवसे) श्रवण करने योग्य कीर्ति के लिये (पृक्षः) अत्युत्तम अन्न और (विश्वम्) सब (आयुः) जीवन को (व्यश्युः) विशेष करके भोगें वा (वि सनेम) विशेष करके सेवन करें, वैसे हम भी किया करें ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य ईश्वर और विद्वानों के सहाय और अपने पुरुषार्थ से सब सुखों को प्राप्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं ॥ ५ ॥
विषय
यज्ञ व उत्तम अन्न
पदार्थ
१. (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! उन्नतिपथ पर ले - चलनेवाले प्रभो ! (मघवानः) = [मघः = ऐश्वर्य, मघ = मख] अपने ऐश्वर्यों का यज्ञ में विनियोग करनेवाले लोग (पृक्षः) = उत्तम अन्नों को (वि अश्युः) = विशेष रूप से प्राप्त करते हैं । यज्ञशील राष्ट्र में उत्तम अन्नों की ही उत्पत्ति होती है । २. (ददतः सूरयः) = दानशील ज्ञानी लोग (विश्वं आयुः) = पूर्ण जीवन को (वि) = [अश्युः] विशेष रूप से प्राप्त करते हैं । दान से धन बढ़ता ही है, दान से धन में किसी प्रकार की कमी नहीं आती । ज्ञानी लोग इस तत्त्व को समझते हुए दानशील होते हैं । यह दानशीलता उनके जीवनों को पवित्र बनाये रखती है । पवित्रता जीवन की दीर्घता का कारण बनती है । ३. (समिथेषु) = संग्रामों में - काम - क्रोधादि के साथ चलनेवाले युद्धों में (अर्यः) = [ऋ गतौ] उस सर्वत्र प्राप्त प्रभु की (वाजम्) = शक्ति को (सनेम) = हम प्राप्त करें । प्रभु की शक्ति से ही तो हम इन शत्रुओं को पराजित कर सकेंगे । ४. हम (देवेषु) = विद्वानों में (श्रवसे) = ज्ञानप्राप्ति के लिए (भागम्) = [भज सेवायाम्] सेवा व उपासना को (दधानाः) = धारण करनेवाले हों । विद्वानों की सेवा से हमारा ज्ञान बढ़ेगा - “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया” । यह ज्ञान ही हमें कामादि शत्रुओं को दग्ध करने की शक्ति देगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हम यज्ञशील बनकर उत्तम अन्नों को प्राप्त करें, दानशील ज्ञानी बनकर पूर्ण जीवन को प्राप्त करें । अध्यात्म - संग्रामों में प्रभु से शक्ति प्राप्त करके विजयी बनें । विद्वत्संग से ज्ञान को बढ़ाएँ ।
विषय
धनाढ्यों और ज्ञानवृद्धों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् परमेश्वर ! अग्रणी राजन् ! ( मघवानः ) धनाढ्य लोग ( ददतः ) दान करते हुए ही ( वृक्षः ) खूब जलादि से परिसेचित और परिवर्धित और शरीर में बल और वीर्य के देने वाले अन्नों को और ( विश्वम् आयुः ) समस्त आयु को ( वि अश्युः ) विविध प्रकारों से भोग करें । और ( सूरयः ) सूर्य किरणों के समान ज्ञानवान्, विद्वान् जन (पृक्षः) स्नेह, सुख को सेचन करनेवाले ज्ञानों का ( ददतः ) ज्ञान प्रदान करते हुए ही (विश्वम् आयुः वि अश्युः) पूर्ण आयुका विशेष रूप से भोग करें। और (समिथेषु) ज्ञान प्राप्ति के निमित्त एकत्र होने के अवसरों पर (अर्यः) स्वामी या ज्ञानी के ( भागं वाजं ) सेवने योग्य ज्ञान को प्राप्त करें । और ( समिथेषु ) संग्रामों में ( अर्यः भागं वाजं ) शत्रुगण के भोग योग्य ऐश्वर्यो को ( देवेषु ) विद्वानों और वीर पुरुषों में (श्रवसे) उनके यश के लिए पारितोषिक रूप में ( भागं ) उनके भाग को ( दधानाः ) प्रदान करते हुए ( सनेम ) हम प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- परमेश्वर और विद्वानों के सङ्ग से मनुष्यों को क्या-क्या प्राप्त होता है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यथा अर्यः भागं मघवानः ददतः सूरयः समिथेषु देवेषु वाजं दधानाः श्रवसे पृक्षः विश्वम् आयुः च वि अश्युः तथा वयम् अपि वि सनेम॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) सुखरूप विद्वन्= सुखरूप विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (अर्य्यः) स्वामी वणिग्जनो वा= स्वामी या व्यापारी, (भागम्) भागसमूहम्=किसी समूह के भाग को, (मघवानः) सत्कृतधनाः=सुकर्मों से प्राप्त धनों का, (ददतः) दानशीलाः=दानी, (सूरयः) मेधाविनः=मेधावी और, (समिथेषु) संग्रामेषु=संग्राम में, (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा=विद्वानों में या दिव्य गुणों में, (वाजम्) विज्ञानम्=विशेष ज्ञान को, (दधानाः) धरन्तः=धारण करते हुए, (श्रवसे) श्रूयते येन यशसा तस्मै=जिस यश से सुना जाता है, (पृक्षः) अत्युत्तमान्यन्नानि= अत्युत्तम अन्नों से, (विश्वम्) अखिलम्=समस्त, (आयुः) जीवनं प्राप्तव्यं वस्तु वा=जीवन में प्राप्त की जाने योग्य या वस्तु को, (च)=भी, (वि) विशेषार्थे= विविध प्रकार से, (अश्युः) भुञ्जते=भोग करता है, (तथा)=वैसे ही, (वयम्)=हम, (अपि)=भी, (वि) विशेषे=विशेष रूप से, (सनेम) संभजेम=अच्छे प्रकार से भोग करें ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को ईश्वर और विद्वानों की सहायता और पुरुषार्थों से समस्त सुख प्राप्त किये जाते हैं, अन्यथा नहीं ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) सुखरूप विद्वान् ! (यथा) जैसे (अर्य्यः) स्वामी या व्यापारी (भागम्) किसी समूह के भाग का और (मघवानः) सुकर्मों से प्राप्त धनों का (ददतः) दानी, (सूरयः) मेधावी और (समिथेषु) संग्राम में, (देवेषु) विद्वानों में या दिव्य गुणों में, (वाजम्) विशेष ज्ञान को (दधानाः) धारण करते हुए, (श्रवसे) जिस यश से सुना जाता है और (पृक्षः) अत्युत्तम अन्नों से (विश्वम्) समस्त (आयुः) प्राप्त किये जाने योग्य जीवन या वस्तु का (च) भी (वि) विविध प्रकार से (अश्युः) भोग करता है, (तथा) वैसे ही (वयम्) हम (अपि) भी (वि) विशेष रूप से (सनेम) अच्छे प्रकार से भोग करें ॥५॥
संस्कृत भाग
वि । पृक्षः॑ । अ॒ग्ने॒ । म॒घऽवा॑नः । अश्युः॑ । वि । सू॒रयः॑ । दद॑तः । विश्व॑म् । आयुः॑ । स॒नेम॑ । वाज॑म् । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । अ॒र्यः । भा॒गम् । दे॒वेषु॑ । श्रव॑से । दधा॑नाः ॥ विषयः- तत्कृपासङ्गाभ्यां सह मनुष्यैः किं किं प्राप्यत इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरविद्वत्सहायपुरुषार्थाभ्यां सर्वाणि सुखानि प्राप्यन्ते नान्यथेति ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे ईश्वर व विद्वानांच्या साह्याने व आपल्या पुरुषार्थाने सर्व सुख प्राप्त करू शकतात अन्यथा नाही. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and life, may the men of wealth and power be blest with abundance of food and energy. May the brilliant men of knowledge, generous teachers, be blest with long and full age and good health. May the people engaged in economic endeavour win science and success in their battles of the people, playing their part among the brilliancies of the nation for the sake of honour and fame.
Subject of the mantra
What human beings gain from the company of God and scholars? This has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)=having a delightful appearance scholar, (yathā) =like, (aryyaḥ)= lord or a merchant, (bhāgam)=part of a group and, (maghavānaḥ)=of the wealth obtained through good deeds, (dadataḥ)= munificent, (sūrayaḥ)=intelligent and, (samitheṣu) =in battle, (deveṣu)=In scholars or in divine qualities, (vājam)=special knowledge, (dadhānāḥ)=possessing, (śravase)= the fame with which one is heard and, (pṛkṣaḥ)=with the best grains, (viśvam) =all, (āyuḥ)= life or thing worth getting, (ca) =also, (vi) =variously, (aśyuḥ)= enjoys, (tathā) =similarly, (vayam) =we, (api) =also, (vi) =specially, (sanema)= enjoy them in a good manner.
English Translation (K.K.V.)
O having a delightful appearance scholar! Like a lord or a merchant, a part of a group and a munificent of wealth obtained through good deeds, intelligent and skilled in battle, learned or in divine qualities, possessing special knowledge, with the fame by which he is heard and the ability to obtain everything from the best grains. A worthy person also enjoys life or things in various ways, in the same way we too should specially enjoy them in a good manner.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. All happiness is achieved by human beings with the help and efforts of God and scholars, not otherwise
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