ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
ऋषिः - पराशरः शाक्तः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वो न यः स॑वि॒ता स॒त्यम॑न्मा॒ क्रत्वा॑ नि॒पाति॑ वृ॒जना॑नि॒ विश्वा॑। पु॒रु॒प्र॒श॒स्तो अ॒मति॒र्न स॒त्य आ॒त्मेव॒ शेवो॑ दिधि॒षाय्यो॑ भूत् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः । न । यः । स॒वि॒ता । स॒त्यऽम॑न्मा । क्रत्वा॑ । नि॒ऽपाति॑ । वृ॒जना॑नि । विश्वा॑ । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तः । अ॒मतिः॑ । न । स॒त्यः । आ॒त्माऽइ॑व । शेवः॑ । दि॒धि॒षाय्यः॑ । भू॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो न यः सविता सत्यमन्मा क्रत्वा निपाति वृजनानि विश्वा। पुरुप्रशस्तो अमतिर्न सत्य आत्मेव शेवो दिधिषाय्यो भूत् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। न। यः। सविता। सत्यऽमन्मा। क्रत्वा। निऽपाति। वृजनानि। विश्वा। पुरुऽप्रशस्तः। अमतिः। न। सत्यः। आत्माऽइव। शेवः। दिधिषाय्यः। भूत् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वान् कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यः सविता देवो न सत्यमन्मा क्रत्वा विश्वा वृजनानि पाति पुरुप्रशस्तोऽमतिर्न सत्यो दिधिषाय्य आत्मेव शेवो भूत्तं सेवित्वा विद्योन्नतिं कुरुत ॥ २ ॥
पदार्थः
(देवः) दिव्यगुणः (न) इव (यः) पूर्णविद्यः (सविता) सूर्य्यः (सत्यमन्मा) यः सत्यं मन्यते विजानाति विज्ञापयति सः (क्रत्वा) कर्मणा (निपाति) नित्यं रक्षति (वृजनानि) बलानि। वृजनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (विश्वा) सर्वाणि (पुरुप्रशस्तः) बहुषु श्रेष्ठतमः (अमतिः) सुन्दरस्वरूपः (दिधिषाय्यः) धारकः पोषकः। दधातेर्द्वित्वमित्वं षुक् च। (उणा०३.९५) अनेनायं सिद्धः। (भूत्) वर्त्तते ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। नैव मनुष्यैः विद्वत्सङ्गेन विना सत्यविद्याबले सुखसौन्दर्य्याणि प्राप्तुं शक्यन्ते तस्मादेते नित्यं सेवनीयाः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (यः) जो (सविता) सूर्य (देवः) दिव्य गुण के (न) समान (सत्यमन्मा) सत्य को जानने वा जनानेवाला विद्वान् (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म से (विश्वा) सब (वृजनानि) बलों की (निपाति) रक्षा करता है (पुरुप्रशस्तः) बहुतों में अति श्रेष्ठ (अमतिः) उत्तम स्वरूप के (न) समान (सत्यः) अविनाशिस्वरूप (दिधिषाय्यः) धारण वा पोषण करनेवाले (आत्मेव) आत्मा के समान (शेवः) सुखस्वरूप अध्यापक वा उपदेष्टा (भूत्) है, उसका सेवन करके विद्या की उन्नति करो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य विद्वानों के सत्संग से सत्यविद्या, बल, सुख और सौन्दर्य आदि के प्राप्त होने को समर्थ हो सकते हैं, इससे इन दोनों का सेवन निरन्तर करें ॥ २ ॥
विषय
सत्यमन्मा प्रभु
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = सूर्य की भाँति (सत्यमन्मा) = सत्यज्ञानवाले हैं । सूर्य का प्रकाश जैसे अन्धकार को निवृत्त करके वस्तु के स्वरूप को ठीक - ठीक दिखलाता है, उसी प्रकार हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा हमें सत्यमार्ग का दर्शन कराती है । २. वे प्रभु (क्रत्वा) = हृदयस्थरूपेण दिये गये ज्ञान के द्वारा (विश्वा) = सब (वृजनानि) = [वृजनं - बलनाम, नि० २/९] बलों को (निपाति) = निश्चय से हममें सुरक्षित करते हैं । ज्ञान के द्वारा सत्य मार्ग पर आक्रमण से हम पापाचार से दूर रहते हुए अपनी शक्तियों का रक्षण कर पाते हैं । ३. (अमतिः न) = सुन्दर स्वरूपवाला होने के समान (सत्यः) = वे सत्य हैं । प्रभु जैसे सुन्दर हैं, वैसे सत्य भी हैं । वास्तविकता तो यह है कि सत्य ही सुन्दर होता हैं । वे प्रभु (पुरुप्रशस्तः) = अत्यन्त प्रशंसनीय हैं । ४. (आत्मा इव शेवः) = आत्मा की भाँति वे सुख देनेवाले हैं । जिस प्रकार मैं अथवा आत्मा मधुरतम वस्तु हैं, इसीप्रकार प्रभु मनुष्य के लिए अत्यन्त आनन्द देनेवाले हैं । इसी कारण वे प्रभु (दिधिषाय्यः) = [धारणीयः] धारण के योग्य (भूत्) = होते हैं । जो भी प्रभु का धारण करेगा वह अत्यन्त आनन्दमय स्थिति में होगा ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु सत्य ज्ञानवाले हैं, हमारे बलों का रक्षण करते हैं, अत्यन्त आनन्द देनेवाले हैं, अतएव धारणीय हैं ।
विषय
उसके सूर्य के समान कर्तव्य
भावार्थ
( यः ) जो ( सविता ) सबका आज्ञापक ( देवः न ) सूर्य के समान सत्य अर्थ का प्रकाशक ( सत्यमन्मा ) सत्य, यथार्थ ज्ञान का दाता और सर्व सज्जनों का हितचिन्तक होकर ( क्रत्वा ) अपने कर्म और ज्ञान द्वारा ( विश्वा ) समस्त ( वृजनानि ) शत्रु और बाधक विघ्नों के वर्जन करने में समर्थ सैन्य बलों को ( निपाति ) सब प्रकार से सुखी रखता है वह राजा और विद्वान् पुरुष ही ( पुरु प्रशस्तः ) बहुत-सी प्रजा द्वारा प्रशंसा योग्य ( अमतिः न) सुन्दर तेजस्वी, रूपवान् दीपक आदि के समान (सत्यः) यथार्थ तत्व का दर्शानेवाला और ( आत्मा इव ) आत्मा के समान ( शेवः ) सुखप्रद, एवं सेवा योग्य और ( दिधिषाय्यः ) राष्ट्र समस्त अंगों और प्रजाओं को धारण पोषण करने में समर्थ (भूत) हो । परमेश्वर के पक्ष में—प्रभु ( सविता) सर्वोत्पादक सत्यज्ञानवान् होकर समस्त अन्धकारों को दूर करने वाले ज्ञानों और सूर्यादि लोकों की रक्षा करता है वह (अमतिः) अति स्तुत्य, तेजो रूप के समान सत्य अथवा(अंमतिः) अचिन्त्य, अपने आत्मा के समान सदा सेवनयोग्य, सुखप्रद होकर हृदय में धारण करने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः सविता देवः न सत्यमन्मा क्रत्वा विश्वा वृजनानि निपाति पुरुप्रशस्तः अमतिः न सत्यः दिधिषाय्य आत्मा इव शेवः भूत् तं सेवित्वा विद्याः उन्नतिं कुरुत ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः) = मनुष्यों ! (यूयम्) =तुम सब (यः) पूर्णविद्यः= पूर्ण विद्या और (सविता) सूर्य्यः =सूर्य के (देवः) दिव्यगुणः= दिव्य गुणों के (न) इव= समान (सत्यमन्मा) यः सत्यं मन्यते विजानाति विज्ञापयति सः = सत्य के माननेवाले और का प्रचार करनेवाला (क्रत्वा) कर्मणा = कर्म से (विश्वा) सर्वाणि= समस्त (वृजनानि) बलानि= बलों से (निपाति) नित्यं रक्षति = नित्य रक्षा करता है। [वह] (पुरुप्रशस्तः) बहुषु श्रेष्ठतमः= बहुतों में श्रेष्ठ है, (अमतिः) सुन्दरस्वरूपः = सुन्द रस्वरूप के (न) = समान (सत्यः) = सत्य को (दिधिषाय्यः) धारकः पोषकः= धारण व पोषण करनेवाला है, (आत्मा) = आत्मा के (इव) =समान (शेवः) = बहुमूल्य खजाना (भूत्) वर्त्तते = है, (तम्) = उसका (सेवित्वा) = अनुसरण करके (विद्याः) = विद्या की (उन्नतिम्) = उन्नति (कुरुत) = करो ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को विद्वानों के संगति और सत्य-विद्या के बल के विना सुख और सौन्दर्य आदि प्राप्त नहीं हो सकते हैं, इसलिये इन दोनों का अनुसरण नित्य करना चाहिए ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) पूर्ण विद्या और (सविता) सूर्य के (देवः) दिव्य गुणों के (न) समान (सत्यमन्मा) सत्य के माननेवाले और का प्रचार करनेवाला (क्रत्वा) कर्म से (विश्वा) समस्त (वृजनानि) बलों से (निपाति) नित्य रक्षा करता है। [वह] (पुरुप्रशस्तः) बहुतों में श्रेष्ठ है, (अमतिः) सुन्द रस्वरूप के (न) समान (सत्यः) सत्य को (दिधिषाय्यः) धारण व पोषण करनेवाला है, (आत्मा) आत्मा के (इव) समान (शेवः) बहुमूल्य खजाना (भूत्) है, (तम्) उसका (सेवित्वा) अनुसरण करके (विद्याः) विद्या की (उन्नतिम्) उन्नति (कुरुत) करो ॥२॥
संस्कृत भाग
दे॒वः । न । यः । स॒वि॒ता । स॒त्यऽम॑न्मा । क्रत्वा॑ । नि॒ऽपाति॑ । वृ॒जना॑नि । विश्वा॑ । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तः । अ॒मतिः॑ । न । स॒त्यः । आ॒त्माऽइ॑व । शेवः॑ । दि॒धि॒षाय्यः॑ । भू॒त् ॥ विषयः- पुनर्विद्वान् कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। नैव मनुष्यैः विद्वत्सङ्गेन विना सत्यविद्याबले सुखसौन्दर्य्याणि प्राप्तुं शक्यन्ते तस्मादेते नित्यं सेवनीयाः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसे विद्वानांच्या संगतीने सत्य विद्या, बल, सुख व सौंदर्य इत्यादी प्राप्त होण्यास समर्थ होऊ शकतात. यामुळे त्यांचे सेवन निरंतर करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Protector and promoter of truth like the bright sun, he saves from sin and evil and defends and augments all the strength and powers of humanity. Highly praised and revered like light and beauty, he knows the essences of things and traverses the right paths of life. He is kind and helpful like the very soul of the community, and like the conscience of the people he wields, supports and commands the nation in every respect. Such is the ruler.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a learned man be is taught further in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should ever increase your knowledge by serving a learned person who is like the divine Sun (dispeller of all darkness of ignorance) who knows the truth and preaches it, who by his actions preserves power of all kind, (Physical, mental and spiritual) who is excellent, truthful as well charming, upholder and nourisher of all and who is like soul the source of happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सत्यमन्मा) यः सत्यं मन्यते विजानाति विज्ञापयति सः = He who knows and preaches the Truth. (अमति:) सुन्दरस्वरूपः = Charming or beautiful, (दिधिषाय्य:) धारक: पोषक:। दधातेद्वित्वमित्वं षुक् च (उणादि० ३.६५) = Upholder or nourisher.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men can not attain the power of truth and knowledge and the beauty of happiness without the association of learned persons. Therefore they must be ever served.
Translator's Notes
Even Prof. Wilson translated, the epithet used for Agni in this Mantra सत्यमन्मा as "who knows the Truth (of things) Griffith's translation is “True-minded." Is this epithet applicable to the material fire ? Rishi Dayananda is therefore right in taking the word "Agni" here not for material fire but for a learned person as सत्यमन्मा, सत्यः, दिधिषाय्य: and other epithets clearly denote. Griffith is wrong in translating the word आत्मा as breath, while Prof. Wilson has correctly translated it as soul.
Subject of the mantra
Then, what kind of that scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He =O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =of all of you, (yaḥ) =full knowledge and, (savitā) =of the Sun, (devaḥ) =of devine virtues, (na) =like, (satyamanmā) =those who believe and propagate the truth (kratvā)=by= karma, (viśvā) =all, (vṛjanāni) =by forces, (nipāti) =protects daily,[vaha]=He, (purupraśastaḥ) =is best among many, (amatiḥ) =of the beautiful form, (na) =like, (satyaḥ) =to the truth, (didhiṣāyyaḥ) =adopts and nurtures, (ātmā) =of the soul, (iva) =like, (śevaḥ)= is a precious treasure, (bhūt) =is, (tam) =his, (sevitvā) =by following, (vidyāḥ) =of knowledge, (unnatim) unnati (kuruta)=make progress.
English Translation (K.K.V.)
O humans! He constantly protects you from all forces due to your complete knowledge and action of believing and propagating the truth which has the divine qualities of the Sun. He is the best among many, he is the one who holds and nurtures the truth like a beautiful form, he is a precious treasure like the soul, follow him and progress in learning.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Happiness and beauty etc. cannot be attained by human beings without the strength of association of scholars and truthful-knowledge, hence these two should be followed daily.
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