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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तं त्वा॒ नरो॒ दम॒ आ नित्य॑मि॒द्धमग्ने॒ सच॑न्त क्षि॒तिषु॑ ध्रु॒वासु॑। अधि॑ द्यु॒म्नं नि द॑धु॒र्भूर्य॑स्मि॒न्भवा॑ वि॒श्वायु॑र्ध॒रुणो॑ रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्वा॒ । नरः॑ । दमे॑ । आ । नित्य॑म् । इ॒द्धम् । अ॒ग्ने॒ । सच॑न्त । क्षि॒तिषु॑ । ध्रु॒वासु॑ । अधि॑ । द्यु॒म्नम् । नि । द॒धुः॒ । भूरि॑ । अ॒स्मि॒न् । भव॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । ध॒रुणः॑ । र॒यी॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा नरो दम आ नित्यमिद्धमग्ने सचन्त क्षितिषु ध्रुवासु। अधि द्युम्नं नि दधुर्भूर्यस्मिन्भवा विश्वायुर्धरुणो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। त्वा। नरः। दमे। आ। नित्यम्। इद्धम्। अग्ने। सचन्त। क्षितिषु। ध्रुवासु। अधि। द्युम्नम्। नि। दधुः। भूरि। अस्मिन्। भव। विश्वऽआयुः। धरुणः। रयीणाम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ! रयीणां धरुणो विश्वायुस्त्वमस्मिन् सहायकारी भव भूरि द्युम्नं धेहि तं नित्यमिद्धं त्वा ध्रुवासु क्षितिषु ये नरोऽधिनिदधुर्दमे आसचन्त ताँस्त्वं सततं सेवस्व ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (तम्) एवंभूतम् (त्वा) त्वां धार्मिकं विद्वांसम् (नरः) ये विद्यां नयन्ति ते सर्वे मनुष्याः (दमे) दुःखोपशान्ते गृहे (आ) समन्तात् (नित्यम्) निरन्तरम् (इद्धम्) प्रदीप्तम् (अग्ने) विज्ञापक (सचन्त) सेवन्ताम् (क्षितिषु) पृथिवीषु। क्षितिरिति पृथिवीनाम। (निघं०१.१) (ध्रुवासु) दृढासु (अधि) उपरिभावे (द्युम्नम्) विद्याप्रकाशं यशोधनं वा (नि) नितराम् (दधुः) धरन्तु (भूरि) बहु (अस्मिन्) मनुष्यजन्मनि जगति वा (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (विश्वायुः) अखिलं जीवनं यस्य सः (धरुणः) धर्त्ता (रयीणाम्) विद्यासार्वभौमराज्यनिष्पन्नधनानाम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं येन जगदीश्वरेणेह संसारेऽनेके पदार्था रचिता विदुषा वा ज्ञायन्ते तद्विज्ञानोपासनासङ्गेन सत्यं सुखं जायत इति विजानीत ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विज्ञान करानेवाले विद्वान् ! (रयीणाम्) विद्या और सब पृथिवी के राज्य से सिद्ध किये हुए धनों के (धरुणः) धारण करनेवाले (विश्वायुः) सम्पूर्ण जीवनयुक्त आप (अस्मिन्) इस मनुष्य वा जगत् में सहायकारी (भव) हूजिये, जो (भूरि) बहुत (द्युम्नम्) विद्याप्रकाशरूपी धन और कीर्ति को धारण करते हो (तम्) उन (नित्यम्) निरन्तर (इद्धम्) प्रदीप्त (त्वा) आपको (ध्रुवासु) दृढ़ (क्षितिषु) भूमियों में जो (नरः) नयन करनेवाले सब मनुष्य (अधि निदधुः) धारण करें और (दमे) शान्तियुक्त घर में (आ सचन्त) सेवन करें, उनका सेवन नित्य किया करो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जिस जगदीश्वर ने अनेक पदार्थों को रच कर धारण किये हैं और जिस विद्वान् ने जाने हैं, उसकी उपासना वा सत्संग के विना किसी मनुष्य को सुख नहीं होता, ऐसा जानो ॥ ४ ॥

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    विषय

    ज्योतिर्मय जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (तं त्वा) = उन आपको (नरः) = उन्नति - पथ पर चलनेवाले लोग (ध्रुवासु क्षितिषु) = उपद्रवरहित ग्रामों में (दमे) = अपने - अपने घरों में (आ सचन्त) = सदा उपासित करते हैं । उस प्रभु को उपासित करते हैं जोकि (नित्यं इद्धम्) = सदा प्रदीप्त हैं । वस्तुतः सदा दीप्त प्रभु के उपासन से ही वे अपने जीवन को दीप्तिमय बना पाते हैं । राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह प्रजाओं के लिए देश को शत्रुभय से अनाक्रान्त रक्खे [क्षितिषु ध्रुवासु] और प्रजाओं का यह कर्तव्य है कि वे इन निरुपद्रव स्थानों में रहते हुए अपने घरों को दमन व संयमवाला बनाएँ [दमे] । २. जब ये नर प्रभु का उपासन करते हैं तब (अस्मिन्) = इस संयमयुक्त गृह में (भूरि द्युम्नम्) = पालन - पोषण के लिए साधनभूत ज्ञान को (अधिनिदधुः) = आधिक्येन स्थापित करते हैं । यह घर प्रकाशमय व ज्ञानमय होता है । ३. हे प्रभो ! इसप्रकार आप (विश्वायुः भव) = पूर्ण जीवन देनेवाले होते हैं और (रयीणां धरुणः) = धनों के धारण करनेवाले होते हैं । प्रभु - उपासकों के घर में ज्ञानपूर्ण जीवन व धन की स्थापना होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम शान्त वातावरण में स्थित घरों में प्रभु के उपासक बनें । हमारे घर प्रकाशमय, पूर्ण जीवनवाले व धनों के धारक हों ।

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    विषय

    ईश्वर और राजा का आश्रय ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने) ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! ( नरः ) लोग जिस प्रकार ( दमे ) अपने शासन कार्य या देहरूप गृह में (नित्यम् इद्धम् सचन्ते ) नित्य प्रज्वलित अग्नि को अन्न पाक आदि कार्यों में सेवन करते, उसको प्रयोग में लाते हैं और जिस प्रकार ( नरः ) प्राणगण ( नित्यम् ) नित्य आत्मा को ( दमे ) अपने शासन कार्य या देहरूप गृह में ( इद्धम् सचन्ते ) जीवित जागृत आत्मा का आश्रय लिए रहते हैं और जिस प्रकार (नरः) लोग (दमे) अपने गृहों में ( नित्य ) निरन्तर ( इद्धम् ) ज्ञान से दीप्त विद्वान् पुरुष की सेवा करते हैं उसी प्रकार (ध्रुवासु क्षितिषु ) इन अचल भूमियों में (नरः) नायकगण ( दमे ) दमन या शासन कार्य में नियुक्त होकर ( नित्यम् ) चिरस्थायी ( इद्धम् ) प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी राजा को (सचन्त) प्राप्त हों, उसका आश्रय लें। और ( अस्मिन् ) इस अपने राजा में या उसके अधीन, ही ( भूरि ) बहुत अधिक (द्यु म्नं ) यश, तेज और ज्ञान ( निदधुः ) प्राप्त करें । हे राजन् ! ईश्वर ! तू ( विश्वायुः ) सबको जीवन देनेवाला, सब प्रजागण का स्वामी, सबको प्रेम से प्राप्त होने वाला और ( धरुणः ) सबका धारक पालक और आश्रय होकर ( रयीणाम् ) ऐश्वर्यों का देनेहारा (भव ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने विद्वन् ! रयीणां धरुणः विश्वायुः त्वम् अस्मिन् सहायकारी भव भूरि द्युम्नं धेहि तं नित्यम् इद्धं त्वा ध्रुवासु क्षितिषु ये नरः अधि नि दधुः दमे आ सचन्त तान् त्वं सततं सेवस्व ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अग्ने) विज्ञापक= विशेष ज्ञान करानेवाले, (विद्वन्)= विद्वान् ! (रयीणाम्) विद्यासार्वभौमराज्यनिष्पन्नधनानाम्= विद्या, सार्वभौमिक राज्य के सम्पूर्ण धनों के, (धरुणः) धर्त्ता=धारण करनेवाले, (विश्वायुः) अखिलं जीवनं यस्य सः=समस्त जीवनवाले, (त्वम्)=तुम, (अस्मिन्) मनुष्यजन्मनि जगति वा=मनुष्य जन्म में या संसार में, (सहायकारी)= सहायता करनेवाले हो, (भव)=होओ। (भूरि) बहु= बहुत, (द्युम्नम्) विद्याप्रकाशं यशोधनं वा= विद्या का प्रकाश और यश व धन को, (धेहि)=धारण करो, (तम्) एवंभूतम्=ऐसे को, (नित्यम्) निरन्तरम्=निरन्तर, (इद्धम्) प्रदीप्तम्=प्रदीप्त, (त्वा) त्वां धार्मिकं विद्वांसम्=तुम धार्मिक विद्वान् को, (ध्रुवासु) दृढासु=दृढ, (क्षितिषु) पृथिवीषु= पृथिवी में, (ये)=जो, (नरः) ये विद्यां नयन्ति ते सर्वे मनुष्याः=विद्या को आगे ले जानेवाले मनुष्य, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (नि) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (दधुः) धरन्तु=धारण करो, (दमे) दुःखोपशान्ते गृहे= दुःखों को शान्त करनेवाले घरों में, (आ) समन्तात् =हर ओर से, (सचन्त) सेवन्ताम्=अनुसरण करो। (तान्)=उनका, (त्वम्)=तुम, (सततम्)=निरन्तर, (सेवस्व)= अनुसरण करो ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! तुम लोग जिस जगदीश्वर ने संसार में अनेक पदार्थों को रचा है और विद्वानों के द्वारा जाने जाते हैं, उसको ज्ञान और उपासना की संगति से सत्य और सुख उत्पन्न होता है, ऐसा जानो ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विशेष ज्ञान करानेवाले (विद्वन्) विद्वान् ! (रयीणाम्) विद्या, सार्वभौमिक राज्य के सम्पूर्ण धनों को (धरुणः) धारण करनेवाले, (विश्वायुः) समस्त जीवनवाले, [अर्थात् काल से रहित], (त्वम्) तुम (अस्मिन्) मनुष्य जन्म में या संसार में (सहायकारी) सहायक (भव) होओ। (भूरि) बहुत (द्युम्नम्) विद्या का प्रकाश, यश और धन को (धेहि) धारण करो। (तम्) ऐसे (नित्यम्) निरन्तर (इद्धम्) प्रदीप्त, (त्वा) धार्मिक विद्वान् [परमेश्वर तुम को] (ध्रुवासु) दृढ (क्षितिषु) पृथिवी में, (ये) जो (नरः) विद्या को आगे ले जानेवाले मनुष्य हैं, [वे] (अधि) अपने ऊपर (नि) अच्छे प्रकार से (दधुः) धारण करें। (दमे) दुःखों को शान्त करनेवाले घरों में, (आ) हर ओर से (सचन्त) अनुसरण करें। (तान्) उनकी (त्वम्) तुम (सततम्) निरन्तर (सेवस्व) पूजा करो ॥४॥

    संस्कृत भाग

    तम् । त्वा॒ । नरः॑ । दमे॑ । आ । नित्य॑म् । इ॒द्धम् । अ॒ग्ने॒ । सच॑न्त । क्षि॒तिषु॑ । ध्रु॒वासु॑ । अधि॑ । द्यु॒म्नम् । नि । द॒धुः॒ । भूरि॑ । अ॒स्मि॒न् । भव॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । ध॒रुणः॑ । र॒यी॒णाम् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं येन जगदीश्वरेणेह संसारेऽनेके पदार्था रचिता विदुषा वा ज्ञायन्ते तद्विज्ञानोपासनासङ्गेन सत्यं सुखं जायत इति विजानीत ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराने अनेक पदार्थांना निर्माण करून धारण केलेले आहे व ज्या विद्वानांनी ते जाणलेले आहे त्याची उपासना व सत्संगाशिवाय कोणत्याही माणसाला सुख मिळत नाही, हे तुम्ही जाणा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, such as you are, people serve you, lighting you every day in the home in the land of peace and stability and winning ample knowledge and power, wealth and honour. Lord of universal energy, life of the world, be the treasure home and giver of the wealths of existence for all in this life in this world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is He (Agni) is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader! be thou the preserver of wealth in the form of knowledge, and good and vast Government and being-long lived be our helper of all happiness in this life and world. Give us much light of knowledge or wealth of good reputation. Serve those educated persons well who preserve and serve thee constantly kindled like fire in their dwelling free from miseries and in secure places.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दमे ) दुःखोपशान्ते गृहे । = In the dwelling free from misery. (द्युम्नम्) विद्याप्रकाशंयशोधनं वा = The light of knowledge or the wealth of good reputation.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should know that true happiness can be attained only by the communion with and knowledge of God who has created various objects in this world and by the association with the learned wise persons.

    Translator's Notes

    दम इति गृहनाम (निघ० ३.४ ) दमु-उपरमे इति धातोः द्युम्नम् इति धननाम (निघ० २.१० ) (द्यु म्नम् इति पदनाम (निघ० ४.२ ) पद गतौ नत्र गते स्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहरणम् दयुम्नम् द्योततेः।

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    Subject of the mantra

    Then, how should a scholar be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne) =who imparts special knowledge, (vidvan) =scholar, (rayīṇām)=vidya, all the wealth of the universal kingdom, (dharuṇaḥ) =possessing, (viśvāyuḥ) =having all lives, [arthāt kāla se rahita]= i.e. devoid of time, (tvam)=you, (asmin) in human birth or in this world, (sahāyakārī) =helpful, (bhava) =be, (bhūri)= much, (dyumnam)= the light of knowledge, fame and wealth, (dhehi) =possess, (tam) =such, (nityam) =ever, (iddham) =illuminated, (tvā) =righteous sckolar, [parameśvara tuma ko]=to God you, (dhruvāsu) =steadfast, (kṣitiṣu) =in earth, (ye) =that, (naraḥ)=the man who takes knowledge forward, [ve]=they, (adhi) =on own, (ni) =well, (dadhuḥ) =adopt, (dame)=to homes that tranquil suffering, (ā) =from all sides, (sacanta) =should follow, (tān) =their, (tvam) =you, (satatam) =continuously, (sevasva) =worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who imparts special knowledge! Who is knowledgeable, possessing all the wealth of the universal kingdom, possessing all life, i.e. devoid of time. May you be helpful in human birth or in the world. May you possess the light of much knowledge, fame and wealth. May the God, such an ever-illuminated, righteous scholar, keep you in good stead on this steadfast earth, a man who carries forward knowledge. Follow from all sides to homes that tranquil suffering. You worship him continuously.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! You people, know that truth and happiness arise from the association of knowledge and worship of the God, who has created many things in the world and is known by scholars, know such.

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