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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त ब्रु॑वन्तु ज॒न्तव॒ उद॒ग्निर्वृ॑त्र॒हाज॑नि। ध॒नं॒ज॒यो रणे॑रणे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । ज॒न्तवः॑ । उत् । अ॒ग्निः । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒ज॒नि॒ । ध॒न॒म्ऽज॒यः । रणे॑ऽरणे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि। धनंजयो रणेरणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। ब्रुवन्तु। जन्तवः। उत्। अग्निः। वृत्रऽहा। अजनि। धनम्ऽजयः। रणेऽरणे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यो रणेरणे धनञ्जयो वृत्रहेव दाशुषे गयमुदजनि। उतापि यं विद्वांस उपदिशन्ति, तं जन्तवोऽन्योन्यमुपब्रुवन्तु ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (ब्रुवन्तु) उपदिशन्तु (जन्तवः) जीवाः (उत्) उत्कृष्टे (अग्निः) विजयप्रदो भगवान् (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य इवाविद्यान्धकारनाशकः (अजनि) जनयति (धनञ्जयः) यो धनेन जापयति सः (रणेरणे) युद्धे युद्धे ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं यस्योपाश्रयेण शत्रूणां पराजयेन विजयः स्वविजयेन च राज्यधनानि जायन्ते, तं नित्यं सेवध्वम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जो (रणेरणे) युद्ध-युद्ध में (धनञ्जयः) धन से जितानेवाला (वृत्रहा) मेघ को नष्ट करनेहारे सूर्य्य के समान (अग्निः) परमेश्वर (दाशुषे) विद्या, शुभ गुणों के दान करनेवाले मनुष्य के लिये (गयम्) धन को (उदजनि) उत्पन्न करता है (उत्) और भी जिसका विद्वान् लोग उपदेश करते हैं (जन्तवः) सब मनुष्य (अध्वरम्) हिंसारहित (मन्त्रम्) उसी के विचार को (उपब्रुवन्तु) परस्पर उपदेश करें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जिसके आश्रय से शत्रुओं के पराजय द्वारा अपने विजय से राज्यधनों की प्राप्ति होती है, उस परमेश्वर का नित्य सेवन किया करो ॥ ३ ॥

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    विषय

    धनञ्जय

    पदार्थ

    १. (जन्तवः) = शरीरधारी मनुष्य (उत) = खूब ही (ब्रुवन्तु) उस प्रभु के गुणों व गुणवाचक नामों का उच्चारण करें । यह गुणों का स्मरण उन्हें उन गुणों के धारण की प्रेरणा देनेवाला होगा (उत) = और इस प्रकार धीरे - धीरे उन गुणों के अपनाते चले जाने पर वह (वृत्रहा) = ज्ञान के आवरणभूत सब मलों का - वासनाओं का नष्ट करनेवाला (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (अजनि) = उनके हृदयों में प्रकट होता है । २. इस प्रभु का प्रादुर्भाव होने पर यह स्तोता (रणरणे) = प्रत्येक संग्राम में (धनंजयः) = धनों का विजय करनेवाला बनता है । प्रभु के साथ होने पर पराजय का क्या काम ? प्रभु के साथ होने पर विजय - ही - विजय होती है, पराजय तो उनसे अलग होने पर ही होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के नामों का उच्चारण करें । प्रभु को हृदय में प्रादुर्भूत करने का प्रयत्न करें, परिणामतः प्रत्येक संग्राम में हम विजयी होंगे ।

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    विषय

    राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।

    भावार्थ

    ( उत ) और ( जन्तवः ) समस्त प्राणी (ब्रुवन्तु) उसकी स्तुति और प्रवचन करें कि ( धनंजयः ) ऐश्वर्य के विजय प्राप्त करनेवाला ( अग्निः ) ज्ञानवान् परमेश्वर और राजा ( वृत्रहा ) विघ्नों का और बढ़ते हुए शत्रुओं का नाशक होकर ( रणेरणे ) प्रत्येक युद्ध तथा प्रत्येक रमण योग्य आनन्दप्रद अवसर में (उत् अजनि) सबसे उत्तम पद पर विराजे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः रणे रणे धनञ्जयः वृत्रहा इव {अग्निः} दाशुषे गयम् उत् अजनि उत अपि यं विद्वांसः उपदिशन्ति तं जन्तवःअन्योन्यम् उप ब्रुवन्तु ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यः) =जो, (रणेरणे) युद्धे युद्धे= प्रत्येक युद्ध में, (धनञ्जयः) यो धनेन जापयति सः=धन से जितानेवाला, (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य इवाविद्यान्धकारनाशकः=बादलों का भेदन करनेवाले सूर्य के समान अविद्या के अन्धकार के नाशक के, (इव) =समान, {अग्निः} विजयप्रदो भगवान्=विजय प्रदान करनेवाले ईश्वर, (दाशुषे)= विद्यादिशुभगुणानां दात्रे= विद्या आदि शुभ गुणों के देनेवाले, (गयम्)= धनम्= धन की, (उत्) उत्कृष्टे= उत्कृष्ट रूप से, (अजनि) जनयति=उत्पन्न करता है, (उत) अपि=भी, (यम्) =जिसे, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (उपदिशन्ति)=उपदेश करते हैं, (तम्) =उन, (जन्तवः) जीवाः= जीवों को, (अन्योन्यम्) = परस्पर, (उप)=समीप से, (ब्रुवन्तु) उपदिशन्तु= उपदेश कीजिये ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! तुम जिसके अवलम्बन से शत्रुओं को पराजितकरके और अपने विजय से राज्य रूपी धनों को उत्पन्न करते हैं, उस परमेश्वर का नित्य पूजन किया करो ॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र में पद- ‘दाशुषे’ और ‘गयम्’ की अनुवृत्ति इसी सूक्त के दूसरे मन्त्र से आ रही है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (रणेरणे) प्रत्येक युद्ध में (धनञ्जयः) धन से जितानेवाला, (वृत्रहा) बादलों का भेदन करनेवाले सूर्य के समान अविद्या के अन्धकार के नाशक के (इव) समान {अग्निः} विजय प्रदान करनेवाले ईश्वर है। [वह] (दाशुषे) विद्या आदि शुभ गुणों के देनेवाले (गयम्) धन को (उत्) उत्कृष्ट रूप से (उत) भी (अजनि) उत्पन्न करता है। (यम्) जिसे (विद्वांसः) विद्वान् लोग (उपदिशन्ति) उपदेश करते हैं, (तम्) उन (जन्तवः) जीवों को (अन्योन्यम्) परस्पर (उप) समीप से (ब्रुवन्तु) उपदेश कीजिये ॥३॥

    संस्कृत भाग

    उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । ज॒न्तवः॑ । उत् । अ॒ग्निः । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒ज॒नि॒ । ध॒न॒म्ऽज॒यः । रणे॑ऽरणे ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं यस्योपाश्रयेण शत्रूणां पराजयेन विजयः स्वविजयेन च राज्यधनानि जायन्ते, तं नित्यं सेवध्वम् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्याच्या आश्रयामुळे शत्रूचा पराजय करून स्वतःला विजय प्राप्त होतो तसेच राज्य व धनाची प्राप्ती होते. त्या परमेश्वराचा तुम्ही नित्य स्वीकार करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    And let the people praise and celebrate Agni who dispels the clouds of darkness, creates and protects the wealth of the charitable yajamana, and gives us victory in the battles for wealth one after another.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is He (God) is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let us speak about God with one another who is the Dispeller of all darkness of ignorance (as the sun is of the clouds). He provides wealth to the giver of knowledge and other virtues. It is He who causes victory to His noble devotees in every fight (internal as well as external).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जन्तवः) जीवा: = Souls (अग्निः) विजयप्रदो भगवान् = God who is the Giver of victory. (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य: इव अविद्यान्धकारनाशकः = The Dispeller of the darkness of ignorance like the Sun of the clouds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should ever serve or adore God by taking shelter in whom enemies are conquered, victory is gained and prosperity of the State is acquired.

    Translator's Notes

    जन्तव इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ ) पाप्मा वै वृत्रः (शतपथ १११.५.७)

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    Subject of the mantra

    Then what kind of that God is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =Who, (raṇeraṇe)= in every war, (dhanañjayaḥ)=one who wins with money, (vṛtrahā)=Like the Sun that penetrates the clouds and destroys the darkness of nescience. (iva) =like, {agniḥ}= is the God who grants victory. [vaha]=he, (dāśuṣe)= giver of auspicious qualities like knowledge etc. (gayam) =to wealth, (ut) =excellently, (uta) =also, (ajani)=produces, (yam)=to whom, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (upadiśanti) =preach, (tam) =to those, (jantavaḥ) =living beings, (anyonyam) mutual, (upa) =by closeness, (bruvantu)= preach.

    English Translation (K.K.V.)

    Who is the God, who wins every battle with wealth, who grants victory like the Sun that pierces the clouds, and who destroys the darkness of nescience. It also produces excellent wealth which bestows auspicious qualities like knowledge etc. Whatever learned people preach, preach to those living beings close to each other.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! Daily worship that God with whose support you defeat your enemies and create wealth in the form of a kingdom through your victory.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The continuance of terms- ‘dāśuṣe’ and ‘gayam’ in this mantra is being followed from the second mantra of this hymn. The continuance of terms- ‘dāśuṣe’ and ‘gayam’ in this mantra is being followed from the second mantra of this hymn.

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