ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
यस्य॑ दू॒तो असि॒ क्षये॒ वेषि॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। द॒स्मत्कृ॒णोष्य॑ध्व॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । दू॒तः॑ । असि॑ । क्षये॑ । वेषि॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । द॒स्मत् । कृ॒णोषि॑ । अ॒ध्व॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य दूतो असि क्षये वेषि हव्यानि वीतये। दस्मत्कृणोष्यध्वरम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। दूतः। असि। क्षये। वेषि। हव्यानि। वीतये। दस्मत्। कृणोषि। अध्वरम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं यस्य वीतयेऽग्निरिव दूतोऽसि क्षये हव्यानि वेषि दस्मदध्वरं च कृणोति, तं सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(यस्य) मनुष्यस्य (दूतः) दुःखोपनाशकः (असि) (क्षये) गृहे (वेषि) प्राप्नोषि (हव्यानि) होतुमर्हाण्युत्तमगुणकर्मयुक्तानि द्रव्याणि (वीतये) विज्ञानाय (दस्मत्) दुःखोपक्षेत्तारम्। अत्र बाहुलकादौणादिको मदिक् प्रत्ययः। (कृणोषि) करोषि (अध्वरम्) अग्निहोत्रादिकमिव विद्याविज्ञानवर्द्धकं यज्ञम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येन मनुष्येण परमेश्वरवद्विद्वांसावध्यापकोपदेष्टारौ विज्ञापकौ चेष्येते, तस्य न कदाचिद् दुखं संभवति ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् ! आप (यस्य) जिस मनुष्य के (वीतये) विज्ञान के लिये अग्नि के तुल्य (दूतः) दुःखनाश करनेवाले (असि) हैं (क्षये) घर में (हव्यानि) हवन करने योग्य उत्तम द्रव्यगुणकर्मों को (वेषि) प्राप्त वा उत्पन्न करते हो (दस्मत्) दुःख नाश करनेवाले (अध्वरम्) अग्निहोत्रादि यज्ञ के समान विद्याविज्ञान को बढ़ानेवाले यज्ञ को (कृणोषि) सिद्ध करते हो, उसका सब मनुष्य सेवन करें ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस मनुष्य ने परमेश्वर के समान विद्वान् पढ़ाने और उपदेश करनेवाले की चाहना की है, उसको कभी दुःख नहीं होता ॥ ४ ॥
विषय
सुन्दर - शिव जीवन के लिए तीन बातें
पदार्थ
१. हे प्रभो ! आप (यस्य) = जिसके (क्षये) = घर में (दूतः) = ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले (असि) = होते हैं, अर्थात् जो इधर - उधर न भटकता हुआ हृदयस्थ आपके सन्देश को सुन पाता है, २. जिसे आप (वीतये) = अज्ञानान्धकार को नाश के लिए अथवा भोजन के लिए [वी = असन व खादन] (हव्यानि) = हव्य, यज्ञीय, सात्त्विक पदार्थों को (वेषि) = [वी - गति] प्राप्त कराते हैं, ३. आप उसके लिए (अध्वरम्) = उसके हिंसारहित जीवन - यज्ञ को (दस्मत्) = सब दुः खों का उपक्षय करनेवाला अथवा सर्वथा दर्शनीय (कृणोषि) = करते हैं । ४. जीवन का सौन्दर्य तीन बातों पर निर्भर करता है - [क] हम हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनें । प्रभु ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं, जो प्रभु के सन्देश को नहीं सुनता वह विनाश को प्राप्त होता है । [ख] हम भोजन में सात्त्विक पदार्थों का ही प्रयोग करें । इससे ही हमारी चित्तवृत्ति का शोधन होगा - ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’ । [ग] हम हिंसारहित कर्मों - अध्वरों के ही करनेवाले हों । ये तीन बातें हमारे जीवन को सुन्दर व दुःखशून्य बनाती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु के सन्देश को सुनें, सात्विक भोजन ग्रहण करें हिंसारहित कर्मों में प्रवृत्त हों, यही जीवन को सुन्दर व शिव बनाने का मार्ग है ।
विषय
राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।
भावार्थ
हे ज्ञानवन् ! विद्वन् ! तू ( यस्य क्षये ) जिसके घर में ( दूतः असि ) अग्नि के समान अग्रणी, मार्गदर्शक होकर ज्ञान का संदेश श्रवण करानेहारा होता है और ( हव्यानि ) उत्तम अन्नों को ( वीतये ) खाने के लिए ( वेषि ) जावे वह तू उसके लिए ( दस्मत् ) सब दुःखों के नाश करने वाले (अध्वरम्) हिंसारहित, सुखदायी ज्ञानोपदेश और यज्ञोपासन (कृणोषि ) कर । [ उत्तम विद्वानों के आतिथ्यरूप यज्ञ का वर्णन देखो अथर्व काण्ड १५ । ] ईश्वरपक्ष में—( यस्य क्षये हव्यानि वीतये दूतः असि वेषि च ) जिसके घर में या हृदय में उत्तम ज्ञानों के प्रकाश के लिए तू दुःखों का नाशक होकर रहता और प्राप्त होता है उसके (अध्वरम् दस्मत् कृणोषि ) यज्ञ और हिंसा रहित उपासना को ही सब भवबन्धनों का नाशक बना देता है। अग्नि जिसके घर में प्रकाश के लिए और चरु आदि सुगन्धित रोगनाशक पदार्थों को जलाने के लिए रोगनाशक होकर रहता और व्यापता है वह उसके इस अहिंसायुक्त उत्तम काम को ( दस्मत् ) पीड़ाओं का नाशक कर देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह मनुष्य कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् त्वं यस्य वीतये अग्निः इव दूतः असि क्षये हव्यानि वेषि दस्मत् अध्वरं च कृणोति, तं सर्वे सत् कुर्वन्तु ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (यस्य) मनुष्यस्य= जिस मनुष्य के, (वीतये) विज्ञानाय=विशेष ज्ञान के लिये, (अग्निः)= अग्नि के, (इव)=समान, (दूतः) दुःखोपनाशकः=दुःखों को समीपता से नष्ट करनेवाले, (असि)=हो। (क्षये) गृहे=घर में, (हव्यानि) होतुमर्हाण्युत्तमगुणकर्मयुक्तानि द्रव्याणि=हवन करने के योग्य उत्तम गुण और कर्मों से युक्त द्रव्यों को, (वेषि) प्राप्नोषि=प्राप्त करते हो। (दस्मत्) दुःखोपक्षेत्तारम्=दुःखों की उपेक्षा करनेवाले, (अध्वरम्) अग्निहोत्रादिकमिव विद्याविज्ञानवर्द्धकं यज्ञम्=अग्निहोत्र आदि के समान विद्या और विशेष ज्ञान को बढ़ानेवाले यज्ञ को, (च)=भी, (कृणोषि) करोषि=करते हो। (तम्)=उस यज्ञ को, (सर्वे)=सब, (सत्)=उत्तम विधि से, (कुर्वन्तु)=कीजिये ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस मनुष्य के द्वारा परमेश्वर व विद्वान् के समान विद्वान्, अध्यापक, उपदेशक और अनुदेशकों की चाह की जाती है, उसको कभी दुःख होना सम्भव नहीं होता है ॥४॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणियाँ- (१) यज्ञ- जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध-पर्यन्त जो शिल्प-व्यवहार और जो पदार्थ-विज्ञान है जो कि जगत् के उपकार के लिए किया जाता है, उसको 'यज्ञ' कहते हैं। यज्ञ मे तीन मुख्य कार्य हवन या अग्निहोत्र, संगतिकरण और दान हैं। (२)-अग्निहोत्र या हवन - अग्नि में विभिन्न देवों को प्रसन्न करने के लिये एक बेदी या कुण्ड में विभिन्न खाद्य पदार्थों और घृत आदि की आहुतियाँ मन्त्रों के उच्चारण के साथ दी जाती हैं। इस क्रिया को अग्निहोत्र या हवन कहते हैं।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (यस्य) जिस मनुष्य के (वीतये) विशेष ज्ञान के लिये (अग्निः) अग्नि के (इव) समान (दूतः) दुःखों को समीपता से नष्ट करनेवाले (असि) हो। (क्षये) घर में (हव्यानि) हवन करने के योग्य उत्तम गुण और कर्मों से युक्त द्रव्यों को (वेषि) प्राप्त करते हो। (दस्मत्) दुःखों की उपेक्षा करनेवाले, (अध्वरम्) अग्निहोत्र आदि के समान विद्या और विशेष ज्ञान को बढ़ानेवाले यज्ञ को (च) भी (कृणोषि) करते हो। (तम्) उस यज्ञ को (सर्वे) सब (सत्) उत्तम विधि से (कुर्वन्तु) कीजिये ॥४॥
संस्कृत भाग
यस्य॑ । दू॒तः॑ । असि॑ । क्षये॑ । वेषि॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । द॒स्मत् । कृ॒णोषि॑ । अ॒ध्व॒रम् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येन मनुष्येण परमेश्वरवद्विद्वांसावध्यापकोपदेष्टारौ विज्ञापकौ चेष्येते, तस्य न कदाचिद् दुखं संभवति ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या माणसाने परमेश्वराप्रमाणे विद्वानाच्या अध्यापनाची व उपदेशाची इच्छा बाळगलेली आहे त्याला कधी दुःख होत नाही. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, you are the harbinger of light. Wherever you go, you carry holy sacrificial materials into the house for the joy of the family and conduct and accomplish blissful yajna which dispels want and suffering from the home.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught further in the 4th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! Let all persons honour a man for whose knowledge you are destroyer of all miseries like fire, whom you provide with all good articles necessary in his house and whose non-violent sacrifice which is multiplier of wisdom and knowledge you make destroyer of all sufferings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दूतः) दुःखोपनाशक: = Destroyer of miseries. (हव्यानि) होतुमर्हाणि उत्तमगुरगकर्मयुक्तानि द्रव्यारिण। = Good and useful acceptable articles. (दस्मत् ) दुःखोपक्षेतारम् अत्र बाहुलकादौरगादिको मदिक् प्रत्ययः । = Destroyer of sufferings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The man never suffers who makes a teacher and a preacher, his instructors like the Omniscient God.
Translator's Notes
दु -उपतापे हु दानादनयोः आदानेच दसु -उपक्षये ।
Subject of the mantra
Then what kind of person that is? This mantra discusses this subject.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar, (tvam)=you, (yasya) =of which human,(vītaye) =for special knowledge, (agniḥ) =of fire, (iva) =like, (dūtaḥ)= destroyer of sorrows in proximity, (asi) =are, (kṣaye) =in house, (havyāni)= substances containing good qualities and deeds worthy of performing Havan, (veṣi) =obtain, (dasmat)=ignoring sorrows, (adhvaram)=Yajna which increases special knowledge like Agnihotra etc., (ca) =also, (kṛṇoṣi) =perform, (tam) =to that yajna, (sarve) =all, (sat) =in the best manner (kurvantu) =perform.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! Because of your special knowledge, you are the one who will destroy the sorrows from your proximity like fire. You get substances with good qualities and deeds which are suitable for performing yajna at home. You also perform yajna which ignores the sorrows and increases special knowledge like Agnihotra etc. Perform that yajna in the best manner.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as figurative in this mantra. It is never possible for a person to feel sad who desires teachers, preachers and instructors who are alike God and scholars.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1) Yajna - The craft practice and material science which is done for the benefit of the world, from Agnihotra to Ashwamedha, is called 'Yajna'. The three main ingredients in yajna are Havan or Agnihotra, communion of devotees and charity. (2)-Agnihotra or Havan - To propitiate various deities by offerings of various food items and ghee etc. are made in an altar or fire-pit along with the chanting of mantras. This action is called Agnihotra or Havan.
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