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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ च॒ वहा॑सि॒ ताँ इ॒ह दे॒वाँ उप॒ प्रश॑स्तये। ह॒व्या सु॑श्चन्द्र वी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । च॒ । वहा॑सि । तान् । इ॒ह । दे॒वान् । उप॑ । प्रऽश॑स्तये । ह॒व्या । सु॒ऽच॒न्द्र॒ । वी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ च वहासि ताँ इह देवाँ उप प्रशस्तये। हव्या सुश्चन्द्र वीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। च। वहासि। तान्। इह। देवान्। उप। प्रऽशस्तये। हव्या। सुऽचन्द्र। वीतये ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सुश्चन्द्राप्तविद्वँस्त्वमिह प्रशस्तये वीतये च यान् हव्या देवानुपावहासि सर्वतः प्राप्नुयास्तान् वयं प्राप्नुयाम ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (च) समुच्चये (वहासि) प्राप्नुयाः (तान्) वक्ष्यमाणान् (इह) अस्मिन् संसारे (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (उप) सामीप्ये (प्रशस्तये) प्रशंसनाय (हव्या) ग्रहीतुं योग्यान्। अत्राकारादेशः। (सुश्चन्द्र) शोभनं चन्द्रमाह्लादनं हिरण्यं वा यस्मात् तत्सम्बुद्धौ। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे। (अष्टा०६.१.१५१) इति सुडागमः। (वीतये) सर्वसुखव्याप्तये ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    यावन्मनुष्याः परमेश्वरस्याप्तविदुषोऽग्न्यादेश्च सङ्गाय विज्ञानाय प्रशंसितं पुरुषार्थं न कुर्वन्ति, तावत् किल पूर्णा विद्या प्राप्तुं न शक्नुवन्ति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (सुश्चन्द्र) अच्छे आनन्द देनेवाले विद्वान् ! आप (इह) इस संसार में (प्रशस्तये) प्रशंसा (च) और (वीतये) सुखों की प्राप्ति के लिये जिन (हव्या) ग्रहण के योग्य (देवान्) दिव्य गुणों वा विद्वानों को (उपावहासि) समीप में सब प्रकार प्राप्त हों (तान्) उन आप को हम लोग प्राप्त होवें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जब तक मनुष्य परमेश्वर के जानने के लिये धर्मात्मा विद्वान् पुरुषों से शिक्षा और अग्नि आदि पदार्थों से उपकार लेने में ठीक-ठीक पुरुषार्थ नहीं करते, तब तक पूर्ण विद्या को प्राप्त कभी नहीं हो सकते ॥ ६ ॥

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    विषय

    सात्विक भोजन से दिव्यता का विकास

    पदार्थ

    १. हे (सुश्चन्द्र) = शोभन आह्लादवाले, आनन्दधन प्रभो ! आप ही (इह) = इस हमारे जीवन में (तान् देवान्) = उन - उन दिव्यगुणों को (आवहासि) = प्राप्त कराते हैं (च) = और इस प्रकार (उपवहासि) = समीपता से प्राप्त कराते हैं कि (प्रशस्तये) = इन देवों का प्रापण हमारे जीवन की प्रशस्ति के लिए होता है । उन दिव्यगुणों से हमारा जीवन प्रशंसनीय बन जाता है । २. हमारे जीवन को दिव्यगुणों से अलंकृत करने के लिए ही आप (वीतये) = भोजन के लिए, हमारे आहार के लिए (हव्या) = हव्य पदार्थों को, सात्त्विक यज्ञीय पदार्थों को प्राप्त कराते हैं । वस्तुतः इस प्रकार सात्त्विक भोजनों के द्वारा मन को दिव्यगुणों से अलंकृत करके ही हम भी अपने जीवन को उत्तम आह्लादवाला बना पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम हव्य पदार्थों का ही सेवन करें, इस प्रकार दिव्यगुणों का अपने में विकास करें । यही जीवन को आनन्दमय बनाने का प्रकार है ।

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    विषय

    राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( सुश्चन्द्र ) उत्तम रीति से सबको आह्लादित करनेहारे ! चन्द्र के समान प्रिय, मनोहर ! उत्तम ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! विद्वन् ! राजन् ! तू ( इह ) इस लोक में राष्ट्र में या गृह पर ( तान् ) उन नाना ( देवान् ) ज्ञान के द्रष्टा और उपदेष्टा पुरुषों को ( प्रशस्तये ) उत्तम रीति से ज्ञानोपदेश करने और (हव्या) ग्रहण करनेयोग्य ज्ञानों के (वीतये) प्रकाश करने और उत्तम अन्नों के जाने के लिये ( उप आवह ) प्राप्त करा । अथवा—स्वयं ( वीतये ) सुख प्राप्ति आदि के लिए ( हव्या ) स्तुति योग्य विद्वानों को प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सुश्चन्द्र आप्त विद्वन् त्वं इह प्रशस्तये वीतये च यान् हव्या देवान् उप आ वहासि सर्वतः प्राप्नुयाःतान् वयं प्राप्नुयाम ॥६॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (सुश्चन्द्र) शोभनं चन्द्रमाह्लादनं हिरण्यं वा यस्मात् तत्सम्बुद्धौ= प्रसन्न करनेवाले शोभनीय चन्द्रमा या स्वर्ण जैसे, (आप्त)= आप्त, (विद्वन्)= विद्वान्! (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन् संसारे=इस संसार में, (प्रशस्तये) प्रशंसनाय=प्रशंसा (च) समुच्चये=और, (वीतये) सर्वसुखव्याप्तये=समस्त सुखों की प्राप्ति के लिये, (यान्)=जिन, (हव्या) ग्रहीतुं योग्यान्=ग्रहण करने योग्य, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा= विद्वानों या दिव्य गुणों को, (उप) सामीप्ये=समीपता से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वहासि) प्राप्नुयाः=प्राप्त करते हो, (तान्) वक्ष्यमाणान्=उन कहे गये [विद्वानों या दिव्य गुणों को], (वयम्)=हम, (प्राप्नुयाम)= प्राप्त करें ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जब तक मनुष्य परमेश्वर, आप्त विद्वानों और अग्नि आदि की संगति के लिये और विशेष ज्ञान के लिये प्रशंसित पुरुषार्थ नहीं करते हैं, तब तक निश्चित रूप से पूर्ण विद्या को प्राप्त नहीं कर सकते हैं॥६॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-आप्त- ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.७२.०१ में आप्त शब्द को परिभाषित किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सुश्चन्द्र) प्रसन्न करनेवाले शोभनीय चन्द्रमा या स्वर्ण जैसे (आप्त) आप्त (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (इह) इस संसार में (प्रशस्तये) प्रशंसा (च) और (वीतये) समस्त सुखों की प्राप्ति के लिये (यान्) जिन (हव्या) ग्रहण करने योग्य (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों को (उप) समीपता से (आ) हर ओर से (वहासि) प्राप्त करते हो, (तान्) उन कहे गये [विद्वानों या दिव्य गुणों को] (वयम्) हम (प्राप्नुयाम) प्राप्त करें ॥६॥

    संस्कृत भाग

    आ । च॒ । वहा॑सि । तान् । इ॒ह । दे॒वान् । उप॑ । प्रऽश॑स्तये । ह॒व्या । सु॒ऽच॒न्द्र॒ । वी॒तये॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यावन्मनुष्याः परमेश्वरस्याप्तविदुषोऽग्न्यादेश्च सङ्गाय विज्ञानाय प्रशंसितं पुरुषार्थं न कुर्वन्ति, तावत् किल पूर्णा विद्या प्राप्तुं न शक्नुवन्ति ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जोपर्यंत माणसे परमेश्वराला जाणण्यासाठी धर्मात्मा विद्वान पुरुषांकडून शिक्षण घेत नाहीत व अग्नी इत्यादी पदार्थांकडून उपकार घेण्यासाठी योग्य पुरुषार्थ करीत नाहीत तोपर्यंत पूर्ण विद्या कधीही प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light, beauty and joy, you are the power who bring in here close to us the brilliant and generous divinities worthy of invocation for their celebration and harbingers of holy gifts for the joy of the yajamana.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful learned person, thou who art giver of good delight and gold as thou approachest in this world acceptable enlightened men or divine virtues for glorification and the attainment of all foy, so we also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देवान्) विदुषः दिव्यगुणान् वा = Enlightened persons or divine virtues. (सुश्चन्द्र) शोभनं चन्द्रम् श्राह्लादनं हिरण्यं वा यस्मात् तत् सम्बुद्धौ चन्द्रमिति हिरण्यनाम (निघ०१.२) ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे (अष्टा०६. १. १५१ ) इति सुडागमः ॥ (वीतये) सर्वसुखव्याप्तये । = For the attainment of all joy.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    So long as men do not exert themselves for the communion with and knowledge of God, an absolutely truthful person and fire etc. they can not acquire knowledge.

    Translator's Notes

    विद्वांसो हि देवाः (अत० ३.७.३.१०) चदि-आह्लादे वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु।

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholar he should be? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (suścandra) =pleasing scholar, beautiful as the moon or gold, (āpta) =āpta, (vidvan) =scholar, (tvam) =you, (iha) =in this world, (praśastaye) =praise, (ca)=and, (vītaye) =to attain all the happiness, (yān)=which, (havyā) grahaṇa karane yogya (devān)=to learned or divine qualities, (upa) =by proximity, (ā) =from every side, (vahāsi) = attain, (tān) =those said, [vidvānoṃ yā divya guṇoṃ ko] )=to learned or divine qualities, (vayam) =we, (prāpnuyāma) =attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O pleasing scholar, beautiful as the moon or gold! May we attain the said scholars or divine qualities which you attain from every side by proximity to attain praise and all the happiness in this world.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Unless men makes commendable efforts for the company of God, the learned scholars, Agni, etc., and for special knowledge, they certainly cannot attain complete knowledge.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Apta- The word Apta has been defined in mantra number 01.72.01 of Rigveda.

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