ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 9
उ॒त द्यु॒मत्सु॒वीर्यं॑ बृ॒हद॑ग्ने विवाससि। दे॒वेभ्यो॑ देव दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । द्यु॒ऽमत् । सु॒ऽवीर्य॑म् । बृ॒हत् । अ॒ग्ने॒ । वि॒वा॒स॒सि॒ । दे॒वेभ्यः॑ । दे॒व॒ । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत द्युमत्सुवीर्यं बृहदग्ने विवाससि। देवेभ्यो देव दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठउत। द्युऽमत्। सुऽवीर्यम्। बृहत्। अग्ने। विवाससि। देवेभ्यः। देव। दाशुषे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे देवाऽग्ने विद्वन् ! यथा त्वं दाशुष उत देवेभ्यो द्युमद् बृहत्सु वीर्य्यं विवाससि, तथा तं वयं सदा सेवेमहि ॥ ९ ॥
पदार्थः
(उत) अपि (द्युमत्) प्रशस्तप्रकाशवत् (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु पराक्रमम् (बृहत्) महान्तम् (अग्ने) विद्युदादिस्वरूपवद्वर्त्तमान (विवाससि) परिचरसि (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (देवः) दिव्यगुणकर्म्मस्वभावयुक्त (दाशुषे) दानशीलाय कार्य्याधिपतये ॥ ९ ॥
भावार्थः
कार्य्यस्वामिनां विद्वद्भिर्भृत्यैश्च विद्यापुरुषार्थाभ्यां विदुषां सकाशान्महान्त उपकाराः संग्राह्याः ॥ ९ ॥ अत्रेश्वरविद्वद्विद्युदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (देव) दिव्य गुण, कर्म्म और स्वभाववाला (अग्ने) अग्निवत् प्रज्ञा से प्रकाशित विद्वान् ! तू (दाशुषे) देने के स्वभाववाले कार्य्यों के अध्यक्ष (उत) अथवा (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (द्युमत्) अच्छे प्रकाशवाले (बृहत्) बड़े (सुवीर्य्यम्) अच्छे पराक्रम को (विवासति) सेवन करता है, वैसे हम भी उसका सेवन करें ॥ ९ ॥
भावार्थ
जो कार्यों के स्वामी होवें, उन विद्वानों के सकाश से विद्या और पुरुषार्थ करके विद्वान् तथा भृत्यों को बड़े-बड़े उपकारों का ग्रहण करना चाहिये ॥ ९ ॥ इस सूक्त में ईश्वर विद्वान् और विद्युत् अग्नि के गुणों का वर्णन होने से पूर्वसूक्तार्थ के साथ इस सूक्त की सङ्गति है ॥
विषय
ज्योतिर्मय शक्ति
पदार्थ
१. हमारे जीवनों में “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव” - इस उपनिषद् - वाक्य के अनुसार पाँच वर्ष तक माता का स्थान है, आठ वर्ष तक पिता का, पच्चीस वर्ष तक आचार्य का, तदुपरान्त गृहस्थ में अतिथियों का । इन (देवेभ्यः) = देवताओं के लिए (दाशुषे) = अपना अर्पण करनेवालों के लिए हे (अग्ने) = अग्रणी देव - दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभो ! आप (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (उत) = और (द्युमत्) = ज्योतिर्मय (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (विवाससि) = प्राप्त कराते हैं । २. शक्ति के बिना किसी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं होती, परन्तु यह शक्ति द्युमत् = ज्योतिर्मय होनी चाहिए । ज्योति के अभाव में शक्ति उन्नति का कारण न होकर अवनति व ह्रास का कारण हो जाती है । ३. यह शक्ति प्राप्त उसी को होती है जो माता - पिता आदि देवों के प्रति अपना अर्पण करके चलता है । उनकी आज्ञा व निर्देशों में चलता हुआ व्यक्ति ही ज्योतिर्मय शक्ति को प्राप्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - माता - पितादि देवों के प्रति अपना अर्पण करने के द्वारा हम ज्योतिर्मय प्रवृद्ध शक्ति को प्राप्त करें ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के आरम्भ में कहा है कि यज्ञ व स्तवन हमारे जीवनों के आवश्यक अङ्ग होने चाहिएँ [२] । प्रभु अर्पणशील को ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं [२] । प्रभु - स्मरण करनेवाला प्रत्येक रण में विजयी होता है [३] । सुन्दर - शिव जीवन बनाने के लिए हम प्रभु के सन्देश को सुनें, सात्त्विक भोजन करें, हिंसारहित कर्मों में प्रवृत्त हों [४] । सुहव्य, सुदेव, सुबर्हिष् बनें [५] । सात्त्विक भोजन से दिव्यता का विकास होता है [६] । दुष्ट - वृत्ति का पुरुष देव के सन्देशों को नहीं सुनता [७] । प्रभु से रक्षित व्यक्ति आगे - और - आगे बढ़ता है [८] । देवार्पण करनेवाले व्यक्ति को प्रभु ज्योतिर्मय शक्ति प्राप्त कराते हैं [९] । हम हव्य पदार्थों का ही सेवन करें - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! हे (देव) द्रष्टः ! दातः ! तू (दाशुषे ) दान देने हारे या अपने को त्याग देने वाले उपासक और ( देवेभ्यः ) विद्वान् पुरुषों के हित के लिये ( बृहत् ) बहुत बड़ा ( द्युमत् ) उत्तम प्रकाश युक्त ( सुवीर्यम् ) उत्तम बल या बलवान् वीर पुरुषों से युक्त ऐश्वर्य ( विवाससि ) प्रदान कर । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे देवाः अग्ने विद्वन् ! यथा त्वं दाशुषे उत देवेभ्यः द्युमत् बृहत् सुवीर्य्यम् विवाससि, तथा तं वयं सदा सेवेमहि ॥९॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (देवाः) दिव्यगुणकर्म्मस्वभावयुक्त= दिव्य गुण कर्म और स्वभाव से युक्त, (अग्ने) विद्युदादिस्वरूपवद्वर्त्तमान= विद्युत् आदि के स्वरूप के समान वर्त्तमान, (विद्वन्)= विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (त्वम्)=तुम, (दाशुषे) दानशीलाय कार्य्याधिपतये= दान के स्वभाव के शासक लिये, (उत) अपि=भी, (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः= विद्वानों के लिये, (द्युमत्) प्रशस्तप्रकाशवत्=श्रेष्ठ प्रकाश के समान, (बृहत्) महान्तम् =बहुत, (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु पराक्रमम्=उत्तम पराक्रम से, (विवाससि) परिचरसि=सेवा करते हो, (तथा)=वैसे ही, (तम्)=उसकी, (वयम्)=हम, (सदा)= सदा, (सेवेमहि)=सेवा करें ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- कार्य के स्वामियों, विद्वानों और सेवकों के द्वारा, विद्या और पुरुषार्थ से विद्वानों का, उनकी उपस्थिति में बहुत किये गये उपकारों को संगृहीत करना चाहिये ॥९॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद इस सूक्त में ईश्वर, विद्वान् और विद्युत् अग्नि के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिए ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (देवाः) दिव्य गुण कर्म और स्वभाव से युक्त, (अग्ने) विद्युत् आदि के स्वरूप के समान वर्त्तमान (विद्वन्) विद्वान् ! (यथा) जैसे (त्वम्) तुम(देवेभ्यः) विद्वानों के लिये और (दाशुषे) दान के स्वभाव के शासक लिये (उत) भी (द्युमत्) श्रेष्ठ प्रकाश के समान (बृहत्) बहुत (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम से (विवाससि) सेवा करते हो, (तथा) वैसे ही (तम्) उसकी (वयम्) हम (सदा) सदा (सेवेमहि) सेवा करें ॥९॥
संस्कृत भाग
उ॒त । द्यु॒ऽमत् । सु॒ऽवीर्य॑म् । बृ॒हत् । अ॒ग्ने॒ । वि॒वा॒स॒सि॒ । दे॒वेभ्यः॑ । दे॒व॒ । दा॒शुषे॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- कार्य्यस्वामिनां विद्वद्भिर्भृत्यैश्च विद्यापुरुषार्थाभ्यां विदुषां सकाशान्महान्त उपकाराः संग्राह्याः ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरविद्वद्विद्युदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
कार्याधिपतीनी विद्वानांच्या साह्याने विद्या व पुरुषार्थ करून विद्वानांवर व सेवकांवर महान उपकार करावेत. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light, wealth and generosity, you are ever keen to shower upon the charitable yajamana and eminent scholars of scientific brilliance abundant gifts of valour, honour and universal excellence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught further in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, thou who art like electricity, fire etc. endowed with divine virtues, actions and temperament, as thou art desirous of bestowing upon the liberal master of the works and other educated persons brilliant great strength or vigor, so we always serve thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons and their attendants should take great beneficial acts from the masters of works. This hymn is connected with the previous hymn as it deals with God, learned persons, electricity and fire. Here ends the commentary on the seventy-fourth hymn and 22nd Verga of the first Mandala of the Rigveda.
Subject of the mantra
Then, how is that scholar? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (devāḥ) = endowed with divine qualities, (agne) =present in the form of electricity etc., (vidvan) =scholar, (yathā) =like, (tvam)=you, (devebhyaḥ) =for scholars and, (dāśuṣe) =for a ruler of charitable nature, (uta) =also, (dyumat) =like the best light, (bṛhat)= great, (suvīryyam) =with great bravery, (vivāsasi) =serve, (tathā) =similarly, (tam) =his, (vayam) =we, (sadā) =always, (sevemahi) =serve.
English Translation (K.K.V.)
O present scholar, endowed with divine qualities, action and nature, similar to the form of electricity etc.! Just as you serve the scholars and the rulers of charitable nature with great bravery like the best light, in the same way let us always serve him.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By the masters of the work, the scholars and the servants, through the knowledge and efforts, many favors done in their presence should be stored up. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- By description of the qualities of God, scholar and electric fire in this hymn, it should be known that the interpretation this hymn is consistent with the interpretation of the previous hymn.
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