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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    न योरु॑प॒ब्दिरश्व्यः॑ शृ॒ण्वे रथ॑स्य॒ कच्च॒न। यद॑ग्ने॒ यासि॑ दू॒त्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । योः । उ॒प॒ब्दिः । अश्व्यः॑ । शृ॒ण्वे । रथ॑स्य । कत् । च॒न । यत् । अ॒ग्ने॒ । यासि॑ । दू॒त्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न योरुपब्दिरश्व्यः शृण्वे रथस्य कच्चन। यदग्ने यासि दूत्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। योः। उपब्दिः। अश्व्यः। शृण्वे। रथस्य। कत्। चन। यत्। अग्ने। यासि। दूत्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथोपब्दिरश्व्यस्त्वं यद्यस्य यो रथस्य मध्ये स्थितः सन् दूत्यं यासि, तस्य समीपेऽन्यान् शब्दानहं कच्चन न शृण्वे तथाहं यामि त्वमपि मा शृणु ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (योः) गच्छतो गमयितुः। अत्र या प्रापण इत्यत्माद्धातोर्बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः। (उपब्दिः) महाशब्दकर्त्ता। उपब्दिरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अश्व्यः) अश्वेष्वाशु गच्छत्सु साधुरत्यन्तवेगकारी (शृण्वे) (रथस्य) विमानादियानसमूहस्य (कत्) कदा (चन) अपि (यत्) यस्य (अग्ने) अग्निवद्विद्यया प्रकाशमान (यासि) (दूत्यम्) दूत्यम् कर्म ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नैव मनुष्यैः शिल्पविद्यया संसाधितेषु यानयन्त्रादिषु सम्प्रयुक्तस्यातीव गमयितुरग्नेः समीपेऽन्ये शब्दाः श्रोतुं शक्यन्ते ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्या से प्रकाशित विद्वान् ! आप जैसे (उपब्दि) अत्यन्त शब्द करने (अश्व्यः) शीघ्र चलनेवाले यानों में अत्यन्त वेगकारक (यत्) जिस अग्नियुक्त और (योः) चलने-चलानेवाले (रथस्य) विमानादि यानसमूह के बीच स्थिर होके (दूत्यम्) दूत के तुल्य अपने कर्म को (यासि) प्राप्त होते हो, मैं उस अग्नि के समीप और शब्दों को (कच्चन) कभी (न) नहीं (शृण्वे) सुनता किन्तु प्राप्त होता हूँ, तू भी नहीं सुन सकता, परन्तु प्राप्त हो सकता है ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए यान और यन्त्रादिकों में युक्त अत्यन्त गमन करानेवाले अग्नि के समीपस्थ शब्द के निकट अन्य शब्दों को नहीं सुन सकते ॥ ७ ॥

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    विषय

    दूत के शब्दों को न सुनना

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = हमें आगे - ही - आगे ले - चलनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (दूत्यं यासि) = वेदवाणी का सन्देश प्राप्त कराने के कर्म को आप स्वीकार करते हैं तब हमारा यह दौर्भाग्य है कि (रथस्य) = हमारी जीवन - यात्रा के लिए रथरूप आपका (उपब्दिः) = सुनने के योग्य शब्द जोकि (अश्व्यः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाला [अश् व्याप्तौ] व हितकर है तथा जो शब्द (योः) = [भयानां यावनम्] हमारे सब भयों को दूर करनेवाला है, वह शब्द (कश्चन) = कभी भी (न शृण्वे) = हमसे सुना नहीं जाता । इस सन्देश - वाक्य को न सुनना ही हमारे सब कष्टों का कारण हुआ करता है । आपका सन्देश - वाक्य सचमुच हमारे लिए हितकर व हमारे सभी भयों को दूर करनेवाला है । हम उसे सुनकर अपने जीवन को बड़ा सुभग बना सकते हैं, परन्तु दौर्भाग्यवश हम उसे सुनते तो नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के सन्देश को सुनें, इसी में हमारा हित है । इस सन्देश को सुनकर हम सभी भयों से ऊपर उठ पाएँगे ।

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    विषय

    राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) सर्वज्ञ प्रभो ! ( यत् ) जब तू ( दूत्यम् ) उपासना के कर्म को ( यासि ) प्राप्त होता है अर्थात् उपासना किया जाता है तब (योः) सब दुःखों के दूर करने वाले ( रथस्य ) रमण योग्य रस स्वरूप तेरा ( उपब्दिः ) अति समीप होकर प्राप्त करने योग्य अज्ञान का नाशक और भक्तों का पालक ( अश्व्यः ) भोक्ता आत्मा का हितकारी शब्द ( कच्चन ) क्या ( न शृण्वे ) नहीं सुनाई देता है ? हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! अग्रणी नायक ! ( यत् दूत्यम् यासि ) जब तू इस अर्थात् शत्रु के पीड़न कार्य पर ( उपब्दिः ) उनको प्राप्त होकर उनका छेदन भेदन करने हारा और ( अश्व्यः ) अश्वबल में कुशल होकर (यासि) प्रयाण करता है तब ( योः रथस्य ) जाते हुए रथ का ( कत् चित् ) क्या ( न शृण्वे ) शब्द नहीं सुनाई देता है ? देता ही है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यथा उपब्दिः अश्व्यः त्वं यत् यस्य योः रथस्य मध्ये स्थितः सन् दूत्यं यासि, तस्य समीपे अन्यान् शब्दान् अहं कत् चन न शृण्वे तथा अहं यामि त्वम् अपि मा शृणु ॥७॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अग्ने) अग्निवद्विद्यया प्रकाशमान= अग्नि के समान विद्या से प्रकाशमान विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (उपब्दिः) महाशब्दकर्त्ता=अत्यधिक शब्द करनेवाला, (अश्व्यः) अश्वेष्वाशु गच्छत्सु साधुरत्यन्तवेगकारी=अश्वों में उत्तम और तीव्र गति से चलनेवाले, (त्वम्)=तुम, (यत्) यस्य=जिसके, (योः) गच्छतो गमयितुः=जाने या भेजने के लिये, (रथस्य) विमानादियानसमूहस्य= विमान आदि यानों के समूह के, (मध्ये)= मध्य में, (स्थितः)= स्थित होते, (सन्)=हुए, (दूत्यम्) दूत्यम् कर्म=सन्देश वाहक के कर्म करने का, (यासि)=प्रयत्न करते हो, (तस्य)=उसके, (समीपे)= समीप, (अन्यान्)=अन्य, (शब्दान्)= शब्दों को, (अहम्)=मैं, (कत्) कदा=कभी, (चन) अपि=भी, (न) निषेधे=न, (शृण्वे)=सुनूँ, (तथा)=वैसे ही, (अहम्)=मैं, (यामि)=उनको, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (मा)=मत, (शृणु)=सुनो ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए यान और यन्त्र आदि में अच्छे प्रकार से अत्यन्त गति से गमन करानेवाले अग्नि के निकट अन्य शब्दों को नहीं सुन सकते हैं ॥७॥ (ऋग्वेद ०१.७४.०७)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्या से प्रकाशमान विद्वान् ! (यथा) जैसे (उपब्दिः) अत्यधिक शब्द करनेवाले (अश्व्यः) अश्वों में उत्तम और तीव्र गति से चलनेवाले (त्वम्) तुम, (यत्) जिसके (योः) जाने या भेजने के लिये (रथस्य) विमान आदि यानों के समूह के (मध्ये) मध्य में (स्थितः) स्थित होते (सन्) हुए (दूत्यम्) सन्देश वाहक के कर्म करने का (यासि) प्रयत्न करते हो। (तस्य) उसके (समीपे) समीप (अन्यान्) अन्य (शब्दान्) शब्दों को (अहम्) मैं (कत्) कभी (चन) भी (न) न (शृण्वे) सुनूँ। (तथा) वैसे ही (यामि) उनको (त्वम्) तुम (अपि)भी (मा) मत (शृणु) सुनो ॥७॥

    संस्कृत भाग

    न । योः । उ॒प॒ब्दिः । अश्व्यः॑ । शृ॒ण्वे । रथ॑स्य । कत् । च॒न । यत् । अ॒ग्ने॒ । यासि॑ । दू॒त्य॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नैव मनुष्यैः शिल्पविद्यया संसाधितेषु यानयन्त्रादिषु सम्प्रयुक्तस्यातीव गमयितुरग्नेः समीपेऽन्ये शब्दाः श्रोतुं शक्यन्ते ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांना शिल्पविद्येने सिद्ध केलेल्या यानात व यंत्रामध्ये अत्यंत गमनशील अग्नीजवळ इतर शब्द ऐकता येऊ शकत नाहीत. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light, power and yajnic communi cation, when you move on your mission then the tempestuous roar of your superfast chariot is not even heard.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person shining on account of thy knowledge like fire, when thou actest like a messenger, maker of good or effective sound like a swift horse, when standing near the band of the moving vehicles like the aeroplanes etc. I cannot hear any other sound. I also go near such vehicles and have the same experience.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने ) अग्निवद् विद्यया प्रकाशमान = Shining like the fire with knowledge. (उपब्दिः) महाशब्दकर्ता । उपब्दिरिति वाङ्नाम (निघ० १.११) = Maker of great good and effective sound.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men can not hear other sounds near the fire used in various machines manufactured with the technical science and moving them.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=scholar resplendent with knowledge like fire, (yathā) =like, (upabdiḥ)=noisy, (aśvyaḥ)=the best and fastest among horses, (tvam) =you, (yat) =whose, (yoḥ) =for going or sending, (rathasya)= group of aircraft etc., (madhye)= in the middle, (sthitaḥ+san) by positioning, (dūtyam)= to act as a messenger, (yāsi)= you try to act, (tasya) =it’s, (samīpe) =near, (anyān)=other, (śabdān) =woeds, (aham) =I, (kat) =ever, (cana) =also, (na) =not, (śṛṇve) =listen, (tathā) =similarly, (yāmi) =to them, (tvam) =you, (api) =also, (mā) =not, (śṛṇu) =listen.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar resplendent with knowledge like fire! Just like you, who are the best among the noisy horses and the one who moves at a fast pace, you try to act as a messenger by positioning yourself in the middle of a group of vehicles like aircraft etc. to go or send someone. I must never listen any other words near it. Similarly, don't listen to them either.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. In the vehicles and machines perfected by human beings through craftsmanship, which enable them to travel at extremely high speed, other words cannot be heard near the fire.

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