ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
असि॒ हि वी॑र॒ सेन्योऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः। असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद्वृ॒धो यज॑मानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअसि॑ । हि । वी॒र॒ । सेन्यः॑ । असि॑ । भूरि॑ । प॒रा॒ऽद॒दिः । असि॑ । द॒भ्रस्य॑ । चि॒त् । वृ॒धः । यज॑मानाय । शि॒क्ष॒सि॒ । सु॒न्व॒ते । भूरि॑ । ते॒ । वसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः। असि दभ्रस्य चिद्वृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु ॥
स्वर रहित पद पाठअसि। हि। वीर। सेन्यः। असि। भूरि। पराऽददिः। असि। दभ्रस्य। चित्। वृधः। यजमानाय। शिक्षसि। सुन्वते। भूरि। ते। वसु ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वीर सेनापते! यस्त्वं हि भूरि सेन्योऽसि पराददिरसि दभ्रस्य चिन्महतो युद्धस्यापि विजेतासि वृधो वीरान् शिक्षसि तस्मै सुन्वते यजमानाय ते तुभ्यं भूरि वस्वस्ति ॥ २ ॥
पदार्थः
(असि) (हि) खलु (वीर) शत्रूणां सेनाबलं व्याप्तुं शील (सेन्यः) सेनासु साधुस्सेनाभ्यो हितो वा (भूरि) बहु (पराददिः) पराञ्छत्रूनादाता (असि) (दभ्रस्य) ह्रस्वस्य। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं०३.२) (चित्) अपि (वृधः) ये युद्धे वर्त्तन्ते तान् (यजमानाय) अभयदात्रे (शिक्षसि) युद्धविद्यां ददासि (सुन्वते) सुखानामभिषवित्रे (भूरि) बहु (ते) तुभ्यम् (वसु) उत्तमं द्रव्यम् ॥ २ ॥
भावार्थः
यथा सेनापतिभिः सेना सदा शिक्षणीया पालनीया हर्षयितव्याऽस्ति, तथैव सेनास्थैः सेनापतयः पालनीयाः सन्तीति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे वीर सेनापते ! जो तू (हि) निश्चय करके (भूरि) बहुत (सेन्यः) सेनायुक्त (असि) है (भूरि) बहुत प्रकार से (पराददिः) शत्रुओं के बल को नष्ट कर ग्रहण करनेवाला है (दभ्रस्य) छोटे (चित्) और (महतः) बड़े युद्ध का जीतनेवाला (असि) है (वृधः) बल से बढ़ानेवाले वीरों को (शिक्षसि) शिक्षा करता है, उस (सुन्वते) विजय की प्राप्ति करनेहारे (यजमानाय) सुख देनेवाले (ते) तेरे लिये (भूरि) बहुत (वसु) धन प्राप्त हो ॥ २ ॥
भावार्थ
भृत्य लोग जैसे सेनापतियों से सेना शिक्षित, पाली और सुखी की जाती है, वैसे सेनास्थ भृत्यों से सेनापतियों का पालन और उनको आनन्दित करना योग्य है ॥ २ ॥
विषय
सेन्य व वसुमान् प्रभु
पदार्थ
हे (वीर) = [वि ईर] हमारे शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले प्रभो ! आप (हि) = निश्चय से (सेन्यः) सेनाई = अकेले ही सेना के बराबर (असि) = हैं । अर्जुन इसी विचार से महाभारत में शस्त्रास्त्र से सुसज्जित एक लाख सैन्य को न लेकर निरस्त्र कृष्ण को लेता है । २. हे प्रभो ! आप (भूरि) = खूब ही (पराददिः) शत्रुओं के धनों का आदान = हरण करनेवाले हैं । कामादि का विध्वंस करके उनकी शक्ति अपने भक्तों को प्राप्त कराते हैं । काम = क्रोधादि इनके सेवक बन जाते हैं । ३. हे प्रभो ! आप (दभ्रस्य चित्) = छोटे के भी (वृधः) बढ़ानेवाले (असि) = हैं । (यजमानाय) = शक्तिशाली पुरुष के लिए आप (शिक्षसि) - देने की कामना करते हैं । (सुन्वते) = यज्ञशील पुरुषों के लिए (ते वसु) = आपका धन (भूरि) = मात्रा में प्रचुर होता है और उनका वस्तुतः भरण = पोषण करनेवाला होता है । यज्ञशील पुरुषों के लिए यह धन उन्नति का कारण बनता है । अयज्ञीय पुरुष इस धन से अपने भोगों को बढ़ाकर उन भोगों का ही शिकार हो जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु को अपनानेवाला कभी पराजित नहीं होता और उसे कभी धन की कमी नहीं रहती ।
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( वीर ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने हारे शूर राजन् ! सेनापते ! तू (सेन्यः असि) सेनाओं में सबसे श्रेष्ठ और उनका हितकारी है, तू सेना द्वारा संग्राम कुशल ( असि ) हो । तू ( भूरि ) बहुत से उपायों से ( पराददिः ) शत्रुओं को पराजित करने हारा ( असि ) हो । ( दभ्रस्य चित् ) छोटे, अल्प बल वाले को भी तू ( वृधः भव ) बढ़ाने वाला हो। और ( सुन्वते यजमानाय ) अन्यों के लिये नाना सुख उत्पन्न करने वाले दानशील धर्मात्मा की वृद्धि के लिये तू ( ते ) अपना ( भूरि वसु ) बहुत सा ऐश्वर्य (शिक्षसि) प्रदान कर । परमात्मा के पक्ष में—‘इन’ अर्थात् स्वामी आत्मा से युक्त इन्द्रिय गणों में सर्व श्रेष्ठ होने से आत्मा ‘सेन्य’ है । स्वामी प्रभु समस्त लोकों में व्यापक होने से प्रभु ‘सेन्य’ है। बहुत देने से ‘पराददि’ है । स्वल्प जीव की अपेक्षा करने वाले या दभ्र हृदयाकाश को आनन्द सामर्थ्य से बढ़ाता है । सवन अर्थात् उपासनाशील आत्मसमर्पक जीव को वह बहुत ऐश्वर्य प्रदान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सेनापति कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे वीर सेनापते! यः त्वं हि भूरि सेन्यः असि पराददिः असि दभ्रस्य चित् महतः युद्धस्य अपि विजेता असि वृधः वीरान् शिक्षसि तस्मै सुन्वते यजमानाय ते तुभ्यं भूरि वसु अस्ति ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (वीर) शत्रूणां सेनाबलं व्याप्तुं शील=शत्रुओं की सेना के बल में व्याप्त होनेवाले स्वभाव के, (सेनापते)= सेनापति! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (हि) खलु=निश्चित रूप से, (भूरि) बहु=बहुत, (सेन्यः) सेनासु साधुस्सेनाभ्यो हितो वा=सेनाओं में उत्तम सेनाओं के हित के लिये, (असि)=हो, (पराददिः) पराञ्छत्रूनादाता=अन्य शत्रुओं कोपराजित करनेवाले, (असि)=हो, (दभ्रस्य) ह्रस्वस्य=छोटे [युद्ध के], (चित्) अपि=भी, और, (महतः)=बड़े, (युद्धस्य) = युद्ध के, (अपि)=भी, (विजेता)= विजेता, (असि)=हो। (वृधः) ये युद्धे वर्त्तन्ते तान्=जो युद्ध में उपस्थित रहते हैं, उन, (वीरान्)=वीरों को, (शिक्षसि) युद्धविद्यां ददासि= युद्ध विद्या का प्रशिक्षण देते हो, (तस्मै)=उनके लिये, (सुन्वते) सुखानामभिषवित्रे=सुखों का बलिदान करनेवाले, (यजमानाय) अभयदात्रे= अभय प्रदान करनेवाले के लिये, (ते) तुभ्यम्=तुम्हारे लिये, (भूरि) बहु=बहुत, (वसु) उत्तमं द्रव्यम्= उत्तम पदार्थ, (अस्ति)=है ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद - भृत्य लोग जैसे सेनापतियों से सेना शिक्षित, पाली और सुखी की जाती है, वैसे सेनास्थ भृत्यों से सेनापतियों का पालन और उनको आनन्दित करना योग्य है ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (वीर) शत्रुओं की सेना के बल में व्याप्त होनेवाले स्वभाव के (सेनापते) सेनापति! (यः) जो (त्वम्) तुम (हि) निश्चित रूप से (भूरि) बहुत (सेन्यः) सेनाओं में उत्तम सेनाओं के हित के लिये (असि) हो। (पराददिः) अन्य शत्रुओं को पराजित करनेवाले(असि) हो। (दभ्रस्य) छोटे [युद्ध के] (चित्) भी और (महतः) बड़े (युद्धस्य) युद्ध के (अपि) भी (विजेता) विजेता (असि) हो। (वृधः) जो युद्ध में उपस्थित रहते हैं, उन (वीरान्) वीरों को (शिक्षसि) युद्ध विद्या का प्रशिक्षण देते हो। (तस्मै) उनके लिये (सुन्वते) सुखों का बलिदान करनेवाले और (यजमानाय) अभय प्रदान करनेवाले, (ते) तुम्हारे लिये (भूरि) बहुत (वसु) उत्तम वस्तु (अस्ति) है ॥२॥
संस्कृत भाग
असि॑ । हि । वी॒र॒ । सेन्यः॑ । असि॑ । भूरि॑ । प॒रा॒ऽद॒दिः । असि॑ । द॒भ्रस्य॑ । चि॒त् । वृ॒धः । यज॑मानाय । शि॒क्ष॒सि॒ । सु॒न्व॒ते । भूरि॑ । ते॒ । वसु॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा सेनापतिभिः सेना सदा शिक्षणीया पालनीया हर्षयितव्याऽस्ति, तथैव सेनास्थैः सेनापतयः पालनीयाः सन्तीति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे सेनापतीकडून सेना प्रशिक्षित करून तिचे पालन केले जाते व ती सुखी केली जाते. तसे सेनापतीने सेनेतील लोकांचेही पालन करावे व आनंदी ठेवावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, you are the valiant hero. You are the warrior taking on many enemies and oppositions at a time. Even the small, you raise to greatness. You lead the creative and generous yajamana to knowledge and power. Hero of the battles of existence, may your wealth, power and honour grow higher and higher.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should Indra (Commander of an Army) be is taught further in the Second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave commander of the army; thou art well-wisher of the troops and subduer of all hostile forces. Thou art victor of all battles whether small or great. Thou trainest soldiers and art giver of fearlessness and happiness Thou hast abundant wealth of all kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दभ्रस्य) ह्रस्वस्य | दभ्रमिति ह्रस्वनाम (नघ०३.२) = Of the small' (यजमानाय) अभयदात्रे = for the giver of fearlessness. (सुन्वते) सुखानामभिषवित्रे = Giver of happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As it is the duty of the commanders of the armies to train, protect and gladden the men of the army, in the same way, it is the duty of the men of the armies to protect or guard the commanders of the armies.
Translator's Notes
(यजमानाय) is derived from.यज-देवपूजा-संगतिकरण दानेषु Here Rishi Dayananda has taken the third meaning of a or giving of fearlessness or safety.
Subject of the mantra
Then, what kind of commander should he be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vīra) =of the nature that prevails over the strength of the enemy's army, (senāpate) =commander, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (hi)=certainly, (bhūri)=many, (senyaḥ) =for the benefit of the best armies, (asi) =are, (parādadiḥ) =giver of other enemies, (asi)=are, (dabhrasya) =small, [yuddha ke]=of war, (cit) =also and, (mahataḥ) =big, (yuddhasya)=of war, (api) =also, (vijetā)=winner, (asi) =are, (vṛdhaḥ)=those who are present in the war, those, (vīrān)=to heroes, (śikṣasi)=give training in warfare, (tasmai) =for them, (sunvate)=those who sacrifice pleasures and (yajamānāya)=who provide fearlessness, (te) =for you, (bhūri) =very, (vasu) =good thing, (asti) =is.
English Translation (K.K.V.)
O commander of the nature that prevails over the strength of the enemy's army! Which, you are certainly for the benefit of the best armies among many armies. Be a donor to other enemies. Be the winner of small wars as well as big wars. You give training in the art of war to those heroes who are present in the war. For those who sacrifice happiness and provide fearlessness, this is a very good thing for you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as an army should always be trained, protected and is to be delighted by its commanders, similarly the commanders in the army are worthy of being protected.
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