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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒दय॑स्व । सु॒ते । सचा॑ । शव॑से । शू॒र॒ । राध॑से । वि॒द्म । हि । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । उप॑ । कामा॑न् । स॒सृ॒ज्महे॑ । अथ॑ । नः॒ । अ॒वि॒ता । भव॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मादयस्व। सुते। सचा। शवसे। शूर। राधसे। विद्म। हि। त्वा। पुरुऽवसुम्। उप। कामान्। ससृज्महे। अथ। नः। अविता। भव ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स सभेशः कीदृशः स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शूर ! वयं सुते पुरुवसुं त्वामुपाश्रित्याथ कामान् ससृज्महे हि विद्म च स त्वं नोऽविता भव सचा शवसे राधसे मादयस्व ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (मादयस्व) आनन्दं प्रापय (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति (सचा) सुखसमवेतेन युक्ताय (शवसे) बलाय (शूर) दुष्टदोषान् शत्रून् वा निवारयितः (राधसे) संसिद्धाय धनाय (विद्म) विजानीमः (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (पुरूवसुम्) बहुषु धनेषु वासयितारम् (उप) सामीप्ये (कामान्) मनोभिलषितान् (ससृज्महे) निष्पादयेम (अथ) आनन्तर्ये (नः) अस्माकमस्मान् वा (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (भव) ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां सेनापत्याश्रयेण विना शत्रुविजयः कामसमृद्धिः स्वरक्षणमुत्कृष्टे धनबले परमं सुखं च प्राप्तुं न शक्यते ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभापति कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्ट दोष और शत्रुओं का निवारण करनेहारे ! हम (सुते) इस उत्पन्न जगत् में (पुरूवसुम्) बहुतों को बसानेवाले (त्वा) आपका (उप) आश्रय करके (अथ) पश्चात् (कामान्) अपनी कामनाओं को (ससृज्महे) सिद्ध करते हैं (हि) निश्चय करके (विद्म) जानते भी हैं तू (नः) हमारा (अविता) रक्षक (भव) हो और इस जगत् में (सचा) संयुक्त (शवसे) बलकारक (राधसे) धन के लिये (मादयस्व) आनन्द कराया कर ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को सेनापति के आश्रय के विना शत्रु का विजय, काम की सिद्धि, अपना रक्षण, उत्तम धन, बल और परमसुख प्राप्त नहीं हो सकता ॥ ८ ॥

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    विषय

    शवस + राधस् [शक्ति+सफलता]

    पदार्थ

    १. हे (शूर) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! आप (सुते) = सोम - [वीर्यशक्ति] सम्पादन करने पर (सचा) = हमारे साथ होते हुए (मादयस्व) = हमें हर्षित कीजिए । जब हम वासनादि शत्रुओं का दमन करके सोमशक्ति का रक्षण करते हैं, तब हमें प्रभु का सङ्ग प्राप्त होता है । जब वासानााओं से चित्तवृत्ति हटती है, तभी यह प्रभु की ओर लगती है । 'रस' = रूप प्रभु से मेल होने पर हमारे जीवन में भी रस उत्पन्न हो जाता है । उस समय ये प्रभु (शवसे) = हमारी शक्ति और (राधसे) सफलता के लिए होते हैं । प्रभुकृपा से हमें शक्ति प्राप्त होती है और शक्ति के द्वारा हम जीवन में सफल होते हैं । हे प्रभो ! (त्वा) = आपको (हि) = ही हम (पुरूवसुम्) अनन्त धनवाला अथवा पालक व पूरक धनवाला (विद्मा) = जानते हैं । इसलिए (उप) = आपके समीप उपस्थित होकर ही (कामान् ससृज्महे) = अपनी इच्छाओं को सम्पादित करते हैं । अथ अब आप ही (नः) = हमारे (अविता) = प्रीणन करनेवाले (भव) = होओ । आपकी कृपा से हमारी इच्छाएं पूर्ण हों और हम प्रसन्नता का अनुभव करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभुकृपा से हमें शक्ति, सफलता व धन' प्राप्त होता है ।

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    विषय

    ऐश्वर्य का विभाग, राष्ट्र ऐश्वर्य का प्रजा द्वारा भोग।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शत्रुओं के नाशक राजन् ! तू ( सुते ) अभिषेक द्वारा प्राप्त, एवं ऐश्वर्यमय राष्ट्र में (शवसे राधसे ) बल और ऐश्वर्य की प्राप्ति, वृद्धि और उसके उपभोग के लिये ( मादयस्व ) तू सब को तृप्त कर, उनको भरपूर साधन दे । ( त्वा पुरुवसुम् ) नाना ऐश्वर्यों के स्वामी तुझ को ( उपविद्मा हि ) हम आश्रय लें। और ( कामान् ससृज्महे ) समस्त अभिलाषाओं को प्राप्त करें । ( अथ ) और तू ( नः ) हमरा [ अविता ] रक्षक ( भव ) हो । परमेश्वर के पक्ष में—हे दोषों के निवारक ! (सुते) इस जगत् में तू ज्ञान और बल धन से सब को तृप्त-कर । शेष पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह सभापति कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे शूर ! वयं सुते पुरुवसुं त्वाम् उप आश्रित्य अथ कामान् ससृज्महे हि विद्म च स त्वं नः अविता भव सचा शवसे राधसे मादयस्व ॥८॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (शूर) दुष्टदोषान् शत्रून् वा निवारयितः= दुष्टों या शत्रुओं के दोषों को दूर करनेवाले ! (वयम्)=हम, (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति=इस संसार के उत्पन्न होने में, (पुरूवसुम्) बहुषु धनेषु वासयितारम्=बहुत से धनों के संरक्षित करनेवाले, (त्वा) त्वाम्=तुम्हारा, (उप) सामीप्ये=निकटता से, (आश्रित्य)=सहारा लेकर, (अथ) आनन्तर्ये=इसके बाद, (कामान्) मनोभिलषितान्=मन की अभिलाषाओं को, (ससृज्महे) निष्पादयेम=पूरा करें, (हि) खलु =निश्चित रूप से ही, (विद्म) विजानीमः=जानें, (च)=और, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (नः) अस्माकमस्मान् वा =हमारी, (अविता) रक्षणादिकर्त्ता=रक्षा आदि करनेवाले, (भव)=होओ, (सचा) सुखसमवेतेन युक्ताय=सुख के साथ मिले हुए, (शवसे) बलाय=बल के लिये, (राधसे) संसिद्धाय धनाय= पूरी तरह से सिद्ध किये हुए धन के लिये, (मादयस्व) आनन्दं प्रापय=आनन्द प्राप्त करने के लिये ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों को सेनापति के आश्रय के विना शत्रु पर विजय, कामनाओं की सिद्धि, उत्कृष्ट रूप से अपनी रक्षा, धन, बल और परम सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता है॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (शूर) दुष्टों या शत्रुओं के दोषों को दूर करनेवाले ! (वयम्) हम (सुते) इस संसार के उत्पन्न होने में, (पुरूवसुम्) बहुत से धनों के संरक्षित करनेवाले (त्वा) तुम्हारा (उप) निकटता से (आश्रित्य) सहारा लेकर, (अथ) इसके बाद (कामान्) मन की अभिलाषाओं को (ससृज्महे) पूरा करें और (हि) निश्चित रूप से ही [तुम्हें] (विद्म) जानें। (च) और (सः) वह (त्वम्) तुम (सचा) सुख के साथ मिले हुए (शवसे) बल के लिये, (राधसे) पूरी तरह से सिद्ध किये हुए धन के लिये और (मादयस्व) आनन्द प्राप्त करने के लिये (नः) हमारी (अविता) रक्षा आदि करनेवाले (भव) होओ ॥८॥

    संस्कृत भाग

    मा॒दय॑स्व । सु॒ते । सचा॑ । शव॑से । शू॒र॒ । राध॑से । वि॒द्म । हि । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । उप॑ । कामा॑न् । स॒सृ॒ज्महे॑ । अथ॑ । नः॒ । अ॒वि॒ता । भव॒ ॥ विषयः- पुनः स सभेशः कीदृशः स्यादित्याह ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्याणां सेनापत्याश्रयेण विना शत्रुविजयः कामसमृद्धिः स्वरक्षणमुत्कृष्टे धनबले परमं सुखं च प्राप्तुं न शक्यते ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सेनापतीचा आश्रय घेतल्याशिवाय शत्रूंवर विजय, कामाची सिद्धी, स्वतःचे रक्षण, उत्तम धन, बल व परम सुख प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Brave hero, be with us in this holy yajnic programme of the land of freedom and sovereignty for the creation of wealth, power and joy. Join us and let us celebrate together. Lord of abundant wealth, power and joy you are. May we, we pray, know you and be with you at the closest. Be our saviour, our protector, our promoter, so that we may creatively realise all our desires and ambitions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should Indra (President of the Council of Ministers or the Assembly) is taught further in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! Commander-in-Chief of the Army, remover of our evils or evil-minded persons, we fulfil our noble desires by taking shelter in thee. We know thee well to be the possessor of vast riches, therefore, be our protector. In this world. We approach thee for the attainment and increase of our strength which causes happiness and wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति = In this world. (मादयस्व) आनन्द प्रापय = Lead to bliss.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men cannot get victory over their enemies he fulfilment of their noble desires, their protection and admirable wealth and strength without taking shelter in the Commander-in-Chief of the Army.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of the President of the Assembly should he be?This topic has been mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śūra) =remover of the faults of wicked people or enemies, (vayam) =we, (sute)= In the creation of this world,, (purūvasum)=preserver of many riches, (tvā) =your, (upa) =closely, (āśritya) =taking shelter, (atha)=hereafter, (kāmān)=the desires of the mind, (sasṛjmahe) =fulfill and, (hi) =certainty, [tumheṃ]=to you, (vidma=know, (ca) =and, (saḥ) =that, (tvam)=you, (sacā)=mixed with happiness, (śavase)= for the strength, (rādhase)=for fully accomplished wealth and, (mādayasva)= for attaining pleasure, (naḥ) =our, (avitā)=protectors etc., (bhava) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O remover of the faults of wicked people or enemies! By taking close support of You, the preserver of many treasures, in the creation of this world, hereafter we may fulfill the desires of the mind and know You with certainty. And you be the one who protects us for the strength mixed with happiness, for the wealth that is fully accomplished and for attaining pleasure.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the shelter of a commander in chief of army, human beings cannot achieve victory over the enemy, fulfillment of desires, excellent protection, wealth, strength and supreme happiness.

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