ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 7
मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑। सं गृ॑भाय पु॒रू श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठमदे॑ऽमदे । हि । नः॒ । द॒दिः । यू॒था । गवा॑म् । ऋ॒जु॒ऽक्रतुः॑ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । पु॒रु । श॒ता । उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या । वसु॑ । शि॒शी॒हि । रा॒यः । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मदेमदे हि नो ददिर्यूथा गवामृजुक्रतुः। सं गृभाय पुरू शतोभयाहस्त्या वसु शिशीहि राय आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठमदेऽमदे। हि। नः। ददिः। यूथा। गवाम्। ऋजुऽक्रतुः। सम्। गृभाय। पुरु। शता। उभयाहस्त्या। वसु। शिशीहि। रायः। आ। भर ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स ईश्वरोपासकः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! ऋजुक्रतुर्ददिस्त्वमीश्वरोपासनेन मदेमदे हि नोऽस्मभ्यममुभया हस्त्या पुरु शता वसु गवां यूथा चाभर रायः सङ्गृभाय शिशीहि ॥ ७ ॥
पदार्थः
(मदेमदे) हर्षे हर्षे (हि) खलु (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) दाता (यूथा) समूहान् (गवाम्) रश्मीनामिन्द्रियाणां पशूनां वा (ऋजुक्रतुः) ऋजवः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य सः (सम्) सम्यक् (गृभाय) गृहाण (पुरु) बहूनि (शता) असंख्यातानि (उभयाहस्त्या) समन्तादुभयत्र हस्तो येषु कर्मसु तानि तेषु साधूनि (वसु) वासस्थानानि (शिशीहि) शिनु। अत्र बहुलं छन्दसीति श्लुरन्येषामपीति दीर्घश्च। (रायः) विद्यासुवर्णादिधनसमूहान् (आ) समन्तात् (भर) धेहि ॥ ७ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यः सर्वानन्दप्रदः सर्वसाधनसाध्योत्पादकः सर्वाणि धनानि प्रयच्छति, स एवेश्वरोऽस्माभिरुपास्यो नेतरः ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह ईश्वर का उपासक कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् ! (ऋजुक्रतुः) सरल ज्ञान और कर्मयुक्त (ददिः) दाता आप ईश्वर की आज्ञापालन और उपासना से (मदेमदे) आनन्द-आनन्द में (हि) निश्चय से (नः) हमारे लिये (उभयाहस्त्या) दोनों हाथों की क्रिया में उत्तम (पुरु) बहुत (शता) सैकड़ों (वसु) द्रव्यों का (शिशीहि) प्रबन्ध कीजिये (गवाम्) किरण, इन्द्रियाँ और पशुओं के (यूथा) समूहों को (आभर) चारों ओर से धारण कर (रायः) धनों को (संगृभाय) सम्यक् ग्रहण कर ॥ ७ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सब आनन्दों का देनेवाला, सब साधन-साध्य रूप पदार्थों का उत्पादक, सब धनों को देता है, वही ईश्वर हमारा उपास्य है, अन्य नहीं ॥ ७ ॥
विषय
धन + बुद्धि
पदार्थ
१. प्रभु के स्तवन से जो मस्ती उत्पन्न होती है, वह यहाँ 'मद' नाम से कही गई है । शराब का नशा तामस् है, वह चेतना को समाप्त करनेवाला है । प्रभुस्तवन का नशा सात्त्विक है, वह चेतना के प्रकर्ष का कारण बनता है । हे प्रभो ! आप (मदेमदे) = चेतना - प्रकर्ष से होनेवाले मदों में (हि) = निश्चय से (नः) हमारे लिए (गवां यूथा) = गौवों के समूह को (ददिः) = देनेवाले हैं । आपकी कृपा से हमें गो - धनादि सम्पत्ति पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है । २. हे प्रभो ! आप (ऋजुक्रतुः) = ऋजुकर्मा हैं = सरल व्यवहारवाले हैं । आपके साम्राज्य में छल = छिद्र का स्थान नहीं हैं । आपकी उपासना में लगा हुआ मेरा जीवन भी छल = छिद्र से रहित बने । मैं भी ऋजुकर्मा होऊँ । ३. हे प्रभो ! आप (पुरु शता) = [पुरूणि शतानि] अनेक सैकड़ों संख्याओंवाले (वसु) = [वसूनि] धनों को (उभया हस्त्या) = दोनों हाथों से (संगृभाय) = सम्यक् ग्रहण कीजिए और (रायः आभर) हमारे जीवनों में इन धनों को भर दीजिए । ४. हे प्रभो ! आप हमें इन धनों से तो पूर्ण कीजिए ही, परन्तु साथ ही (शिशीहि) = हमारी बुद्धि को अत्यन्त तीव्र बनाइए । ये धन हमारी बुद्धि का विलोप करनेवाले न हो जाएँ । हम लक्ष्मी के वाहन उल्लू ही न बन जाएँ । हम लक्ष्मीपति विष्णु के समान बनें ।
भावार्थ
भावार्थ = हम प्रभुस्तवन के मद का अनुभव करें । प्रभुकृपा से हमें ज्ञानयुक्त धन प्राप्त हो ।
विषय
ऐश्वर्य का विभाग, राष्ट्र ऐश्वर्य का प्रजा द्वारा भोग।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! तू (ऋजुक्रतुः) अति ऋजु, सरल धर्मानुकूल, सुखप्रद, विज्ञानवान् और कर्म-सामर्थ्यवान् है । तू (नः) हमें ( मदेमदे ) प्रत्येक हर्ष के अवसर में या प्रत्येक आनन्दजनक पदार्थ में ( गवां यूथा ) सूर्य जिस प्रकार किरणों को प्रदान करता है। उसी प्रकार ( गवांयूथा ) ज्ञानमय किरणों, ज्ञानवाणियों, लोकसमूहों, विद्वानों तथा पशु आदि समूहों को और इन्द्रियों को भी ( नः ददिः ) हमें प्रदान करता है। ( उभ्या हस्त्या ) दोनों हाथों से भर २ कर देने वाले महादानी के समान ( पुरु शता) बहुत सैकड़ों ( वसु ) ऐश्वर्यों को या वसने वाले जीवों और लोकों को (संगृभाय) अच्छी प्रकार वश करता है और एकत्र किये हुए तू ( रायः ) ऐश्वर्यों को ( शिशीहि ) प्रदान कर और ( आ भर ) हमें सब प्रकार भरण पोषण कर। इसी प्रकार, राजा भी ( मदेमदे ) प्रत्येक हर्ष के अवसर ( गवां यूथा ददिः ) गौओं के समूह के समूह, जूथ के जूथ देने वाला हो, वह (ऋजुक्रतुः) साधु धर्माचरण करने वाला और धार्मिक चित्तवाला हो । वह दोनों हाथों से भर भर कर ऐश्वर्यों का संग्रह करे और ऐश्वर्यों का दान करे और प्रजा का पालन पोषण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह ईश्वर का उपासक कैसा है, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! ऋजुक्रतुः ददिः त्वं ईश्वरोपासनेन मदेमदे हि नः अस्मभ्यम् उभयाहस्त्या पुरु शता वसु गवां यूथा च आ भर रायः सम् गृभाय शिशीहि ॥७॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (ऋजुक्रतुः) ऋजवः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य सः=सरल कर्म और प्रज्ञावाले, (ददिः) दाता= दाता, (त्वम्) =तुम, (ईश्वरोपासनेन)= ईश्वर की उपासना से, (मदेमदे) हर्षे हर्षे=प्रत्येक हर्ष में, (हि) खलु=निश्चय से ही, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (उभयाहस्त्या) समन्तादुभयत्र हस्तो येषु कर्मसु तानि तेषु साधूनि=हर ओर से दोनों हाथों से कर्म करनेवालों भक्तों के, (पुरु) बहूनि =बहुत, अथवा, (शता) असंख्यातानि=असंख्य, (वसु) वासस्थानानि =निवास के स्थान, (गवाम्) रश्मीनामिन्द्रियाणां पशूनां वा =सूर्य की किरणों या पशुओं के, (यूथा) समूहान्=समूह, (च)= भी, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (भर) धेहि=धारण करो, (रायः) विद्यासुवर्णादिधनसमूहान्= विद्या और स्वर्ण आदि के धन समूह को, (सम्) सम्यक्=अच्छे प्रकार से, (गृभाय) गृहाण=धारण करते हुए, (शिशीहि){मन्त्र-७.१६.६- (शिशीहि) तीव्रोद्योगिनः कुरु } शिन= अत्यधिक परिश्रमी बनो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! जो सबको आनन्द प्रदान करनेवाला, सब साधन और साध्यों का बनानेवाला और सबको धन देता है, वह ईश्वर हमारा उपास्य है, अन्य नहीं ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- .)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (ऋजुक्रतुः) सरल कर्म और प्रज्ञावाले (ददिः) दाता। (त्वम्) तुम (ईश्वरोपासनेन) ईश्वर की उपासना से (मदेमदे) प्रत्येक हर्ष में (हि) निश्चय से ही (नः) हमारे लिये, (उभयाहस्त्या) हर ओर से दोनों हाथों से कर्म करनेवालों भक्तों के (पुरु) बहुत, अथवा (शता) असंख्य (वसु) निवास के स्थानों, (गवाम्) सूर्य की किरणों या पशुओं के (यूथा) समूहों को (च) भी, (आ) हर ओर से (भर) धारण करो। (रायः) विद्या और स्वर्ण आदि के धन समूह को (सम्) अच्छे प्रकार से (गृभाय) धारण करते हुए (शिशीहि) अत्यधिक परिश्रमी बनो ॥७॥
संस्कृत भाग
मदे॑ऽमदे । हि । नः॒ । द॒दिः । यू॒था । गवा॑म् । ऋ॒जु॒ऽक्रतुः॑ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । पु॒रु । श॒ता । उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या । वसु॑ । शि॒शी॒हि । रा॒यः । आ । भ॒र॒ ॥ विषयः- पुनः स ईश्वरोपासकः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यः सर्वानन्दप्रदः सर्वसाधनसाध्योत्पादकः सर्वाणि धनानि प्रयच्छति, स एवेश्वरोऽस्माभिरुपास्यो नेतरः ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो सर्व आनंदाचा दाता, सर्व साधन साध्यरूपी पदार्थांचा उत्पादक, सर्व धन प्रदाता, तोच ईश्वर आमचा उपास्य आहे, दुसरा कुणी नव्हे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of wealth, power and generosity, in every joy of life, you are the giver. You are the giver of plenty of cows and abundance of light and sense. Lord of simple, natural and divine action of yajna, may he provide hundreds of kinds of wealth for us and bless us with both of his hands generously. Lord of wealth and glory, bring us the wealth of joy, dignity and glory and let us shine with honour.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is a devotee of God is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! being upright performer of good acts and endowed with knowledge, being a liberal donor grant us hundreds of cows. powerful senses and rays of wisdom, wealth in thy joy attained by the communion with God with noble deeds done with both hands. Sharpen our intellects, bring us wealth in the form of knowledge and gold etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ऋजुक्रतुः) ऋजवः क्रतव: प्रज्ञाः कर्मारिण वा यस्य सः = He whose actions and intellect are upright. (शिशीहि) शिनु। अत्र बहुलंछन्दसीति शलुः, अन्येषामपीति दीर्घश्च। = Sharpen. (राय:) विद्या सुवरर्गादि धनसमूहान् = Wealth, in the form of knowledge and gold
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! We should adore only that God who is the giver of all joy, creator of all things and who bestows wealth upon us. We should not worship any one else.
Subject of the mantra
Then, how is that worshiper of God?This subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar, (ṛjukratuḥ) = simple deeds, wise and, (dadiḥ) =giver, (tvam) =you, (īśvaropāsanena)=by worship of God, (mademade)=In every joy, (hi) =surely, (naḥ) =for us, (ubhayāhastyā)= of devotees doing work with both hands from all sides. (puru) =many, or, (śatā) = innumerable, (vasu) =of abodes, (gavām)=of Sun rays or animals (yūthā) =groups, (ca) =also, (ā) =from all sides, (bhara) =hold, (rāyaḥ) =group of vidya and gold etc., (sam) =well,(gṛbhāya)= possessing, (śiśīhi) =be extremely laborious.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! You, with simple deeds, being wise and the provider. In every joy from the worship of God, surely for our sake, you embrace from every side the numerous or innumerable abodes of the devotees doing the work with both hands, the rays of the sun or even groups of animals from every side. Be extremely laborious while possessing the group of knowledge and gold etc. well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! The one who provides happiness to all, the creator of all means and ends and the giver of wealth to all, that God is our reverend and not anyone else.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal