ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 4
क्रत्वा॑ म॒हाँ अ॑नुष्व॒धं भी॒म आ वा॑वृधे॒ शवः॑। श्रि॒य ऋ॒ष्व उ॑पा॒कयो॒र्नि शि॒प्री हरि॑वान्दधे॒ हस्त॑यो॒र्वज्र॑माय॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वा॑ । म॒हान् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । भी॒मः । आ । व॒वृ॒धे॒ । शवः॑ । श्रि॒ये । ऋ॒ष्वः । उ॒पा॒कयोः॑ । नि । शि॒प्री । हरि॑ऽवान् । द॒धे॒ । हस्त॑योः । वज्र॑म् । आ॒य॒सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा महाँ अनुष्वधं भीम आ वावृधे शवः। श्रिय ऋष्व उपाकयोर्नि शिप्री हरिवान्दधे हस्तयोर्वज्रमायसम् ॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वा। महान्। अनुऽस्वधम्। भीमः। आ। ववृधे। शवः। श्रिये। ऋष्वः। उपाकयोः। नि। शिप्री। हरिऽवान्। दधे। हस्तयोः। वज्रम्। आयसम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सेनापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यो हरिवान् शिप्री भीमो महानृष्वः शवः सेनापतिः क्रत्वाऽनुष्वधं निववृधे श्रिय उपाकयोर्हस्तयोरायसं वज्रमादधे, स एव शत्रून् विजित्य राज्याधिकारी भवति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (महान्) सर्वोत्कृष्टः (अनुष्वधम्) स्वधामन्नमनुकूलम् (भीमः) बिभेति यस्मात् सः (आ) सर्वतः (वावृधे) वर्धते (शवः) सुखवर्धकं बलम् (श्रिये) शोभायै धनप्राप्तये वा (ऋष्वः) प्राप्तविद्यः (उपाकयोः) समीपस्थयोः सेनयोः (नि) नितराम् (शिप्री) शत्रूणामाक्रोशकः (हरिवान्) प्रशस्ता हरयोऽश्वा विद्यन्ते यस्य सः (दधे) धरामि (हस्तयोः) करयोर्मध्ये (वज्रम्) शस्त्रसमूहम् (आयसम्) अयोमयम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यो बुद्धिमान् महोत्तमगुणविशिष्टः शत्रूणां भयङ्करः सेनाशिक्षकोऽतियोद्धा वर्त्तते तं सेनापतिं कृत्वा धर्मेण राज्यं प्रशासनीयम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सेनापति क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (हरिवान्) बहुत उत्तम अश्वों से युक्त (शिप्री) शत्रुओं को रुलाने (भीमः) और भय देनेवाला (महान्) बड़ा (ऋष्वः) प्राप्तविद्या सेनापति (शवः) बल (क्रत्वा) प्रज्ञा वा कर्म से (अनुष्वधम्) अनुकूल अन्न को (नि, ववृधे) अत्यन्त बढ़ाता है (श्रिये) शोभा और लक्ष्मी के अर्थ (उपाकयोः) समीप में प्राप्त हुई अपनी और शत्रुओं की सेना के समीप (हस्तयोः) हाथों में (आयसम्) लोहे आदि से बनाये हुए (वज्रम्) शस्त्रसमूह को (आदधे) धारण करके शत्रुओं को जीतता है, वही राज्याधिकारी होता है ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो बुद्धिमान्, बड़े-बड़े उत्तम गुणों से युक्त, शत्रुओं को भयकर्त्ता, सेनाओं का शिक्षक, अत्यन्त युद्ध करनेहारा पुरुष है, उसको सेनापति करके धर्म से राज्यपालन की न्यायव्यवस्था करनी चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
शिप्री हरिवान्
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (क्रत्वा) = [क्रतु = कर्म, प्रज्ञा] प्रज्ञापूर्वक कर्मों से (महान्) = महनीय व बड़ा होता है । जब हम ज्ञान का सम्पादन करते हैं और उस ज्ञान के अनुसार कर्मों में व्याप्त होते हैं तभी महनीय जीवनवाले होते हैं । २. (अनुष्वधम्) = [अनु स्व+धा] आत्मतत्त्व के धारण के अनुसार तू (भीमः) = शत्रुओं के लिए भयंकर होता है । जितना-जितना हम आत्मतत्त्व का धारण करते हैं, उतना - उतना शक्ति - सम्पन्न होकर कामादि शत्रुओं का संहार करनेवाले होते हैं । ३. इन शत्रुओं का संहार करने पर तेरा (शवः) = बल (आवावृधे) = सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है । वस्तुतः काम - क्रोधादि हमारे शरीर व मानस बलों को क्षीण करनेवाले हैं । हम काम - क्रोध को जीत लेते हैं तो अपनी शक्ति की सुरक्षा कर पाते हैं । ४. शक्ति की वृद्धि होने पर - शरीर व मानस दोनों के ठीक स्थापित होने पर (ऋष्वः) = तू दर्शनीय होता है और अब (शिप्री) = उत्तम हनुओं = [जबड़ों] = वाला होता हुआ, अर्थात् खाने = पीने में अत्यन्त संयमी होता हुआ तथा (हरिवान्) = उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाला होता हुआ तू (श्रिये) = शोभा के लिए (उपाकयोः) = [उप अञ्च] प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले (हस्तयोः) = इन हाथों में (आयसं वज्रम्) = लोहे से बने हुए वज्र को (निदधे) = स्थापित करता है । हम सब इन्द्रियों को वश में करें और विशेषतः जिह्वा को । यही 'हरिवान् व शिप्री' बनना है । ऐसा बनकर हम हाथों से सदा कर्म करनेवाले बनें । कर्म करने में थकें नहीं । यह न थकना ही 'आयस वज्र' को धारण करना है । यह क्रियाशीलता ही हमारी शोभा का कारण बनेगी - 'पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्' - सूर्य की शोभा को देखो जो चलता हुआ थकता ही नहीं । हम भी कर्म करते हुए थकेंगे नहीं तो सूर्य की भांति शोभावाले होंगे । वस्तुतः कर्मशील को वासनाएँ नहीं सताती और वह सुन्दर जीवनवाला बनता है । इसप्रकार ये हाथ हमें वासनाओं से ऊपर उठाकर प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = ज्ञानपूर्वक किये गये कर्म ही हमें महान् बनाते हैं । आत्मतत्त्व के धारण के अनुपात में हमारी शक्ति बढ़ती है । शोभा का मार्ग यही है कि हम क्रियाशील बनें । इससे वासनाशून्य बनकर हम प्रभु के समीप पहुंचनेवाले होंगे ।
विषय
ऐश्वर्य वृद्धि, बल संञ्चय का उपदेश ।
भावार्थ
( क्रत्वा ) कर्म सामर्थ्य और बुद्धि में ( महान् ) बड़ा शक्ति शाली, ( भीमः ) भयंकर ( ऋष्वः ) शत्रुओं का नाशक, प्रबल ( शिप्री ) तेजस्वी, सूर्य के समान ( हरिवान् ) वेगवान् अश्वों, अश्वारोहियों और वीरों, विद्वानों का स्वामी, सेनापति या राजा ( अनुस्वधम् ) अपने अन्न आदि धारण पोषण के सामर्थ्य के अनुसार ही ( शवः ) सैन्य बल की वृद्धि करे। और (श्रिये) राज्यलक्ष्मी के विजय के लिये ( हस्तयोः ) हाथों में (आयसम् वज्रम्) लोह के बने खड्ग के समान ही ( उपाकयोः) पार्श्ववर्त्ती, बाजुओं में स्थित सेनाओं में भी (आयसम्) वेगसे जानेवाले बल वीर्य को ( निदधे ) धारण करावे !
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर सेनापति क्या करे, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः हरिवान् शिप्री भीमः महान् ऋष्वः शवः सेनापतिः क्रत्वा अनुष्वधं नि ववृधे श्रियै उपाकयोः हस्तयोः आ यसं वज्रम् आ दधे, स एव शत्रून् विजित्य राज्याधिकारी भवति ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- (यः)=जो, (हरिवान्) प्रशस्ता हरयोऽश्वा विद्यन्ते यस्य सः=उत्कृष्ट अश्वोंवाला, (शिप्री) शत्रूणामाक्रोशकः = शत्रुओं पर ज़ोर से चिल्लानेवाला, (भीमः) बिभेति यस्मात् सः=डरानेवाला, (महान्) सर्वोत्कृष्टः= सर्वोत्कृष्ट, (ऋष्वः) प्राप्तविद्यः= विद्याओं को प्राप्त, (शवः) सुखवर्धकं बलम्=सुख बढ़ानेवाले बल का, (सेनापतिः)=सेनापति, (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा=प्रज्ञा और कर्म से, (अनुष्वधम्) स्वधामन्नमनुकूलम्= यज्ञ की आहुतियों के अन्न के समान, (नि) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (वावृधे) वर्धते=बढ़ता है, (श्रिये) शोभायै धनप्राप्तये वा=शोभा के लिये और धन की प्राप्ति के लिये, (उपाकयोः) समीपस्थयोः सेनयोः=समीप में स्थित सेनाओं के, (हस्तयोः) करयोर्मध्ये=हाथों के बीच में, (आयसम्) अयोमयम्=लोहे से युक्त, (वज्रम्) शस्त्रसमूहम्= शस्त्रों के समूह को, (आ) सर्वतः=हर ओर से, (दधे) धरामि=धारण करता हूँ, (सः)=वह, (एव)=ही, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (विजित्य)=जीत करके, (राज्याधिकारी)= राज्य का अधिकारी, अर्थात्, राजा, (भवति)=होता है ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा जो बुद्धिमान्, विशिष्ट महान् गुणों से युक्त, शत्रुओं को भयभीत करनेवाला, सेनाओं का प्रशिक्षक और अत्यन्त योद्धा हैं, उसको सेनापति बना करके धर्म से राज्य का प्रशासन करना चाहिये ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (हरिवान्) उत्कृष्ट अश्वोंवाला, (शिप्री) शत्रुओं पर जोर से चिल्लानेवाला, (भीमः) डरानेवाला, (महान्) सर्वोत्कृष्ट (ऋष्वः) विद्याओं को प्राप्त और (शवः) सुख बढ़ानेवाले बलवाला (सेनापतिः) सेनापति है। [वह] (क्रत्वा) प्रज्ञा और कर्म से (अनुष्वधम्) यज्ञ की आहुतियों के अन्न के समान, (नि) अच्छे प्रकार से (वावृधे) बढ़ता है। [मैं] (श्रिये) शोभा के लिये और धन की प्राप्ति के लिये, (उपाकयोः) समीप में स्थित सेनाओं के (हस्तयोः) हाथों में (आयसम्) लोहे से बने हुए (वज्रम्) शस्त्रों के समूह को (आ) हर ओर से, (दधे) धारण करता हूँ। (सः) वह (एव) ही (शत्रून्) शत्रुओं को (विजित्य) जीत करके (राज्याधिकारी) राज्य का अधिकारी, अर्थात्, राजा (भवति) होता है ॥४॥
संस्कृत भाग
क्रत्वा॑ । म॒हान् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । भी॒मः । आ । व॒वृ॒धे॒ । शवः॑ । श्रि॒ये । ऋ॒ष्वः । उ॒पा॒कयोः॑ । नि । शि॒प्री । हरि॑ऽवान् । द॒धे॒ । हस्त॑योः । वज्र॑म् । आ॒य॒सम् ॥ विषयः- पुनः सेनापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यो बुद्धिमान् महोत्तमगुणविशिष्टः शत्रूणां भयङ्करः सेनाशिक्षकोऽतियोद्धा वर्त्तते तं सेनापतिं कृत्वा धर्मेण राज्यं प्रशासनीयम् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी बुद्धिमान, उत्तम गुणांनी युक्त, शत्रूंना भयभीत करणारा, सेनेचा शिक्षक, युद्ध करण्यात कुशल पुरुष असेल तर त्यालाच सेनापती करून धर्माचे राज्य चालेल अशी न्यायव्यवस्था स्थापन केली पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Great by knowledge, awful by action, in his own right and by his own might, he grows in power and majesty. Elevated and sublime, blazing brilliant, lord of horses and speed of motion, he wields the golden thunderbolt of power and force in both his hands for the beauty and dignity of life and the republic of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a commander of the army do is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That Indra (Commander of an army) can become an officer of the State after conquering his enemies ,who possessing good bright horses, having a handsome chin, being fierce for the wicked or formidable to his foes, great and learned, mighty, with his knowledge and acts augments his strength taking nourishing food. He grasps the iron thunderbolt in his contiguous hands for our prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अनुष्वधम्) श्रन्नम् अनुकूलम् = After taking suitable food. (ॠष्व:) प्राप्त विद्यः = Highly learned. (शिप्री) शत्रूणाम् प्राक्रोशक: = Destroyer of the wicked foes.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should administer a State properly after appointing as Commander-in-Chief of the army a person who is intelligent, endowed with great noble virtues, fierce for the wicked enemies trainer of troops and very brave fighter.
Subject of the mantra
Then, what should the commander do? This topic has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =That, (harivān) =who has excellent horses, (śiprī)=one who shouts loudly at enemies, (bhīmaḥ)= is intimidating, (mahān)=quintessential, (ṛṣvaḥ) =attained to scholars and, (śavaḥ) =pleasure enhancer, (senāpatiḥ) =commander is, [vaha]=he, (kratvā) =by intelligence and deeds, (anuṣvadham) =Like the food offered in a yajna, (ni) =well, (vāvṛdhe) =increases, [maiṃ]=I, (śriye)=For beauty and to gain wealth, (upākayoḥ) =of nearby army, (hastayoḥ) =in hands, (āyasam) =made of iron, (vajram) =to group of weapons, (ā) =from all sides, (dadhe) =possess, (saḥ) =he, (eva) =only, (śatrūn) =to enemies, (vijitya) =having won, (rājyādhikārī)=official of the state, i.e., king (bhavati) = becomes.
English Translation (K.K.V.)
He is a commander who has excellent horses, shouts loudly at his enemies, is intimidating, has the quintessential knowledge and has the power to increase happiness. Through his wisdom and action, like the food offered in a yajna, grows well. For the sake of beauty and for the attainment of wealth, I place on all sides a group of weapons made of iron in the hands of the army stationed nearby. It is he who conquers the enemies and becomes the ruler of the kingdom, i.e. the king.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The person who is intelligent, has special great qualities, who frightens the enemies, is a trainer of armies and a great warrior, should be made the commander of the people and should administer the state according to righteousness.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal