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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ प॑प्रौ॒ पार्थि॑वं॒ रजो॑ बद्ब॒धे रो॑च॒ना दि॒वि। न त्वावाँ॑ इन्द्र॒ कश्च॒न न जा॒तो न ज॑निष्य॒तेऽति॒ विश्वं॑ ववक्षिथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प॒प्रौ॒ । पार्थि॑वम् । रजः॑ । ब॒द्ब॒धे । रो॒च॒ना । दि॒वि । न । त्वाऽवा॑न् । इ॒न्द्र॒ । कः । च॒न । न । जा॒तः । न । ज॒नि॒ष्य॒ते॒ । अति॑ । विश्व॑म् । व॒व॒क्षि॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ पप्रौ पार्थिवं रजो बद्बधे रोचना दिवि। न त्वावाँ इन्द्र कश्चन न जातो न जनिष्यतेऽति विश्वं ववक्षिथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। पप्रौ। पार्थिवम्। रजः। बद्बधे। रोचना। दिवि। न। त्वाऽवान्। इन्द्र। कः। चन। न। जातः। न। जनिष्यते। अति। विश्वम्। ववक्षिथ ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यतः कश्चन त्वावान्न जातो न जनिष्यतेऽतस्त्वं विश्वं सर्वं जगद्ववक्षिथ यो भवान् पार्थिवं विश्वं रज आ पप्रौ दिवि रोचनाऽतिबद्बधेऽतः स त्वमुपास्योऽसि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (पप्रौ) प्रपूर्त्ति (पार्थिवम्) पृथिवीमयं पृथिव्यामन्तरिक्षे विदितं वा (रजः) परमाण्वादिकं वस्तु लोकसमूहं वा (बद्बधे) बीभत्सते (रोचना) सूर्यादिदीप्तिः (दिवि) प्रकाशे (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन् (कः) (चन) अपि (न) (जातः) उत्पन्नः (न) (जनिष्यते) उत्पत्स्यते (अति) अतिशये (विश्वम्) सर्वम् (ववक्षिथ) वक्षसि ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं येन सर्वं जगद्रचयित्वा व्याप्य रक्ष्यते योऽजन्माऽनुपमः येन तुल्यं किंचिदपि वस्तु नास्ति कुतश्चातोऽधिकं किंचिदपि भवेत् तमेव सततमुपासीध्वम्। एतस्मात्पृथग्वस्तु नैव ग्राह्यं गणनीयं च ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त ईश्वर ! जिससे (कश्चन) कोई भी (त्वावान्) तेरे सदृश (न जातः) न हुआ (न जनिष्यते) न होगा और तू (विश्वम्) जगत् को (ववक्षिथ) यथायोग्य नियम में प्राप्त करता है और जो (पार्थिवम्) पृथिवी और आकाश में वर्त्तमान (रजः) परमाणु और लोक में (आ पप्रौ) सब ओर से व्याप्त हो रहा है (दिवि) प्रकाशरूप सूर्यादि जगत् में (रोचना) प्रकाशमान भूगोलों को (अति बद्बधे) एक-दूसरे वस्तु के आकर्षण से बद्ध करता है, वह सबका उपास्य देव है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग जिसने सब जगत् को रचके व्याप्त कर रक्षित किया है, जो जन्म और उपमा से रहित, जिसके तुल्य कुछ भी वस्तु नहीं है, तो उस परमेश्वर से अधिक कुछ कैसे होवे ! इसकी उपासना को छोड़के अन्य किसी पृथक् वस्तु का ग्रहण वा गणना मत करो ॥ ५ ॥

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    विषय

    अनुपम

    पदार्थ

    १. जीव प्रभु को अपने में धारण करने के लिए उसकी आराधना करता हुआ कहता है - हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो ! आपने ही (पार्थिवं रजः) इस पार्थिव लोक को (आपप्रौ) = समन्तात् पूरित किया हुआ है । हमारे इस पार्थिव शरीर का भी पूरण आप ही करते हैं । २. (दिवि) = द्युलोक में (रोचना) = इन चमकते हुए नक्षत्रों को (बद्बधे) = [बबन्ध] आप ही बाँधते व स्थापित करते हैं । हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में भी आप ही विज्ञान के नक्षत्रों का उदय करते हैं । ३. हे (इन्द्र) = परमात्मन्! (न त्वावान् कश्चन) = आपके समान कोई भी नहीं है = ('न त्वत्समोऽसि')(न जातः) = आपके समान आजतक कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, (न जनिष्यते) = आपके समान कोई उत्पन्न होगा भी नहीं । यह ठीक है कि हम आपके समान न बन सकेंगे, परन्तु हमारा लक्ष्य यही है कि हम आपके समीप पहुँच सकें । ४. हे प्रभो ! आप ही (विश्वम्) = इस सम्पूर्ण संसार को अति = (अतिशयेन) - खूब ही (ववक्षिथ) = वहन करने की कामना करते हैं । आप ही इस ब्रह्माण्ड का धारण कर सकते हैं, किसी अन्य के लिए इसका धारण करना कैसे सम्भव हो सकता है ? हम भी आपके सच्चे पुत्र बनते हुए धारणात्मक कर्मों को करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु पृथिवी का पूरण करते हैं, द्युलोक को नक्षत्रों से अलंकृत करते हैं । वे प्रभु अनुपम हैं । वे ही इस ब्रह्माण्ड का धारण करनेवाले हैं ।

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    विषय

    ऐश्वर्य वृद्धि, बल संञ्चय का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! तू ( पार्थिवं रजः ) पृथिवी और अन्तरिक्ष में स्थित परमाणु आदि वस्तुओं और समस्त लोक समूह को ( आ पप्रौ ) सब प्रकार से पूर्ण कर रहा है । तू उनमें भी व्यापक है। तू (दिवि ) सूर्य में ( रोचना ) प्रकाशमय दीप्ति को तथा आकाश में ( रोचना ) चमकते सहस्रों सूर्यों को (बद्वधे) थाम रहा है । हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! पैदा हुआ (त्वावान्) तेरे जैसा (कःचन ) कोई भी (न जातः) न और ( न जनिष्यते ) न पैदा होगा । तू ( विश्वं ) समस्त विश्व को ( अति व वक्षिय ) बहुत अच्छी प्रकार से धारण करने में समर्थ है। तू उस विश्व से कहीं बड़ा है । राजपक्ष में—हे इन्द्र तुझ से दूसरा न कोई पैदा हुआ, न होगा। तू समस्त राष्ट्र के भार को उस से बढ़ कर अपने में धारण करने का यत्न कर । तू (पार्थिवं रजः) पृथिवी निवासी लोक समूह, या जनों को (आपप्रौ) सब प्रकार के ऐश्वर्य से पूर्ण कर और ( दिवि ) ज्ञानवान् पुरुषों की सभा में ( रोचना बद्वधे ) रुचिकर कार्यों को नियत करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब इस मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया गया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यतः कः चन त्वावान् न जातः न जनिष्यते अतः त्वं विश्वं सर्वं जगत् ववक्षिथ यः भवान् पार्थिवं विश्वं रजः आ पप्रौ दिवि रोचना अति बद्बधे अतः स त्वम् उपास्यः असि ॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन्= परम ऐश्वर्यवाले परमात्मा ! (यतः) =क्योंकि, (कः)=कोई, (चन) अपि=भी, (त्वावान्) त्वया सदृशः=तुम्हारे समान, (न) निषेधे=नहीं, (जातः) उत्पन्नः= उत्पन्न, (न) निषेधे= नहीं, (जनिष्यते) उत्पत्स्यते= उत्पन्न होगा, (अतः)=इसलिये, (त्वम्) =तुम, (विश्वम्) सर्वम् =समस्त, (जगत्) =ब्रह्माण्ड को, (ववक्षिथ) वक्षसि=धारण करते हो, (यः)=जो, (भवान्)=आप, (पार्थिवम्) पृथिवीमयं पृथिव्यामन्तरिक्षे विदितं वा=पृथिवी सम्बन्धी भूमि और पृथिवी के अन्तरिक्ष को, (विश्वम्) सर्वम्=सारे को, (रजः) परमाण्वादिकं वस्तु लोकसमूहं वा= परमाणु आदि के समूह अथवा लोकों के समूह को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (पप्रौ) प्रपूर्त्ति=पूर्ण कर देने में, (दिवि) प्रकाशे= प्रकाश में, (रोचना) सूर्यादिदीप्तिः= सूर्य आदि की दीप्ति, (अति) अतिशये= अतिशय रूप से, (बद्बधे) बीभत्सते=भयभीत करती है, (अतः)=इसलिये, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (उपास्यः)=उपासना के योग्य, (असि)=हो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! जो सब जगत् को रच करके उसमें व्याप्त होकर रक्षा करता है, जो जन्म और उपमा से रहित है, जिसके समान कोई भी वस्तु नहीं है, उस परमेश्वर से अधिक कुछ कैसे होवे ! उसकी ही निरन्तर उपासना करो। इससे पृथक् वस्तु न ग्रहण करने योग्य है और न गणना करने के योग्य है ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा ! (यतः) क्योंकि (कः) कोई (चन) भी (त्वावान्) तुम्हारे समान (न+जातः) न उत्पन्न हुआ है और (न+जनिष्यते) न उत्पन्न होगा। (अतः) इसलिये (त्वम्) तुम (विश्वम्) समस्त (जगत्) ब्रह्माण्ड को (ववक्षिथ) धारण करते हो। (यः) जो (भवान्) आप (पार्थिवम्) पृथिवी सम्बन्धी भूमि और पृथिवी के अन्तरिक्ष को, अर्थात् (विश्वम्) सारे (रजः) परमाणु आदि के समूह अथवा लोकों के समूह को, (आ) हर ओर से (पप्रौ) पूर्ण कर देने में, (दिवि) प्रकाश में (रोचना) सूर्य आदि की दीप्ति (अति) अतिशय रूप से (बद्बधे) भयभीत करती है। (अतः) इसलिये (सः) वह (त्वम्) तुम, (उपास्यः) उपासना के योग्य (असि) हो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    आ । प॒प्रौ॒ । पार्थि॑वम् । रजः॑ । ब॒द्ब॒धे । रो॒च॒ना । दि॒वि । न । त्वाऽवा॑न् । इ॒न्द्र॒ । कः । च॒न । न । जा॒तः । न । ज॒नि॒ष्य॒ते॒ । अति॑ । विश्व॑म् । व॒व॒क्षि॒थ॒ ॥ विषयः- अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं येन सर्वं जगद्रचयित्वा व्याप्य रक्ष्यते योऽजन्माऽनुपमः येन तुल्यं किंचिदपि वस्तु नास्ति कुतश्चातोऽधिकं किंचिदपि भवेत् तमेव सततमुपासीध्वम्। एतस्मात्पृथग्वस्तु नैव ग्राह्यं गणनीयं च ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्याने सर्व जगाची निर्मिती केलेली आहे व त्यात व्याप्त असून त्याचे रक्षण केलेले आहे. जो अजन्म व अनुपम आहे. ज्याची कुणाबरोबरच तुलना होऊ शकत नाही. त्या परमेश्वरापेक्षा अधिक काय असू शकेल? त्याची उपासना सोडून इतर कोणत्याही दुसऱ्या वस्तूचे ग्रहण करू नये व गणना करू नये. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    You pervade the earth and all that is earthly. You pervade the sky. You pervade and fix the bright heaven in place. Indra, none like you was ever born, nor shall ever be born. Indeed, you hold, rule, pervade and transcend the entire universe of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributs of God are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O (Indra) (God) Thou art Adorable for; no one has been ever born, nor will be born like Thee, Thou hast sustained the universe, Thou hast filled the space of earth and the firmament with Thy glory. Thou hast fixed the constellations in the sky.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन् = God the Lord of the world. (रज:) परमाण्वादि वस्तु लोकसमूह वा = Atom or the band of the worlds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Men, you should adore only that one God who creates this whole world, pervades and protects it, who is un-born and un-paralleled, Incomparable, to whom there can not be any one equal, what to say superior. You should never worship any one else apart from Him or besides Him.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra the qualities of God have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)= most majestic God, (yataḥ) =because, (kaḥ+cana)=any, (tvāvān) =like you, (na+jātaḥ) =no one has born, (na+janiṣyate) =nor will be born, (ataḥ) =therefore, (tvam) =you, (viśvam) =all, (jagat) =to universe, (vavakṣitha) =hold, (yaḥ) =that, (bhavān) =you, (pārthivam) earth's land and the earth's space, i.e., (viśvam)=all, (rajaḥ)= to a group of atoms etc. or a group of worlds, (ā) =from all sides, (paprau) =in filling, (divi)= in the light, (rocanā)= the brightness of the Sun etc. (ati)= extremely, (badbadhe) =frightens, (ataḥ) =therefore, (saḥ) =that, (tvam) =you, (upāsyaḥ)= worthy of worship, (asi) =are.

    English Translation (K.K.V.)

    O most majestic God! Because no one has born like you nor will be born. That is why you hold the entire universe. The one who fills the earth's land and the earth's space, that is, the group of all atoms etc. or the group of worlds, from all sides, the brightness of the Sun etc. in the light, is extremely frightening. That is why you are worthy of worship.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! How can there be anything greater than the God who creates the entire world, pervades it and protects it, who is free from birth and comparison, to whom there is nothing like? Worship him continuously. Anything separate from this is neither capable of being accepted nor capable of being counted.

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