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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यदु॒दीर॑त आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑। यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्माँ इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒त्ऽईर॑ते । आ॒जयः॑ । धृ॒ष्णवे॑ । धी॒य॒ते॒ । धना॑ । यु॒क्ष्व । म॒द॒ऽच्युता॑ । हरी॒ इति॑ । कम् । हनः॑ । कम् । वसौ॑ । द॒धः॒ । अस्मान् । इ॒न्द्र॒ । वसौ॑ । दधः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुदीरत आजयो धृष्णवे धीयते धना। युक्ष्वा मदच्युता हरी कं हनः कं वसौ दधोऽस्माँ इन्द्र वसौ दधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। उत्ऽईरते। आजयः। धृष्णवे। धीयते। धना। युक्ष्व। मदऽच्युता। हरी इति। कम्। हनः। कम्। वसौ। दधः। अस्मान्। इन्द्र। वसौ। दधः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यद्यदाऽऽजय उदीरते तदा भवान् धृष्णवे [धना धीयते एवं मदच्युता हरी युक्ष्व] कञ्चिच्छत्रुं हनः कञ्चिन्मित्रं वसौ दधोऽतोऽस्मान् वसौ दधः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (यत्) यदा (उदीरते) उत्कृष्टा जायन्ते (आजयः) संग्रामाः (धृष्णवे) दृढत्वाय (धीयते) धरति (धना) धनानि (युक्ष्व) योजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मदच्युता) यौ मदान्हर्षान् च्यवेते प्राप्नुतस्तौ (हरी) रथादीनां हरणशीलावश्वौ (कम्) शत्रुम् (हनः) हन्याः (कम्) मित्रम् (वसौ) धने (दधः) दध्याः (अस्मान्) (इन्द्र) पालयितः (वसौ) धनसमूहे (दधः) दध्याः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    यदा युद्धानि कर्त्तव्यानि भवेयुस्तदा सेनापतयो यानशस्त्रास्त्रभोजनाच्छादनसामग्रीरलंकृत्य कांश्चिच्छत्रून् हत्वा कांश्चिन्मित्रान् सत्कृत्य युद्धादिकार्येषु धार्मिकान् संयोज्य युक्त्या योधयित्वा युध्वा च सततं विजयान् प्राप्नुयुः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इनको परस्पर कैसे वर्त्ताव रखना चाहिये, सो अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सेना के स्वामी ! (यत्) जब (आजयः) संग्राम (उदीरते) उत्कृष्टता से प्राप्त हों तब (धृष्णवे) दृढ़ता के लिये (धना) धनों को (धीयते) धरता है सो तू (मदच्युता) बड़े बलिष्ठ (हरी) घोड़ों को रथादि में (युक्ष्व) युक्त कर (कम्) किसी शत्रु को (हनः) मार (कम्) किसी मित्र को (वसौ) धन कोष में (दधः) धारण कर और (अस्मान्) हमको (वसौ) धन में (दधः) अधिकारी कर ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जब युद्ध करना हो तो तब सेनापति लोग सवारी शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बंदूक) आदि शस्त्र, आग्नेय आदि अस्त्र और भोजन-आच्छादन आदि सामग्री को पूर्ण करके किन्हीं शत्रुओं को मार, किन्ही मित्रों का सत्कार कर, युद्धादि कर्मों में धर्मात्मा जनों को संयुक्त कर, युक्ति से युद्ध कराके सदा विजय को प्राप्त हों ॥ ३ ॥

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    विषय

    विजय, धन और निरभिमानता

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (आजयः) = संग्राम (उदीरते) = उठ खड़े होते हैं तब (धृष्णवे) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले के लिए (धना) = धन (धीयते) धारण किये जाते हैं । इसी प्रकार अध्यात्म में भी कामादि का धर्षण करनेवाला व्यक्ति ही शम = दमादि अध्यात्म = सम्पत्ति को प्राप्त करता है । २. इस सम्पत्ति को प्राप्त कराकर हे प्रभो ! आप कृपा करते हैं तो हमारे शरीररूप रथ में (मदच्युता) = शत्रुओं का गर्व नष्ट करनेवाले (हरी) = इन्द्रियरूप अश्वों को (युक्ष्वा) = जोड़ते हैं । हमारी इन्द्रियाँ ज्ञान = प्राप्ति व यज्ञादि कर्मों में लगी रहकर हमें कामादि से आक्रान्त होने से बचाती हैं और इस प्रकार ये कामादि के मद को दूर करके हमें विनय के मार्ग पर ले = चलती हैं । ३. हे प्रभो ! आप कर्म = व्यवस्था के अनुसार (कम्) = किसी एक को (हनः) नष्ट करते हो और (कम्) = किसी दूसरे को (वसौ दधः) = धन में स्थापित करते हो । एक को निधन [मृत्यु] में, एक को धन में । हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (अस्मान्) = हमें तो आप (वसौ दधः) = धन में ही धारण कीजिए । न हम अभिमान करें और न ही धन से क्षीण हों । धन की प्राप्ति जिन्हें अभिमानी बना देती है वे ही लोग पतनोन्मुख होते हैं । हम संग्राम में जीतें और धनों को प्राप्त करें ही, परन्तु हमें उन धनों का कभी गर्व न हो ताकि हम आपके दण्ड के पात्र न बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम संग्राम में शत्रुओं का घर्षण करनेवाले बनें । इस शत्रुधर्षण से धनी बनें । हमें अभिमान न हो । अभिमानी ही तो प्रभु से दण्डित होकर विनष्ट होता है ।

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    विषय

    ऐश्वर्य संञ्चय, दो प्रमुखों की स्थापना, अनुग्रह और निग्रह के योग्य मित्र शत्रु का विवेक ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) सेनापते ! राजन् ! ( यत् ) जब ( आजयः ) नाना संग्राम ( उत् ईरते ) उठ खड़े होते हैं उस समय ( घृष्णवे ) शत्रुओं का पराजय करने वाले बल को दृढ़ करने के लिये ( धना धीयते ) नाना प्रकार के धनों को धारण किया जाता है, उन को कोश में संग्रह किया जाता है। उसी समय ( मदच्युता ) अति हर्ष से आवेग को प्राप्त होने वाले, दृढ़ शत्रुओं का गर्व ढीला कर देने वाले ( हरी ) रथ में दो घोड़ों के समान राज्य के भार को उठाने के लिये दो मुख्य विद्वानों को भी ( युक्ष्व ) नियुक्त कर । तू ( कं हनः ) किसी शत्रु को मार और ( कं ) किसी को ( वसौ ) ऐश्वर्य या राष्ट्र के ऊपर अधिकारी रूप से ( दधः ) स्थापित कर । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (अस्मान्) हमें (वसौ) बसने योग्य राष्ट्र में या ऐश्वर्य के बल पर (दधः) पालन पोषण कर । अथवा—( कं हनः ) हे इन्द्र तू किस को मारे और किस को राष्ट्र में स्थापित करे इस बात का विवेक कर और ( अस्मान् इन्द्र वसौ दधः ) हम प्रजा जन को राष्ट्र में पालन पोषण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७, ८ विराट् पंक्तिः । ३-६, ९ निचृदास्तारपंक्तिः । २ भुरिग् बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर इन सेनापति और सैनिकों को परस्पर कैसे वर्त्ताव रखना चाहिये, यह इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यत् यदा आजयः उदीरते तदा भवान् धृष्णवे [धना धीयते एवं मदच्युता हरी {कम्} युक्ष्व कञ्चित् शत्रुं हनः कञ्चित् मित्रं {कम्} वसौ दधः अतः अस्मान् वसौ दधः ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (इन्द्र) पालयितः=रक्षक सेनापति ! (यत्) यदा=जब, (आजयः) संग्रामाः= संग्रामों में, (उदीरते) उत्कृष्टा जायन्ते तदा=तब उत्कृष्ट लगनेवाले, (भवान्)=आप, (धृष्णवे) दृढत्वाय=दृढता के लिये, [(धना) धनानि=धनों को, (धीयते) धरति=धारण करते हैं, (एवम्)=ऐसे ही, (मदच्युता) यौ मदान्हर्षान् च्यवेते प्राप्नुतस्तौ=आनन्द रहित होनेवाले, (हरी) रथादीनां हरणशीलावश्वौ=रथ आदि को चुराने के स्वभाववाले, {कम्} शत्रुम्=शत्रु को, (युक्ष्व) योजय=जोड़िये] (कञ्चित्)=किसी, (शत्रुम्)= शत्रु को, (हनः) हन्याः=मारकर, (कञ्चित्)= किसी, {कम्} मित्रम्=मित्र को, (वसौ) धने= धन, (दधः) दध्याः=देकर, (अतः)=इसलिये, (अस्मान्)=हमें, (वसौ) धनसमूहे= धन का समूह, अर्थात् बहुत धन, (दधः) दध्याः=दीजिये ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जब युद्ध करने हों, तब सेनापति लोग रथ, शस्त्र-अस्त्र, भोजन, आच्छादन के वस्त्र आदि सामग्री को सजा करके, कुछ शत्रुओं को मारकर और कुछ मित्रों का सत्कार करके, युद्ध आदि कार्यों में धार्मिक लोगों को जोड़ करके और युद्ध में सम्मिलित होकर निरन्तर विजय प्राप्त करो ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) रक्षक सेनापति ! (यत्) जब (आजयः) संग्रामों में (उदीरते) उत्कृष्ट लगनेवाले (भवान्) आप, [सेना की] (धृष्णवे) दृढता के लिये (धना) धनों को (धीयते) धारण करते हैं, (एवम्) ऐसे ही (मदच्युता) आनन्द रहित होनेवाले और (हरी) रथ आदि को चुराने के स्वभाववाले, (कञ्चित्) किसी (शत्रुम्) शत्रु को (हनः) मारकर और (कञ्चित्) किसी {कम्} मित्र को (वसौ) धन (दधः) देकर{कम्} शत्रु को [अपनी सेना में] (युक्ष्व) जोड़िये। (अतः) इसलिये (अस्मान्) हमें (वसौ) धन का समूह, अर्थात् बहुत धन (दधः) दीजिये ॥३॥

    संस्कृत भाग

    यत् । उ॒त्ऽईर॑ते । आ॒जयः॑ । धृ॒ष्णवे॑ । धी॒य॒ते॒ । धना॑ । यु॒क्ष्व । म॒द॒ऽच्युता॑ । हरी॒ इति॑ । कम् । हनः॑ । कम् । वसौ॑ । द॒धः॒ । अस्मान् । इ॒न्द्र॒ । वसौ॑ । दधः ॥ विषयः- पुनरेतैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा युद्धानि कर्त्तव्यानि भवेयुस्तदा सेनापतयो यानशस्त्रास्त्रभोजनाच्छादनसामग्रीरलंकृत्य कांश्चिच्छत्रून् हत्वा कांश्चिन्मित्रान् सत्कृत्य युद्धादिकार्येषु धार्मिकान् संयोज्य युक्त्या योधयित्वा युध्वा च सततं विजयान् प्राप्नुयुः ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा युद्ध करावयाचे असेल तेव्हा सेनापतीने वाहन शतघ्नी (तोफ), भुशुण्डी (बंदूक) इत्यादी शस्त्रे आग्नेय इत्यादी अस्त्रे व भोजन, आच्छादन इत्यादी सामग्रीने शत्रूंना मारून, मित्रांचा सत्कार करून युद्ध इत्यादी कर्मांनी धर्मात्मा लोकांना एकत्र करून युक्तीने युद्ध करून सदैव विजय मिळवावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    When battles confront the nation, means and money are raised and prizes won for the brave. Commander of the forces, yoke the forces exuberant and raging for war. Destroy the enemy. Settle the victorious in wealth and peace. Indra, pray settle us in peace and comfort.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (the commander of the army and soldiers) behave with one another is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (commander of an army) when battles arise, thou destroyest thy enemy for firmness and givest wealth to thy friends and other noble persons. Yoke thy powerful and delightful horses, humble the pride of thy foes and place us in affluence.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हरी) रथादीनां हरणशीलौ = Horses. (आजय:) संग्रामा: = Battles. (धृष्णवे) दृढत्वाय = For firmness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When battles are to be waged, the commanders of the armies ,should make proper arrangements for collecting arms, weapons of various kinds, food and clothing etc. and destroy their enemies. They should honour their friends ,should appoint righteous persons in the battle and other works, should make their soldiers fight tactfully and thus get victory over their adversaries.

    Translator's Notes

    आज इति संग्रामनाम (निघ० २,१७) धृष्णवे is derived from धूष प्रागल्भ्ये स्वाo or घृष- प्रसहमे चु ।

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    Subject of the mantra

    Then, how the commander and the soldiers should behave with each other?This has been said in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =protector commander, (yat)=when, (ājayaḥ)=in battles, (udīrate) =excellent looking, (bhavān) =you, [senā kī]=of army, (dhṛṣṇave)=for the strength, (dhanā) =to wealth, (dhīyate) =possess, (evam) =in the same way, (madacyutā)= devoid of joy and, (harī)= those with a nature of stealing chariots etc., (kañcit) =any, (śatrum) =enemy, (hanaḥ) =by killing and, (kañcit) =any, {kam} =to friend, (vasau) =wealth, (dadhaḥ) =by giving, {kam} =to enemy, [apanī senā meṃ]=in own army, (yukṣva) =by adding, (ataḥ) =therefore, (asmān) =to us, (vasau) =a lot of money, i.e. wealth, (dadhaḥ) =give.

    English Translation (K.K.V.)

    O protector commander! When you, who excels in battles, keeps wealth to strengthen his army, similarly, who are devoid of joy and have the nature of stealing chariots etc., by killing an enemy and giving wealth to a friend, you add that enemy to your army. Therefore, give us a lot of money, i.e. wealth.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    When there is a war to be fought, the commanders must prepare for the war by arranging chariots, missiles-weapons, food, clothing etc., by killing some enemies and by paying respect to some friends, by involving righteous people in war activities etc. and by participating in the war. Continually achieve victory.

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