ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
सु॒क्षे॒त्रि॒या सु॑गातु॒या व॑सू॒या च॑ यजामहे। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽक्षे॒त्रि॒या । सु॒गा॒तु॒ऽया । व॒सु॒ऽया । च॒ । य॒जा॒म॒हे॒ । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे। अप न: शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽक्षेत्रिया। सुगातुऽया। वसुऽया। च। यजामहे। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अग्ने यं त्वां वसूया सुगातुया सुक्षेत्रिया च शस्त्रास्त्रसेनया वयं यजामहे स भवान्नोऽस्माकमघमपशोशुचत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(सुक्षेत्रिया) शोभनं वपनाधिकरणं यया नीत्या तया। अत्रेयाडियाजीकाराणामिति डियाजादेशः। (सुगातुया) शोभना गातुः पृथिवी यस्यां तया। अत्र याजादेशः। (वसूया) आत्मनो वसूनिच्छन्ति तया (च) सर्वशस्त्रास्त्रादीनां समुच्चये (यजामहे) सङ्गच्छामहे (अप, नः०) इति पूर्ववत् ॥ २ ॥
भावार्थः
पूर्वमन्त्रादग्ने इति पदमनुवर्त्तते। सभाध्यक्षेण सामदण्डभेदक्रियान्वितां नीतिं संप्राप्य प्रजानां दुःखानि नित्यं दूरीकर्त्तुमुद्यमः कर्त्तव्यः, प्रजयेदृश एव सभाध्यक्षः कर्त्तव्यः ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) सभाध्यक्ष ! जिन आपको (वसूया) जिससे अपने को धनों की चाहना हो (सुगातुया) जिसमें अच्छी पृथिवी हो और (सुक्षेत्रिया) नाज बोने को जो कि अच्छा खेत हो वह जिस नीति से हो उससे (च) तथा शस्त्र और अस्त्र बाँधनेवाली सेना से हम लोग (यजामहे) सङ्ग देते हैं, वे आप (नः) हमलोगों के (अघम्) दुष्ट व्यसन को (अपशोशुचत्) दूर कीजिये ॥ २ ॥
भावार्थ
पिछले मन्त्र से (अग्ने) इस पद की अनुवृत्ति आती है। सभाध्यक्ष को चाहिये कि शान्तिवचन कहने, दुष्टों को दण्ड देने और शत्रुओं को परस्पर फूट कराने की क्रियाओं से नीति को अच्छे प्रकार प्राप्त होके प्रजाजनों के दुःख को नित्य दूर करने के लिये उद्यम करे। प्रजाजन भी ऐसे पुरुष ही को सभाध्यक्ष करें ॥ २ ॥
विषय
सुक्षेत्र - सुगातु - वसु
पदार्थ
१. हे अग्ने ! (सुक्षेत्रिया) = इस शरीररूप क्षेत्र को शोभन बनाने की इच्छा से (यजामहे) = हम आपका पूजन करते हैं [यज - देवपूजा] । प्रभु - पूजन से ही हम प्रकृति के दास नहीं बनते । हमारी वृत्ति भोगवृत्ति नहीं होती । भोग न होने से शरीर में रोग नहीं आते । यह नीरोगता ही शरीररूप क्षेत्र को सुक्षेत्र बनाती है ।
२. (सुगातुया) = उत्तम मार्ग की कामना से हम (यजामहे) = हे प्रभो ! आपके साथ संगतिकरणवाले [यज संगतिकरण] होते हैं । आपके साथ चलने पर मार्ग भटकने की आशंका ही नहीं रहती । आप हमारा मार्गदर्शन करते हैं तो वह मार्ग हमारे लिए शोभनतम हो जाता है (च) = और
३. (वसूया) = धन की इच्छा से (यजामहे) = [यज्ञ - दान] - हम आपके प्रति अपना दान करते हैं । जैसे एक बालक माता - पिता के प्रति अपना अर्पण कर देता है तो माता - पिता उसके पालन व पोषण का पूर्ण प्रयत्न करते हैं , इसी प्रकार प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवालों को भी ये प्रभु सब वसुओं को देनेवाले होते हैं ।
४. हे प्रभो ! इस प्रकार हममें ये कामनाएँ बनी रहें - [क] हमें भोगप्रवणता से ऊपर उठकर शरीर को नीरोग बनाना है , [ख] प्रभु के सम्पर्क में रहकर सदा उत्तम मार्ग पर चलना है और [ग] प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके , दानवृत्ति को अपनाकर , वसुओं को प्राप्त करना है । ऐसा होने पर (अघम्) = पाप (नः) = हमसे (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर को उत्तम बनाने की कामना , उत्तम मार्ग पर चलने व वसु - प्राप्ति की भावना हमें पाप से ऊपर उठाती है ।
विषय
राजा से पाप कर्म करने वाले को दण्डित करने का निवेदन ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! राजन् ! परमेश्वर ! हम लोग (सुक्षेत्रिया) उत्तम क्षेत्र अर्थात् कर्मों के उत्तम बीजरूप संस्कारों के वपन के लिये उत्तम देह और सन्तान वपन के लिये उत्तम स्त्री, और अन्न वपन के लिये उत्तम से उत्तम भूमि को प्राप्त करने की इच्छा से और ( सुगातुया ) उत्तम मार्ग,भूमि, ज्ञान और व्यवहार को प्राप्त करने की इच्छा से और ( वसूया च ) प्राण, प्रजा और ऐश्वर्यों और उत्तम लोकों या निवास के प्राप्त करने की इच्छा से हम ( यजामहे ) तेरी उपासना करें, तुझे प्राप्त हों और परस्पर संगत होकर अध्ययन, यज्ञ आदि सत्कर्म करें । हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! आप ( नः अघम् अपशोशुचत्) हमारे पाप पुण्य को भस्म कर डालो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
मागच्या मंत्रातून (अग्ने) या पदाची अनुवृत्ती होते. सभाध्यक्षाने शांतिवचन म्हणणे, दुष्टांना दंड देणे व शत्रूंची परस्पर फूट करविणे या नीतीने प्रजाजनाचे दुःख नित्य दूर करण्याचा प्रयत्न करावा. प्रजेनेही अशा पुरुषाला सभाध्यक्ष करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With our desire and plans for waving green fields, straight and simple highways for movement, and honest wealth for body, mind and soul and for the power of defence and protection do we approach and honour you, Agni, lord of light and power. Pray burn off our sins and let us shine in purity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught further in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President! We put our united efforts with pleasant fields, for good land and for the acquirement of good wealth along with good army equipped with powerful weapons. Remove all our sin and sloth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुक्षेत्रिया) शोभनं क्षेत्रं वपनाधिकरणं यया नीत्या | अत्रेयाडियाजी काराणामिति डियाजादेशः ॥ = With the policy that leads to good cultivation of lands. (सुगातुया) शोभना गातुः पृथिवी यस्यां तया । अत्र डियाजादेशः । = With the object of good land. गातुरिति पृथिवीनाम (निघ० १.१ )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the President to remove the sufferings and grievances of the subjects by adopting the policy of साम (peace) भेद (Dividing) and दण्ड (suitable punishment). The people should also elect only such a virtuous person as President.
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