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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र यद॒ग्नेः सह॑स्वतो वि॒श्वतो॒ यन्ति॑ भा॒नव॑:। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । अ॒ग्नेः । सह॑स्वतः । वि॒श्वतः । यन्ति॑ । भा॒नवः॑ । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यदग्नेः सहस्वतो विश्वतो यन्ति भानव:। अप न: शोशुचदघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। यत्। अग्नेः। सहस्वतः। विश्वतः। यन्ति। भानवः। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ भौतिकोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यूयं यद्यस्य सहस्वतोऽग्नेर्भानवो विश्वतः प्रयन्ति यो नोऽस्माकमघं दारिद्र्यमपशोशुचद्दूरीकरोति तं कार्येषु संप्रयुङ्ग्ध्वम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (प्र) (यत्) यस्य (अग्नेः) पावकस्य (सहस्वतः) प्रशस्तं सहो बलं विद्यते यस्मिन् (विश्वतः) सर्वतः (यन्ति) गच्छन्ति (भानवः) प्रदीप्ताः किरणाः (अप) (नः) (शोशुचत्) शोशुच्यात् (अघम्) दारिद्र्यम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    नह्येतया विद्युता विना मूर्त्तद्रव्यमव्याप्तमस्ति यः शिल्पविद्यया कार्येषु संप्रयुक्तोऽग्निर्धनकारी जायते स मनुष्यैः सम्यग्वेदितव्यः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब भौतिक अग्नि कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! तुम (यत्) जिस (सहस्वतः) प्रशंसित बलवाले (अग्नेः) भौतिक अग्नि की (भानवः) उजेला करती हुई किरण (विश्वतः) सब जगह से (प्रयन्ति) फैलती हैं वा जो (नः) हम लोगों के (अघम्) दरिद्रपन को (अप, शोशुचत्) दूर करता है, उसको कामों में अच्छे प्रकार जोड़ो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    ऐसा कोई मूर्त्तिमान् पदार्थ नहीं कि जो इस बिजुली से अलग हो अर्थात् सब में बिजुली व्याप्त है और जो भौतिक अग्नि शिल्पविद्या से कामों में लगाया हुआ धन इकट्ठा करनेवाला होता है, वह मनुष्यों को अच्छे प्रकार जानना चाहिये ॥ ५ ॥

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    विषय

    शक्ति व प्रकाश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार (यत्) = जब ‘सूरि’ बनकर हम प्रभु के बन जाते हैं तब (सहस्वतः) = सहस के पुतले - सहोरूप उस (अग्नेः) = प्रकाशमय प्रभु की (भानवः) = ज्ञान की दीप्तियाँ (विश्वतः) = हमारे हृदयान्तरिक्ष में सब ओर (प्रयन्ति) = प्रकर्षेण गति करती हैं । हमारे हृदय पूर्णरूपेण उस प्रकाश से दीप्त हो उठते हैं । उस प्रकाश में पापान्धकार के लिए स्थान कहाँ ? अतः (नः) = हमारा (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्) = शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाता है । 

    २. यहाँ प्रभु को ‘सहस्वान्’ रूप में स्मरण किया है । पाप को दूर करने के लिए इस सहस् को भी अत्यन्त आवश्यकता है । निर्बलता में पाप का वास होता है । शक्ति में ही गुणों का निवास है । इस शक्ति के साथ प्रभु के ज्ञान के प्रकाश को हम पाते हैं और निष्पाप होते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - पाप के दूरीकरण के लिए शक्ति व प्रकाश की आवश्यकता है । 
     

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    विषय

    और उसके साथ प्रजा की उन्नति के नाना उपाय ।

    भावार्थ

    ( अग्निः) सूर्य और अग्नि के समान (यत्) जिस ( सहस्वतः ) बलवान् विद्वान् तेजस्वी राजा के भी ( भानवः ) किरणों और ज्वालाओं के समान तेज और विद्वान् पुरुष ( विश्वतः यन्ति ) सब ओर को निकलते और व्यापते हैं वह ( नः अघम् अपशोशुचत् ) हमारे पापों को दूर करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    असा कोणताही प्रत्यक्ष पदार्थ नाही जो विद्युतपासून पृथक असेल अर्थात सर्वांमध्ये विद्युत व्याप्त आहे तसेच शिल्पविद्येमध्ये संप्रयुक्त केलेला अग्नी धन देणारा असतो, हे माणसांनी चांगल्या प्रकारे जाणावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As the lights of this powerful Agni go up in flames all round and blaze, so may we be, we pray. Lord of light and power, purge us of our sins and let us shine in purity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is this material fire is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Since the mighty flames of Agni (electricity ) go in all directions or penerate univerally and it removes all poverty, utilise it methodically and scientifically in various works.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भानव:) प्रदीप्ताः किरणा: = Rays or flames. (अघम्) दारिद्रयम् = Poverty.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is no embodied object which is not permeated by electricity. Men should acquire full knowledge of Agni (fire and electricity) which when utilised in works leads to prosperity.

    Translator's Notes

    भा-दीप्तौ (अघम्) दोरिद्रयम् The word has been interpreted here as दारिद्रयम् or poverty as it makes a man suffer and very often it leads to sin also, as is the well-known Sanskrit saying बुभुक्षित: कि न करोति पापम् i.e. what does not a dying man do ?

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