ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 4
प्र यत्ते॑ अग्ने सू॒रयो॒ जाये॑महि॒ प्र ते॑ व॒यम्। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सू॒रयः॑ । जाये॑महि । प्र । ते॒ । व॒यम् । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यत्ते अग्ने सूरयो जायेमहि प्र ते वयम्। अप न: शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यत्। ते। अग्ने। सूरयः। जायेमहि। प्र। ते। वयम्। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तस्य कीदृशस्य कीदृशाश्चेत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अग्ने यद्यस्य ते तव यादृशाः सूरयः सभासदः सन्ति तस्य ते तव तादृशा वयमपि प्रजायेमहीदृशस्त्वं नोऽस्माकमघं प्रापशोशुचत् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(प्र) (यत्) यस्य (ते) तव (अग्ने) आप्तानूचानाध्यापक (सूरयः) पूर्णविद्यावन्तो विद्वांसः (जायेमहि) (प्र) (ते) तव (वयम्) (अप, नः०) इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥
भावार्थः
इह संसारे यादृशा धर्मिष्ठाः सभाद्यध्यक्षा मनुष्या भवेयुस्तादृशैरेव प्रजास्थैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसके कैसे के कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) आप उत्तर-प्रत्युत्तर से कहनेवाले ! (यत्) जिन (ते) आपके जैसे (सूरयः) पूरी विद्या पढ़े हुए विद्वान् सभासद् हैं, उन (ते) आपके वैसे ही (वयम्) हमलोग भी (प्र, जायेमहि) प्रजाजन हों और ऐसे तुम (नः) हम लोगों के (अघम्) विरोधरूप पाप को (प्र, अप, शोशुचत्) अच्छे प्रकार दूर कीजिये ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस संसार में जैसे धर्मिष्ठ सभा आदि के अधीश मनुष्य हों, वैसे ही प्रजाजनों को भी होना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
ज्ञान व पाप - शोषण
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् । (यत्) = यदि (सूरयः) = ज्ञानी बनकर (वयम्) = हम (ते) = आपके और (ते) = आपके ही (प्र प्रजायेमहि) = प्रकर्षेण पूर्णरूपेण हो जाएँ तो (नः) = हमारा (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्) = शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए ।
२. जितना - जितना हम प्रकृति की ओर झुकते हैं , उतनी - उतनी ही पापों में फंसने की आकांक्षा बढ़ती जाती है और जितना - जितना प्रभु की ओर झुकते हैं , उतना - उतना पाप से परे होते जाते हैं । प्रकृति की ओर न झुककर प्रभु की ओर झुकने के लिए ज्ञान आवश्यक है । उस ज्ञान के लिए तप , स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान रूप क्रियायोग साधन है । यह क्रियायोग हमें (‘सूरि’) = ज्ञानी बनाएगा और ‘सूरि’ बनकर हम प्रभु के बनेंगे , प्रभु के बनकर पापों से बच जाएंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का ज्ञानीभक्त ही पापों का समूल शोषण कर पाता है ।
विषय
और उसके साथ प्रजा की उन्नति के नाना उपाय ।
भावार्थ
( यत् ) जो ( ते ) तेरे ही अधीन रह कर, हे ( अग्ने ) विद्वन् ! तेजस्विन् ! ( सूरयः प्र ) विद्वान् जन उत्तम रूप से प्रकट होते हैं उसी प्रकार ( ते ) तेरे अधीन रह कर ( वयम् ) हम लोग भी ( प्रजायेमहि ) उत्तम बनें । अर्थात् आचार्य के अधीन जैसे शिष्य उत्तम विद्वान् हो जाते हैं उत्तम राजा के अधीन प्रजाएं भी उसी प्रकार सुशिक्षित सुसभ्य बनें । ( नः अघम् अप शोशुचत् ) हमारे पाप-कर्मों को भस्म करके दूर कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात जसा धार्मिक सभाध्यक्ष असेल तसेच प्रजेनेही बनावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord of light and power, Agni, as your leading and brilliant brave heroes and devotees are, so may we rise to be. Lord, we pray, save us from our sins and let us shine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the members is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni (Absolutely truthful, learned teacher of the Vedas) let us become like the highly educated members of your assembly. Remove or burn all our sin of mind, speech and body.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) आप्तानूचानाध्यापक (सूरयः) = Perfectly learned persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The public or ordinary persons should also try to follow the noblest or most righteous Presidents of the Assemblies etc. in this world.
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