Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 97 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स न॒: सिन्धु॑मिव ना॒वयाति॑ पर्षा स्व॒स्तये॑। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । सिन्धु॑म्ऽइव । ना॒वया॑ । अति॑ । प॒र्ष॒ । स्व॒स्तये॑ । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न: सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये। अप न: शोशुचदघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। सिन्धुम्ऽइव। नावया। अति। पर्ष। स्वस्तये। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर स भवान् कृपया नोऽस्माकं स्वस्तये नावया सिन्धुमिव दुःखान्यति पर्ष नोऽस्माकमघमपशोशुचद्भृशं दूरीकुर्यात् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (सः) जगदीश्वरः (नः) अस्माकम् (सिन्धुमिव) यथा समुद्रं तथा (नावया) नावा। अत्र नौशब्दात्तृतीयैकवचनस्यायाजादेशः। (अति) (पर्ष)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (स्वस्तये) सुखाय (अप, नः०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। संतारकः सुखेन मनुष्यादीन् नावा सिन्धोरिव परमेश्वरो विज्ञानेन दुःखसागरात्तारयति स सद्यः सुखयति च ॥ ८ ॥ अत्राग्नीश्वरसभाध्यक्षगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति सप्तनवतितमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! (सः) सो आप कृपा करके (नः) हम लोगों के (स्वस्तये) सुख के लिये (नावया) नाव से (सिन्धुमिव) जैसे समुद्र को पार होते हैं, वैसे दुःखों के (अति, पर्ष) अत्यन्त पार कीजिये (नः) हम लोगों के (अघम्) अशान्ति और आलस्य को (आप, शोशुचत्) निरन्तर दूर कीजिये ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पार करनेवाला मल्लाह सुखपूर्वक मनुष्य आदि को नाव से समुद्र के पार करता है, वैसे तारनेवाला परमेश्वर विशेष ज्ञान से दुःखसागर से पार करता और वह शीघ्र सुखी करता है ॥ ८ ॥इस सूक्त में सभाध्यक्ष अग्नि और ईश्वर के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह सत्तानेवाँ सूक्त और पाचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभुरूपी नौका

    पदार्थ

    १. (सः) = वे आप (नः) = हमें (स्वस्तये) = उत्तम स्थिति व कल्याण के लिए उसी प्रकार (अतिपर्षा) = सब पापों से पार करके पालित व पूरित कीजिए (इव) = जैसे (नावया) = नाव के द्वारा (सिन्धुम्) = नदी को पार करते हैं । आपका ‘नाम’ ही इस सागर को तैरने के लिए नाव बन जाए और (नः) = हमारे (अपम्) = पाप (अप) = हमसे दूर तथा (शोशुचत्) = शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाएँ । 

    २. जैसे समुद्र को पार करने के लिए नाव साधन होती है , उसी प्रकार प्रभु का नाम हमारे लिए संसार - सागर को तैरने के लिए नाव हो जाए । पाप से ऊपर उठकर , पार होकर हम सुखमय स्थिति में हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के द्वारा पापों से इस प्रकार पार हो जाएँ जैसे नाव द्वारा समुद्र से पार होते हैं । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त के आरम्भ में कहा है कि पाप को दूर करने के लिए आवश्यक है कि धन को पवित्र साधनों से कमाया जाए [१] । शरीर को उत्तम बनाने के लिए - प्रशस्त मार्ग के लिए तथा वसु की प्राप्ति के लिए प्रभु से मेल किया जाए [२] । लोकहित व सज्जनसंग को अपनाया जाए [३] । ज्ञानीभक्त ही पापशोषण कर पाता है [४] । पाप के दूरीकरण के लिए शक्ति व प्रकाश आवश्यक है [५] । प्रभु ही सर्वतो रक्षक हैं [६] । द्वेष से ऊपर उठना आवश्यक है [७] । प्रभुनाम की नौका बनाकर पाप - समुद्र से पार हुआ जा सकता है [८] । हम उस प्रभु की सुमति में चलें - इन शब्दों के साथ अगला सूक्त आरम्भ होता है - 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    और उसके साथ प्रजा की उन्नति के नाना उपाय ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह तू ( नावया सिन्धुम् इव ) नौका से जिस प्रकार महानद को पार किया जाता है उसी प्रकार ( नः ) हमें ( स्वस्तये ) सुख, शान्ति और उत्तम जीवन प्राप्त करने के लिये ( अति पर्ष ) पार कर । ( नः अघम् अप शोशुचत् ) वह हमारे शोक, दुःख और अन्य पापों को दूर करे । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा पैलतीरी नेणारा नाविक माणसाला सुखाने नावेतून समुद्र पार करवितो तसे तारणारा परमेश्वर विशेष ज्ञानाने दुःखसागरातून पार करवितो व तत्काळ सुखी करतो. ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as we cross a river in flood by boat, so for the sake of good life and ultimate joy, may Agni, lord of light and life, help us cross the seas. Lord of light and purity, cleanse us of evil, burn off our sins and help us shine in purity, power and piety.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni (God) is taught again in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, kindly take us across all the miseries for our welfare as they go to the opposite shore of the river or ocean by a boat or ship. Burn away all our sins.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a sailor takes men across the river by a boat, so God takes men across the ocean of misery by giving them true knowledge and wisdom and He makes them supremely happy without much delay.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes of Agni (fire or electricity) God and President of the Assembly etc. by the use of the word Agni, as in that hymn. Here ends the ninety-seventh hymn of the first Mandala of the Rigveda.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni (God) is taught again in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, kindly take us across all the miseries for our welfare as they go to the opposite shore of the river or ocean by a boat or ship. Burn away all our sins.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a sailor takes men across the river by a boat, so God takes men across the ocean of misery by giving them true knowledge and wisdom and He makes them supremely happy without much delay.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes of Agni (fire or electricity) God and President of the Assembly etc. by the use of the word Agni, as in that hymn. Here ends the ninety-seventh hymn of the first Mandala of the Rigveda.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top