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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः देवता - द्रुघण इन्द्रो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒द्नो ह्र॒दम॑पिब॒ज्जर्हृ॑षाण॒: कूटं॑ स्म तृं॒हद॒भिमा॑तिमेति । प्र मु॒ष्कभा॑र॒: श्रव॑ इ॒च्छमा॑नोऽजि॒रं बा॒हू अ॑भर॒त्सिषा॑सन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒द्नः । ह्र॒दम् । अ॒पि॒ब॒त् । जर्हृ॑षाणः । कूट॑म् । स्म॒ । तृं॒हत् । अ॒भिऽमा॑तिम् । ए॒ति॒ । प्र । मु॒ष्कऽभा॑रः । श्रवः॑ । इ॒च्छमा॑नः । अ॒जि॒रम् । बा॒हू इति॑ । अ॒भ॒र॒त् । सिसा॑सन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्नो ह्रदमपिबज्जर्हृषाण: कूटं स्म तृंहदभिमातिमेति । प्र मुष्कभार: श्रव इच्छमानोऽजिरं बाहू अभरत्सिषासन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उद्नः । ह्रदम् । अपिबत् । जर्हृषाणः । कूटम् । स्म । तृंहत् । अभिऽमातिम् । एति । प्र । मुष्कऽभारः । श्रवः । इच्छमानः । अजिरम् । बाहू इति । अभरत् । सिसासन् ॥ १०.१०२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जर्हृषाणः) विद्युत्प्रयुक्त वृषभाकार यान तीव्रता को प्राप्त हुआ (उद्नः) जल के (ह्रदम्) जलाशय को (अपिबत्) पीता है (अभिमातिम्) शत्रु के प्रति (एति) आक्रमण करता है (कूटं तृंहत् स्म) पर्वत शिखर को तोड़ता है (मुष्कभारः) पिछले भाग में भार है जिसके (अजिरं श्रवः) गतिशील पतला आहार “पैट्रोल” आदि जैसे को (इच्छमानः) सेवन  करता हुआ (सिषासन्) छिन्न-भिन्न करता हुआ सा (बाहू) मित्रवरुण विद्युत् की शुष्क आर्द्र दो धाराओं ‘’पोजेटिव नेगेटिव” को (प्र अभरत्) धारण करता है ॥४॥

    भावार्थ

    वृषभ की आकृतिवाला विद्युत्प्रयुक्त यान तीव्र गति को प्राप्त हुआ, जो बहुत बड़े जलभण्डार को पी जाता है और जिसका पीछे का भाग भारी होता है, अपनी शक्ति वेग से पर्वत के शिखर को तोड़ देता है, जो बिजली की दो तरङ्गों को धारण करता है, शत्रु के प्रति भारी आक्रमण करता है, ऐसा यान बनाना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    उदक-हृद का पान

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार तामस व राजस बन्धनों से ऊपर उठने पर यह साधक (उद्नः) = उदक की (हृदम्) = झील को (अपिबत्) = अपने अन्दर पीनेवाला होता है। रेतःकण ही शरीर में उदक बिन्दु हैं [ आप: रेतो भूत्वा० ] । 'वीर्य कोश' ही उदकहृद है। उसके पान का अभिप्राय है 'उसकी ऊर्ध्वगति करना' । प्राणायाम के द्वारा जब यह ऊर्ध्वरेता बनता है तो इस वीर्य के रुधिर में व्याप्त हो जाने पर यह उस उदकहृद को अपने अन्दर पी लेता है। ऐसा करने पर (जर्हृषाण:) = यह बड़ी प्रसन्नतावाला होता है। शरीर व मन के स्वस्थ होने से यह आह्लादमय होता है। अपने जीवन में से (कूटम्) = छल छिद्र को (तृहत् स्म) = निश्चय से विनष्ट कर देता है। (अभिमातिम्) = अभिमान आदि शत्रुओं पर (एति) = आक्रमण करता है। [२] (प्र मुष्कभारः) = [मुष्क = muscle ] बड़े सुगठित शरीर को [museular body] धारण करनेवाला होता है [मुष्कं विभर्ति] । (श्रवः इच्छमान:) = ज्ञान को चाहनेवाला होता है, ज्ञान रूचि बनता है । (सिषासन्) = [संभक्तुमिच्छन्] प्रभु के सम्भजन की कामना करता हुआ यह साधक (अजिरम्) = शीघ्र ही [क्षिप्रं सा० ] (बाहू) = [बाह् प्रयत्ने] दोनों प्रयत्नों का (अभरत्) = धारण करनेवाला होता है। यहाँ दोनों प्रयत्नों का संकेत 'मुष्कभारः व श्रवइच्छमानः' शब्दों से हुआ है शरीर में बल व मस्तिष्क में ज्ञान का सम्पादन ही उभयविध प्रयत्न है । यही ब्रह्म व क्षत्र का अपने में समन्वय करना है। एक स्वस्थ ज्ञानी पुरुष ही प्रभु का सच्चा उपासक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोम को शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें। इससे शरीर को सबल व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाएँ । यही प्रभु का उपासन है ।

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    विषय

    बरसते मेघ के तुल्य वीर पुरुष का कार्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य या मेघ (उद्नः ह्रदम्) जल से भरे जलाशय को (अपिबत्) पान कर लेता है, और (जर्ह्रषाणः) उसे हरण करता हुआ (कूटम् तृंहत्) पर्वत से टकराता है, (मुष्कभारः) पृथ्वी से लिये जल को (बाहू) मानों दोनों बाहुओं से (श्रवः प्र अभरत्) इच्छापूर्वक अन्न प्रदान करता है, और (अजिरं सिषासन्) निरन्तर वेग से जल विभक्त करता है उसी प्रकार वीर पुरुष (जर्ह्रषाणः) हर्षित होकर (ह्रदम् अपिबत्) उत्तम बलदायक रस का पान करता हुआ (कूटम्) छल से युक्त (अभिमातिम् एति) अभिमानी शत्रु पर आक्रमण करता है, (श्रवः इच्छमानः) यश चाहता हुआ, (मुष्क-भारः) परिपुष्ट सामर्थ्यवान् होकर (सिषासन) ऐश्वर्य चाहता हुआ (अजिरं) वेग से (वाहू प्र अभरत्) शत्रु के पीड़ाकारी दोनों सैन्यदलों से प्रहार करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जर्हृषाणः-उद्नः-ह्रदम्-अपिबत्) विद्युत्प्रयुक्तो वृषभाकाररथस्तीव्रतां प्राप्यमाणो जलस्य जलाशयं जलागारमिव पिबति (अभिमातिम्-एति) शत्रुं प्रत्याक्रामति “सपत्नो वा अभिमातिः” [श० ३।९।४।९] (कूटं तृंहत् स्म) पर्वतशिखरम्-छिनत्ति त्रोटयति (मुष्कभारः-अजिरं श्रवः-इच्छमानः) मुष्के पश्चिमभागे भारो यस्य स तथाभूतः सन् गतिशीलम्-अन्नम् “पेट्रोलादिकम्” इच्छमानः “श्रवः अन्ननाम” [निघ० २।७] सेवमानः (सिषासन् बाहू प्र अभरत्) सम्भक्तुमिच्छन्निव मित्रावरुणौ स्वतरङ्गौ शुष्कार्द्रौ “Positive-Negative” “बाहू वै मित्रावरुणौ” [श० ५।४।१।१२] प्रभरति धारयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, exalted spirit of energy and joyous generosity, overflows with the spirit of life and love and enmity. Abundant and rapturous as a roaring cloud, loving order and enlightenment, he wields the twin arms of positive and negative power and, building and breaking, breaking and building, he advances upon the areas of conflict and darkness seeking to bring in light and love.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृषभाच्या आकृतीचे विद्युत प्रयुक्त यान तीव्र गतीने फार मोठ्या जलाचे भांडार पिऊन टाकते. ज्याचा मागचा भाग वजनदार असून, आपल्या शक्तीच्या वेगाने पर्वत शिखर फोडून विद्युतच्या दोन तरंगांना धारण करते व शत्रूवर अत्यंत वेगाने आक्रमण करते, असे यान बनविता आले पाहिजे. ॥४॥

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