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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः देवता - द्रुघण इन्द्रो वा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क॒कर्द॑वे वृष॒भो यु॒क्त आ॑सी॒दवा॑वची॒त्सार॑थिरस्य के॒शी । दुधे॑र्यु॒क्तस्य॒ द्रव॑तः स॒हान॑स ऋ॒च्छन्ति॑ ष्मा नि॒ष्पदो॑ मुद्ग॒लानी॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒र्कऽदे॑वे । वृ॒ष॒भः । आ॒सी॒त् । अवा॑वचीत् । सार॑थिः । अ॒स्य॒ । के॒शी । दुधेः॑ । यु॒क्तस्य॑ । द्रव॑तः । स॒ह । अन॑सा । ऋ॒च्छन्ति॑ । स्म॒ । निः॒ऽपदः॑ । मु॒द्ग॒लानी॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ककर्दवे वृषभो युक्त आसीदवावचीत्सारथिरस्य केशी । दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कर्कऽदेवे । वृषभः । आसीत् । अवावचीत् । सारथिः । अस्य । केशी । दुधेः । युक्तस्य । द्रवतः । सह । अनसा । ऋच्छन्ति । स्म । निःऽपदः । मुद्गलानीम् ॥ १०.१०२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ककर्दवे) कुत्सित शब्द गर्वित शब्द करनेवाले शत्रु के लिए (वृषभः) वृषभ आकृतिवाला रथ-यान (युक्तः-आसीत्) योजित होता है (अस्य केशी) इसकी विद्युत् सारथि (सारथिः-अवावचीत्) पुनः-पुनः शब्द कराती है (अनसा सह) शकट के-रथयान के साथ (युक्तस्य दुधेः) संयुक्त दृढ (द्रवतः) दौड़ते हुए के (निष्पदः) निरन्तर चलती हुई की (मुद्गलानीम्) कला विद्युत्तरङ्ग माला को (ऋच्छन्ति) प्राप्त करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    गर्वित शत्रु के प्रति वृषभाकृति यान बनाना चाहिये और इसकी विद्युत् सारथि बनकर शत्रु के लिए घोषणा करावे, तीव्र गति से बिजली की तरङ्ग मालाओं को प्राप्त कराना चाहिये, शत्रु पर फेंकना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    मुद्गलानी की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (वृषभः) = वह शक्तिशाली प्रभु (ककर्दवे) = अन्तःशत्रुओं के हिंसन के लिए (युक्तः आसीत्) = योग के द्वारा संबद्ध किया हुआ था। योगांगों के अनुष्ठान से उस प्रभु का हमने उपासन किया। उस समय केशी ज्ञानरश्मियोंवाला (अस्य सारथिः) = जीव के शरीर रथ का संचालक वह प्रभु (अवावचीत्) = खूब ही उसे सन्मार्ग के उपदेश का देनेवाला हुआ । योगयुक्त होने पर वह प्रभु हृदयस्थरूपेण हमें ज्ञानोपदेश देते ही हैं। [२] इस ज्ञानोपदेश के होने पर (दुधेः) = इस (दुर्धर) = कठिनता से धारण करने योग्य, (द्रवतः) = इधर-उधर दौड़ते हुए, (अनसा सह) = इस शरीररथ के साथ (युक्तस्य) = युक्त हुए हुए मन के (निष्पदः) = [पद् गतौ ] गतिशून्य करनेवाले, स्थिर करनेवाले अभ्यासी लोग (मुद्गलानीम्) = 'मुद्गल' जीव की पत्नीरूप इस बुद्धि को (ऋच्छन्ति स्म) = अवश्य प्राप्त होते हैं। मन के स्थिर होने पर 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' प्राप्त होती है। मानस स्थिरता बुद्धि प्राप्ति के लिए आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के साथ सम्पर्क होने पर सब वासनाओं का संहार हो जाता है। मानस स्थिरता के होने पर बुद्धि का विकास होता है ।

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    विषय

    दुःखनाशार्थ प्रभु की स्तुति। प्रभु का आदेश, और उसका साक्षात् दर्शन।

    भावार्थ

    (ककर्दवे) दुःख बन्धन को काटने के लिये (वृषभः) समस्त सुखों को वर्षाने वाले प्रभु को (युक्तः आसीत्) योग द्वारा समाहित चित्त से ध्यान किया जाता है। वह ही (केशीं) सूर्य के तुल्य नाना ज्ञानरश्मियों से सम्पन्न, तेजस्वी होकर (अस्य) इस जीव संसार को (सारथिः) रथ-सञ्चालक के समान (अवावचीत्) उसको स्पष्ट रूप से उपदेश करता है। (अनसा) प्राण शक्ति या जीवन के साथ (द्रवतः) वेग से जाने वाले (युक्तस्य) योगद्वारा समाहित, ध्यान किये गये (दुधेः) दुःख से धारण करने योग्य, दुर्गम्य, (निष्पदः) ज्ञानक्षेत्र से दूर उस आत्मतत्त्व की (मुद्गलानीम्) सुखदात्री परमानन्द दायक शक्ति को (अनसा सह ऋच्छन्ति) अपने प्राण के साथ ही साक्षात् करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ककर्दवे वृषभः-युक्तः आसीत्) कुत्सितशब्दकारिणे शत्रवे “कर्द कुत्सितशब्दे” [भ्वादि०] ‘ततः औणादिक उः प्रत्ययः’ वृषभाकृतिमान् रथो योजयितव्यो भवति (अस्य केशी सारथिः-अवावचीत्) अस्य सारथिर्विद्युदग्निः “केशी प्रकाशनात्” [निरु० १२।२५] “त्रयः केशिन ऋतुथा विचक्षे” [ऋ० १।१६४।४४] सारथिः पुनः पुनर्ध्वनिं कारयति (अनसा सहयुक्तस्य दुधेः-द्रवतः) शकटेन-पूर्वोक्तेन कलारथेन सह संयुक्तस्य दुर्धरस्य दृढस्य “रेफलोपश्छान्दसः” प्रापयमानस्य (निष्पदः-मुद्गलानीम्-ऋच्छन्ति) निरन्तरं पद्यमानाश्च कला विद्युत्तरङ्गमालां प्राप्नुवन्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Generous and joyous, lord of evolution and progress is Indra, Vrshabha, Mudgala, terribly strong, committed to positivity. Its chariot conductor like the electric force in the firmament, magnetic force on earth and socio-political forces in society, is vocal, thunderous and far reaching like hair on the head and radiations of the sun. Of this determined, committed, radiant lord in state alongwith its conductive force, the allies are like atoms of energy in nature and individuals in society. These all join its consort power, Mudgalani, of their own will, without any coercion or outside basis of supportive and persuasive elements.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गर्विष्ठ शत्रूसाठी वृषभाकृती यान बनविले पाहिजे व विद्युतला सारथी बनवून गर्जना केली पाहिजे आणि तीव्र गतीने विद्युत तरंगमाला प्राप्त करवून शत्रूवर फेकली पाहिजे. ॥६॥

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