ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 5
ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः
देवता - द्रुघण इन्द्रो वा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न्य॑क्रन्दयन्नुप॒यन्त॑ एन॒ममे॑हयन्वृष॒भं मध्य॑ आ॒जेः । तेन॒ सूभ॑र्वं श॒तव॑त्स॒हस्रं॒ गवां॒ मुद्ग॑लः प्र॒धने॑ जिगाय ॥
स्वर सहित पद पाठनि । अ॒क्र॒न्द॒य॒न् । उ॒प॒ऽयन्तः॑ । ए॒न॒म् । अमे॑हयन् । वृ॒ष॒भम् । मध्ये॑ । आ॒जेः । तेन॑ । सूभ॑र्वम् । श॒तऽव॑त् । स॒हस्र॑म् । गवा॑म् । मुद्ग॑लः । प्र॒ऽधने॑ । जि॒गा॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यक्रन्दयन्नुपयन्त एनममेहयन्वृषभं मध्य आजेः । तेन सूभर्वं शतवत्सहस्रं गवां मुद्गलः प्रधने जिगाय ॥
स्वर रहित पद पाठनि । अक्रन्दयन् । उपऽयन्तः । एनम् । अमेहयन् । वृषभम् । मध्ये । आजेः । तेन । सूभर्वम् । शतऽवत् । सहस्रम् । गवाम् । मुद्गलः । प्रऽधने । जिगाय ॥ १०.१०२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एनं वृषभम्) इस वृषभाकृतिवाले रथयान को (उपयन्तः) ऊपर प्राप्त होते हुए ऊपर बैठते हुए (आजेः-मध्ये) संग्राम के मध्य में (नि अक्रन्दयन्) घनघोष कराते हुए (अमेहयन्) जल बरसाते हैं-भाप की वर्षा कराते हैं (मुद्गलः) शत्रु के मद को निगलनेवाले (तेन) वृषभ आकृतिवाले रथ से (गवां शतवत् सहस्रम्) वृषभों के सौ या सहस्र गुणित बल को (सुभर्वम्) तथा शोभन अदनीय भोग्य धनादि को (प्रधने-जिगाय) संग्राम में जीतता है ॥५॥
भावार्थ
वृषभाकृतिवाले यान के ऊपर सैनिक जन बैठते हैं और उससे घोष कराते हुए भाप की वर्षा कराते हैं, उसमें शतगुणित सहस्रगुणित वृषभों का बल होता है, संग्राम में उसके द्वारा शत्रु के बहुत से धन को जीता जाता है ॥५॥
विषय
उपासना से शक्ति-सम्पन्नता
पदार्थ
[१] (एनम्) = इस (वृषभम्) = शक्तिशाली व सब सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु को (उपयन्तः) = समीपता से प्राप्त होते हुए, अर्थात् प्रभु का उपासन करते हुए (नि अक्रन्दयन्) = खूब ही उस प्रभु का आह्वान करते हैं । (आजेः मध्ये) = इस जीवन संग्राम के मध्य में प्रभु [को] (अमेहयन्) = शक्ति का वर्षण कराते हैं। उपासना से उपासक अपने को प्रभु की शक्ति से सिक्त करता है । इसी शक्ति से ही तो वह संग्राम में विजय को प्राप्त करेगा। [२] (तेन) = अपने में उस प्रभु शक्ति के सेचन के द्वारा (मुद्गलः) = यह ओषधि वनस्पतियों का सेवन करनेवाला (प्रधने) = संग्राम में उत्कृष्ट ऐश्वर्य की प्राप्ति के निमित्तभूत संग्राम में (गवां जिगाय) = इन्द्रियरूप गौवों का विजय करता है। इस प्रकार विजय करता है जिससे कि (सूभर्वम्) = [भर्वति अत्तिकर्मा नि० २।८] ये इन्द्रियाँ उत्तम ही भोजनवाली होती हैं, इनका भरण उत्तमता से होता है । (शतवत्) = ये सौ वर्षोंवाली होती हैं, अर्थात् शतवर्ष पर्यन्त इनकी शक्ति जीर्ण नहीं होती। (सहस्रम्) = [सहस्] ये प्रसन्नता से परिपूर्ण होती हैं अथवा सहस्रों कार्यों को सम्पन्न करनेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासन से शक्ति प्राप्त होती है। इस शक्ति से हम अन्तः शत्रुओं का पराजय करके जितेन्द्रिय बनते हैं। उससे इन्द्रियाँ उत्तम विषयों में विचरती हैं [सु+भव्], शतवर्षपर्यन्त शक्तिशाली बनी रहती हैं और हम उत्साह व उल्लास सम्पन्न बने रहते हैं ।
विषय
वृष्टिप्रद मेघ के तुल्य स्तुत्य प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(एनम् वृषभम् उप यन्तः) इस वर्षणशील मेघ को प्राप्त होते हुए वायुगण (नि अक्रन्दयन्) गर्जना कराते हैं और (आजेः मध्ये) अन्तरिक्ष के बीच में (अमेहयन्) उससे वृष्टि कराते हैं। (तेन) उसी से (मुद्गलः) सबको हर्ष प्राप्त कराने वाला (सूभर्वं) उत्तम कर्म-फल के अन्नवत् भोक्ता (शतवत् सहस्रं गवाम्) गतिशील सैकड़ों, हज़ारों प्राणियों को (प्रधने) उत्तम अन्न आदि ऐश्वर्य के निमित्त (जिगाय) वश करता है। (२) उसी प्रकार विद्वान् लोग (वृषभम् उप प्रयन्तः) बलवान्, सर्वसुखवर्षी प्रभु की उपासना करते हुए (नि अक्रन्दयन्) उसकी खूब २ स्तुति करते हैं। इसी स्तुति कर्म से (प्रधने) उत्कृष्ट धनसम्पन्न प्रभु के निमित्त (मुद्गलः) आनन्द प्राप्त करने वाला विद्वान् (सूभर्वम्) सुख से ग्रहण-धारण करने योग्य (गवां शतवत् सहस्रं) सौ से युक्त सहस्र वाणियों अर्थात् अनेक वाणियों को भी (जिगाय) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एनं वृषभम्-उपयन्तः) एतं वृषभाकृतिकं रथं यानविशेषमुपप्राप्नुवन्त उपरि तिष्ठन्तः (आजेः-मध्ये नि अक्रन्दयन्-अमेहयन्) सङ्ग्रामस्य मध्ये निघोषयन्ति नितरां शब्दं कारयन्ति तथा मेहयन्ति तेन जलं वर्षयन्ति (मुद्गलः-तेन गवां शतवत् सहस्रम्) योऽयं शत्रोर्मदं निगिलति निगिरति तेन वृषभाकारेण रथेन गवां-वृषभाणां शतगुणितं सहस्रगुणितं बलं (सुभर्वम्) शोभनमदनीयं भोग्यम् “भर्वति अत्तिकर्मा” [निघ० २।८] धनादिकं (प्रधने जिगाय) सङ्ग्रामे “प्रधनम्-सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१२] जयति धनस्य जयं कारयति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In the battle between the positive and negative forces of nature and humanity, the powers of evolution strike this abundant cloud of concentrated wealth and energy at the closest and make it roar as it breaks into showers. Thus, by the evolutionary process of positive catalysis, does Mudgala, Indra, joyous ruling power of nature and humanity in the struggle for progress, win a hundred-thousandfold sustaining wealth of lands, cows and culture of enlightenment against darkness and negativity.
मराठी (1)
भावार्थ
वृषभाकृती असणाऱ्या यानावर सैनिक बसतात व मोठ्या आवाजाने वाफेची वृष्टी करवितात. त्यात शंभरपट किंवा सहस्रपट वृषभांचे बल असते. युद्धात त्याच्याद्वारे शत्रूचे पुष्कळ धन जिंकता येते. ॥५॥
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