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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः देवता - द्रुघण इन्द्रो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं तं प॑श्य वृष॒भस्य॒ युञ्जं॒ काष्ठा॑या॒ मध्ये॑ द्रुघ॒णं शया॑नम् । येन॑ जि॒गाय॑ श॒तव॑त्स॒हस्रं॒ गवां॒ मुद्ग॑लः पृत॒नाज्ये॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । तम् । प॒श्य॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । युञ्ज॑म् । काष्ठा॑याः । मध्ये॑ । द्र॒ुऽघ॒णम् । शया॑नम् । येन॑ । जि॒गाय॑ । स॒तऽव॑त् । स॒हस्र॑म् । गवा॑म् । मुद्ग॑लः । पृ॒त॒नाज्ये॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं तं पश्य वृषभस्य युञ्जं काष्ठाया मध्ये द्रुघणं शयानम् । येन जिगाय शतवत्सहस्रं गवां मुद्गलः पृतनाज्येषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । तम् । पश्य । वृषभस्य । युञ्जम् । काष्ठायाः । मध्ये । द्रुऽघणम् । शयानम् । येन । जिगाय । सतऽवत् । सहस्रम् । गवाम् । मुद्गलः । पृतनाज्येषु ॥ १०.१०२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषभस्य) वृषभ आकृतिवाले यान के (तम्-इमं युञ्जम्) इस उस योजनीय (द्रुघणम्) काष्ठ आदि से बने ढाँचे को (काष्ठायाः-मध्ये) संग्रामभूमि के अन्दर (शयानं पश्य) पड़े हुए को देख (येन) जिस साधन से (मुद्गलः) मुद्ग पक्षिविशेष की आकृतिवाले छोटे यन्त्र के स्वामी चालक (गवां शतवत् सहस्रम्) लोकिक साँडों के शतगुणित और सहस्रगुणित शत्रुबल को (पृतनाज्येषु) संग्रामों में (जिगाय) जीतता है ॥९॥

    भावार्थ

    वृषभ आकृतिवाले यान में एक लघु यन्त्र जिसके अन्दर होता है, उसमें सौ गुणित या सहस्रगुणित साँडों के समान शत्रु के बल को जीतने का सामर्थ्य होता है, उसे चालक चलाया करता है ॥९॥

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    विषय

    शक्तिशाली को प्राप्त होनेवाले प्रभु

    पदार्थ

    [१] (इमम्) = इस (तम्) = उस प्रसिद्ध प्रभु को पश्य देख । जो प्रभु (वृषभस्य युञ्जम्) = शक्तिशाली को अपने साथ जोड़नेवाले हैं, जो शक्तिशाली को प्राप्त होते हैं । (काष्ठायाः) = दिशाओं के (मध्ये) = मध्य में (शयानम्) = निवास करनेवाले (द्रुघणम्) = संसार वृक्ष को नष्ट करनेवाले प्रभु को [पश्यः] देख । वे प्रभु सब दिशाओं में सर्वत्र व्याप्त हैं, इन प्रभु की उपासना से मनुष्य इस संसार वृक्ष को काट पाता है। प्रभु संसार वृक्ष को छिन्न करके हमारी मुक्ति का साधन बनते हैं । [२] उस प्रभु को देख (येन) = जिससे (पृतनाज्येषु) = संग्रामों में (मुद्गलः) = ओषधि वनस्पतियों का सेवन करनेवाला प्रभु-भक्त (शतवत्) = सौ वर्ष तक ठीक चलनेवाली (सहस्रम्) = प्रसन्नता से युक्त (गवाम्) = इन्द्रियों को (जिगाय) = जीतता है । प्रभु-भक्ति से इन्द्रियों की शक्ति सौ वर्ष तक ठीक बनी रहती है, इन्द्रियाँ प्रसन्न व निर्मल बनी रहती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु शक्तिशाली को अपने साथ जोड़ते हैं । सर्वत्र व्याप्त होकर संसार वृक्ष के छेदन से हमारे मोक्ष का कारण बनते हैं । इस प्रभु के उपासन से हम इन्द्रियों का विजय कर पाते हैं ।

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    विषय

    देह में आत्मा के सदृश विश्व में व्यापक प्रभु।

    भावार्थ

    (इमं तं) इस उस (वृषभस्य) परम सुखवर्षी प्रभु के (युञ्जं) योग या नियोजक, प्रेरक बल को (पश्य) देख, (काष्ठायाः मध्ये) दिशा, उपदिशा, प्रकृति के परमाणु और सूर्यादि सब के बीच मैंमें (द्रु-घनम्) अपने वेगवान् गति या शक्ति से सबको आघात करने वाला वा उसमें (शयानम्) व्यापक है। (येन) जिस। (येन) जिस योग के द्वारा (मुङ्गलः) वह आनन्दप्रद (गवां शतवत् सहस्रं) सूर्यों और भूमियों के सैकड़ों, हज़ारों को (पृतनाज्येषु जिगाय) संग्रामों में वीर के तुल्य मनुष्यों से वसने योग्य लोकों में विजय करता, वश करता है। अध्यात्म में—आत्मा वह वृषभ है। इसका यह देह रूप ‘काष्ठा’ है। उसमें यह द्रुघन = चित्-घन होकर रह रहा है, इससे वह इस देह में (शतवत् गवां सहस्रं) सौ वर्षों वाले सहस्रों सूर्यो अर्थात् दिनों को पार कर लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषभस्य) वृषभाकृतियानस्य (तम्-इमं युञ्जम्) तमिमं योक्तव्यं (द्रुघणम्) द्रुमयं काष्ठादिमयं पञ्जरं (काष्ठायाः-मध्ये) सङ्ग्रामान्ते मध्ये “आज्यन्तोऽपि काष्ठोच्यते” [निरु० २।१६] (शयानं पश्य) शयानमिव स्थीयमानं पश्य (येन मुद्गलः) येन साधनेन मुद्गपक्षिसदृशा कृतिमान् लघुयन्त्रविशेषस्तद्वान् स्वामी चालकः “अकारो मत्वर्थीयश्छान्दसः” (गवां शतवत्सहस्रम्) लौकिकगवां शतसंख्यावत् तथा सहस्रगुणितं यानबलं (पृतनाज्येषु) सङ्ग्रामेषु “पृतनाज्यं सङ्ग्रामनाम०” [निघ० २।१७] (जिगाय) जयति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Watch this, the power and force of the might and mace of Indra within the battle field of existence, destroying hate and enmity and abiding at peace by which Mudgala, generous lord of abundance in the warlike contests of life forces, has won a hundred thousandfold wealth of lands, cows and culture for the enlightenment of people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    एक लहान यंत्र ज्यात असते त्या वृषभ आकृतीच्या यानात शंभरपट किंवा सहस्रपट बैलाप्रमाणे शत्रूचे बल जिंकण्याचे सामर्थ्य असते. त्याला चालक चालवितो. ॥९॥

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