ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
ऋषिः - दिव्यो दक्षिणा वा प्राजापत्या
देवता - दक्षिणा तद्दातारों वा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दैवी॑ पू॒र्तिर्दक्षि॑णा देवय॒ज्या न क॑वा॒रिभ्यो॑ न॒हि ते पृ॒णन्ति॑ । अथा॒ नर॒: प्रय॑तदक्षिणासोऽवद्यभि॒या ब॒हव॑: पृणन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठदैवी॑ । पू॒र्तिः । दक्षि॑णा । दे॒व॒ऽय॒ज्या । न । क॒व॒ऽअ॒रिभ्यः॑ । न॒हि । ते । पृ॒णन्ति॑ । अथ॑ । नरः॑ । प्रय॑तऽदक्षिणासः । अ॒व॒द्य॒ऽभि॒या । ब॒हवः॑ । पृ॒ण॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दैवी पूर्तिर्दक्षिणा देवयज्या न कवारिभ्यो नहि ते पृणन्ति । अथा नर: प्रयतदक्षिणासोऽवद्यभिया बहव: पृणन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठदैवी । पूर्तिः । दक्षिणा । देवऽयज्या । न । कवऽअरिभ्यः । नहि । ते । पृणन्ति । अथ । नरः । प्रयतऽदक्षिणासः । अवद्यऽभिया । बहवः । पृणन्ति ॥ १०.१०७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 107; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दक्षिणा) ऋत्विक् आदि को दी हुई धन दक्षिणा (देवयज्या) परमदेव की संगति की निमित्त या संगति करानेवाली (दैवी पूर्तिः) अलौकिकी शक्ति कामपूरिका है (कवारिभ्यः-न) कुत्सित धनस्वामियों के लिये नहीं-जो अपने धन में से किसी को नहीं देते, वे कुत्सित धनवाले हैं (नहि ते पृणन्ति) वे दूसरे को धन दक्षिणा से तृप्त नहीं करते हैं (अथ) और (प्रयतदक्षिणासः नरः-बहवः) दी है-देते हैं दक्षिणा, ऐसे दक्षिणा देनेवाले जन बहुत हैं, जो (अवद्यभिया पृणन्ति) निन्दा के भय से दूसरे को धन दक्षिणा देकर तृप्त करते हैं, धन बहुत है, फिर भी नहीं देते हैं, इस निन्दा से बचने को देते हैं, वे भी अच्छे हैं न देनेवालों से ॥३॥
भावार्थ
यज्ञ आदि शुभकर्म प्रवचन श्रवण करके पुरोहित आदि विद्वानों को दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए, परमात्मदेव संगति का स्थूल साधन है, कामना पूर्ण करनेवाली दैवी शक्ति है, जो अपने धन से अन्य का हित नहीं साधते, वे तो पापी हैं, उनकी कामना पूर्ण नहीं करती है, निन्दा के भय से देना भी श्रेष्ठ है, न देनेवालों से अच्छे हैं ॥३॥
विषय
दान = दैवीपूर्ति
पदार्थ
[१] (दक्षिणा) = दान (दैवी पूर्ति:) = देव-सम्बन्धिनी पूर्ति है । जितना-जितना हम दान करते हैं, उतना-उतना उस देव का अपने में पूरण करते हैं। यह दान (देवयज्या) = उस देव का पूजन है अथवा उसके साथ संगतिकरण है । यह देवयज्या (कवारिभ्यः न) = [कु, ऋ गतौ] कुत्सित गतिवालों के लिए नहीं है। ये कुत्सित गतिवाले पुरुष न दान देते हैं और ना ही प्रभु की भावना को अपने में भर पाते हैं। (ते) = वे कवारि पुरुष (नहि पृणन्ति) = प्रभु की प्रीणित नहीं कर पाते [ delight, please]। प्रभु की प्रसन्नता इसी में है कि प्रभु से दिये गये धन को हम प्रभु के प्राणियों के हित में प्रयुक्त करें। [२] (अथा) = सो अब (बहवः) = बहुत से वे (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुष (प्रयत-दक्षिणासः) = पवित्र दान की वृत्तिवाले होते हैं । (अवद्यभिया) = पाप के भय से वे देते ही हैं। उन्हें यह विश्वास होता है कि धन का दान न करेंगे तो धनासक्त होकर पाप में फँस जाएँगे। इसलिए दान देते हुए ये लोग (पृणन्ति) = उस प्रभु को प्रीणित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - दानवृत्ति हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती है। अदानवृत्ति प्रभु से दूर ले जाती है।
विषय
विद्वानों के पालन का उत्तम उपाय दक्षिणा।
भावार्थ
जिस प्रकार (देवयज्या) देव अर्थात् प्रकाशवान् किरणों से दी जाने योग्य (दक्षिणा) जल अन्न सम्पदा (दैवी पूर्तिः) देव, भगवान् वा सूर्यादि देवों की जगत् के जीवों को पालन करने की रीति है उसी प्रकार (देव-यज्या दक्षिणा) विद्वानों को आदर सत्कार से दिया जाने वाला (दक्षिणा) अन्न द्रव्यादि का दान भी (दैवी पूर्त्तिः) देव अर्थात् दाता द्वारा की गई विद्वानों की पालना की उत्तम व्यवस्था है। वह उत्तम पालन करने का साधन (कव-अरिभ्यः न) कदर्य, कु-स्वामी वा कुत्सित धनों के मालिकों को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि (नहि ते पृणन्ति) वे दूसरे का पालन नहीं करते। (अथ) और (बहवः) बहुतसे (प्रयत-दक्षिणासः) दक्षिणा, अन्न, द्रव्यादि के देने वाले (नरः) लोग (अवद्य-भिया) निन्दनीय पाप या निंदा से भय कर के, (पृणन्ति) अन्यों का पालन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्दिव्य आंगिरसो दक्षिणा वा प्राजापत्या॥ देवता—दक्षिणा, तद्दातारो वा॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुपु। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृञ्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दक्षिणा देवयज्या) दक्षिणा खलु देवस्य सङ्गतिनिमित्ता देवस्य सङ्गतिकारिणी तस्माद्दीयते ह्यृत्विग्भ्यः (दैवी पूर्तिः) सैषा खल्वलौकिकी शक्तिः कामपूरयित्री भवति (कवारिभ्यः-न) कुत्सितधनस्वामिभ्यः “ईश्वरोऽप्यरिरेतस्मादेव” [निरु० ५।७] न कामपूर्तिर्भवति, यतः (नहि ते पृणन्ति) नहि ते स्वधनेन दक्षिणारूपेण-ऋत्विगादीन् तर्पयन्ति तस्मात् ते निन्दिताः स्वामिनः सन्ति (अथ प्रयतदक्षिणासः-नरः) अथ च दत्तदक्षिणा जनाः (बहवः) बहवः सन्ति (अवद्यभिया पृणन्ति) निन्दाभीत्याऽन्यान् धनदक्षिणया तर्पयन्ति, यत् सत्यपि धनाबाहुल्ये न प्रयच्छन्ति दानं दक्षिणा वेति तेऽपि शुभाः सन्त्यप्रयुच्छद्भ्यः ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Divine fulfilment and yajnic dakshina for the holy Devas is not for the stingy, selfish and the mean, because they give not for anyone, anything. And many are those who give liberally for fear of ignominy and shame, they give for the fulfilment of the deserving holy ones.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञ इत्यादी शुभकर्म, प्रवचन, श्रवण करून पुरोहित इत्यादी विद्वानांना दक्षिणा अवश्य दिली पाहिजे. परमात्मदेवाच्या संगतीचे हे स्थूल साधन आहे. कामना पूर्ण करणारी दैवीशक्ती आहे. जे आपल्या धनाने इतरांचे हित करत नाहीत. ते पापी असतात. धनवान असूनही जे दक्षिणा देत नाहीत त्यापेक्षा निंदेच्या भयाने देणारे ठीक आहेत. न देणाऱ्यापेक्षा ते चांगले आहेत. ॥३॥
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