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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 107/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दिव्यो दक्षिणा वा प्राजापत्या देवता - दक्षिणा तद्दातारों वा छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न भो॒जा म॑म्रु॒र्न न्य॒र्थमी॑यु॒र्न रि॑ष्यन्ति॒ न व्य॑थन्ते ह भो॒जाः । इ॒दं यद्विश्वं॒ भुव॑नं॒ स्व॑श्चै॒तत्सर्वं॒ दक्षि॑णैभ्यो ददाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । भो॒जाः । म॒म्रुः॒ । न । नि॒ऽअ॒र्थम् । ई॒युः॒ । न । रि॒ष्य॒न्ति॒ । न । व्य॒थ॒न्ते॒ । ह॒ । भो॒जाः । इ॒दम् । यत् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । स्वः॑ । च॒ । ए॒तत् । सर्व॑म् । दक्षि॑णा । ए॒भ्यः॒ । द॒दा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न भोजा मम्रुर्न न्यर्थमीयुर्न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजाः । इदं यद्विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्सर्वं दक्षिणैभ्यो ददाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । भोजाः । मम्रुः । न । निऽअर्थम् । ईयुः । न । रिष्यन्ति । न । व्यथन्ते । ह । भोजाः । इदम् । यत् । विश्वम् । भुवनम् । स्वः । च । एतत् । सर्वम् । दक्षिणा । एभ्यः । ददाति ॥ १०.१०७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 107; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भोजाः) दक्षिणादान से दूसरों का पालन करनेवाले (न मम्रुः) नहीं मरते हैं, जैसे धन से अन्य धनी जन चोरादि द्वारा मारे जाते हैं तथा अन्यों का पालन करनेवालों का नाम भी पश्चात् लोग स्मरण करते हैं (नि-अर्थं न-ईयुः) अर्थहीनता व दरिद्रता को नहीं प्राप्त होते, अवसर पर बहुत धन मिल जाता है (न रिष्यन्ति) न किन्हीं के द्वारा पीड़ित होते हैं किन्तु अदाता जन ही अनेक प्रकार से पीड़ित होते हैं (भोजाः) दूसरों को पालनेवाले (न व्यथन्ते) व्यथा को प्राप्त नहीं होते, व्यर्थ भोग से ही व्यथा को प्राप्त होते हैं (यत्-इत्) जो यह (विश्वं भुवनम्) सब जगत् व्यक्त है (स्वः-च) और विशिष्ट सुख (एतत्-सर्वम्) यह सब (दक्षिणा) दक्षिणा (एभ्यः) दक्षिणा देनेवालों के लिए (ददाति) देनी है, सदाचरणवाले होने से सब सिद्ध हो जाता है ॥८॥

    भावार्थ

    दूसरों को पालनेवाले जन दक्षिणा आदि देकर के नहीं मरते हैं, जैसे अन्य धनी चोरादि द्वारा मारे जाते हैं। उनका नाम संसार में देर तक रहता है, वे दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते, आवश्यकता के अनुसार उन्हें सब कुछ मिल जाता है। दक्षिणा दक्षिणा देनेवालों के लिए सब कुछ सांसारिक व पारलौकिक सुख दे देती है ॥८॥

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    विषय

    दान व उभयलोक कल्याण

    पदार्थ

    [१] (भोजाः) = [भुज पालने] दान के द्वारा औरों का पालन करनेवाले लोग (न मम्रुः) = रोगादि से पीड़ित होकर असमय में मरते नहीं। यह दानवृत्ति इन्हें विषय विलास में फँसने से बचाती है और ये शरीर धारण के लिए ही भोजन करते हुए रोगाक्रान्त नहीं होते। अपने यशः शरीर से तो ये जीवित रहते ही हैं। ये भोज (न्यर्थम्) = निकृष्ट गति को [ऋ गतौः अर्थ ] (न ईयु:) नहीं प्राप्त होते । (ह) = निश्चय से (भोजाः) = ये पालन करनेवाले लोग (न रिष्यन्ति) = हिंसित नहीं होते, वासनाएँ इन्हें अपना शिकार नहीं बना पाती और (न व्यथन्ते) = ये रोगों व अन्य भयों से पीड़ित नहीं होते । [२] यह (दक्षिणा) = दानवृत्ति (एभ्यः) = इन दान देनेवालों के लिए (एतत् सर्वम्) = यह सब कुछ (ददाति) = देती है, (इदम्) = यह (यत्) = जो (विश्वं भुवनम्) = सब लोक है (च) = और जो (स्वः) = स्वर्गलोक है । अर्थात् दक्षिणा से इनका इहलोक व परलोक दोनों ही सुन्दर बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- दान से दोनों लोकों में कल्याण प्राप्त होता है ।

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    विषय

    सर्वपालकों का मान्य पद।

    भावार्थ

    (भोजाः) रक्षा करने वाले जन (न मम्रुः) कभी मरण को प्राप्त नहीं होते। (नि-अर्थम्) निकृष्ट अर्थ, या नीच गति को (न ईयुः) प्राप्त नहीं होते (न रिष्यन्ति) कभी पीड़ित नहीं होते, वे (भोजाः) रक्षक, दाता जन (न व्यथन्ते) क्लेश को प्राप्त नहीं होते। (इदं यत् विश्वं भुवनं) यह जो समस्त उत्पन्न जगत् और (ऐतत सर्वं स्वः) यह समस्त सुख है वह सब (एभ्यः दक्षिणा ददाति) उनको उत्साह शक्ति ही प्रदान करती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दिव्य आंगिरसो दक्षिणा वा प्राजापत्या॥ देवता—दक्षिणा, तद्दातारो वा॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुपु। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृञ्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भोजाः-न मम्रुः) भोजयितारौ दक्षिणादानेन पालयितारः-न म्रियन्ते, धनेन यथा धनिनो म्रियन्ते चोरादिना न तथा म्रियन्तेऽथ च तेषां नामापि पश्चाज्जनाश्चिरं स्मरन्ति (नि-अर्थं न-ईयुः) अर्थहीनत्वं दारिद्र्यं खल्वपि न प्राप्नुवन्ति दक्षिणादानेन न धनहीना भवन्ति-अवसरे बहुधनं लभ्यते (न रिष्यन्ति) न कैश्चित्पीड्यन्ते “परस्मैपदं व्यत्ययेन” अदातॄन्नेवानेकविधया जनाः पीडयन्ति (भोजाः ह न व्यथन्ते) भोजयिता ह खलु नहि व्यथां प्राप्नुवन्ति व्यर्थभोगेनैव जना व्यथां प्राप्नुवन्ति, (यत्-इदं विश्वं भुवनं स्वः-च) यत् खल्वियं सर्वं जगत् व्यक्तं विशिष्टं सुखं (एतत्-सर्वं दक्षिणा-एभ्यः-ददाति) दक्षिणा खल्वेतेभ्यो दक्षिणादातृभ्यो ददाति सदाचरणत्वात् सर्वं सिद्ध्यति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The givers of food die not, nor do they suffer want and poverty, they are never hurt, never violated, never suffer pain, because they give food in charity. And all this that the world is, all this that is comfort, joy and bliss, all this, Dakshina gives to those who give in charity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दुसऱ्यांचे पालनपोषण करणारे लोक दक्षिणा इत्यादी देऊन मरत नाहीत, जसे इतर धनवान चोराकडून मारले जातात. त्यांचे नाव जगात खूप दिवस टिकते. ते दरिद्री होत नाहीत. आवश्यकतेनुसार त्यांना सर्व काही मिळते. दक्षिणाच दक्षिणा देणाऱ्याला सर्व सांसारिक व पारलौकिक सुख देते. ॥८॥

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