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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 107/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दिव्यो दक्षिणा वा प्राजापत्या देवता - दक्षिणा तद्दातारों वा छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    श॒तधा॑रं वा॒युम॒र्कं स्व॒र्विदं॑ नृ॒चक्ष॑स॒स्ते अ॒भि च॑क्षते ह॒विः । ये पृ॒णन्ति॒ प्र च॒ यच्छ॑न्ति संग॒मे ते दक्षि॑णां दुहते स॒प्तमा॑तरम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽधा॑रम् । वा॒युम् । अ॒र्कम् । स्वः॒ऽविद॑म् । नृ॒ऽचक्ष॑सः । ते॒ । अ॒भि । च॒क्ष॒ते॒ । ह॒विः । ये । पृ॒णन्ति॑ । प्र । च॒ । यच्छ॑न्ति । स॒म्ऽग॒मे । ते । दक्षि॑णाम् । दु॒ह॒ते॒ । स॒प्तऽमा॑तरम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतधारं वायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते हविः । ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति संगमे ते दक्षिणां दुहते सप्तमातरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽधारम् । वायुम् । अर्कम् । स्वःऽविदम् । नृऽचक्षसः । ते । अभि । चक्षते । हविः । ये । पृणन्ति । प्र । च । यच्छन्ति । सम्ऽगमे । ते । दक्षिणाम् । दुहते । सप्तऽमातरम् ॥ १०.१०७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 107; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नृचक्षसः) जगत् में जीवनरस के नायक भौतिक देवों को देखते हैं जानते हैं (ते) वे ऐसे द्रष्टा विद्वान् (शतधारं वायुम्) बहुत धारण शक्तिवाले वायु को, तथा (स्वर्विदम् अर्कम्) सुखमय प्रकाश प्राप्त करानेवाले सूर्य को (अभि चक्षते) ठीक जानते हैं (हविः) उन वायु सूर्य के लिये हव्यपदार्थ अग्नि में देते हैं (ये सङ्गमे) जो विद्वानों के सम्मेलन में उपदेशश्रवणप्रसङ्ग में (पृणन्ति) उन्हें भोजन आदि से तृप्त करते हैं (च) और (प्र यच्छन्ति) उन्हें धन आदि देते भी हैं (ते) वे (सहमातरं दक्षिणां दुहते) रस रक्त मांस मेद हड्डी मज्जा शुक्र को निर्माण करनेवाली जीवनशक्ति को पूरित करते हैं-सम्प्राप्त कराते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    भौतिकविज्ञानवेत्ता जन जानते हैं कि जगत् में जीवनरस के नायक वायु और सूर्य हैं, जो शरीरस्थ नाड़ियों में प्रगति तथा उत्तेजना देनेवाले हैं। उनको उपयोगी बनाने के लिए अग्नि में होमद्रव्य से होम करना चाहिए तथा विद्वानों के उपदेशश्रवण के प्रसङ्ग में उनको अच्छे भोजन से तृप्त करना धन आदि देना चाहिए। यह ऐसी दक्षिणा रस रक्त आदि सप्त धातुओं की निर्माण करनेवाली शक्ति मानो दान दी जाती है ॥४॥

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    विषय

    शतधार हवि

    पदार्थ

    [१] (नृचक्षसः) = [चक्ष् to look after ] मनुष्यों का पालन करनेवाले (ते) = वे विद्वान् (हविः) = दानपूर्वक अदन को [ हु दानादनयोः हविः] त्याग करके यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति को (शतधारम्) = सैंकड़ों का धारण करनेवाली (वायुम्) = वायु की तरह प्राणशक्ति को देनेवाली (अर्कम्) = उपासना की साधनभूत (स्वर्विदम्) = प्रकाश व स्वर्ग को प्राप्त करानेवाली (अभिचक्षते) = कहते हैं । त्यागपूर्वक अदन की वृत्ति से हम अपना ही पेट न भरते हुए सैंकड़ों का धारण करते हैं, यह त्यागपूर्वक अदन हमारे लिए वायु की तरह जीवनप्रद होता है, इससे हम प्रभु का आराधन करते हैं और यह हमें स्वर्ग को प्राप्त करानेवाला है । [२] (ये) = जो भी व्यक्ति (पृणन्ति) = इस प्रकार दानवृत्ति से प्रभु को प्रीणित करते हैं, (च) = और (संगमे) = सबके एकत्रित होने के स्थानभूत यज्ञों में (प्रयच्छन्ति) = खूब दान देते हैं, (ते) = वे (दक्षिणाम्) = इस दान को (सप्तमातरम्) = सात से मापकर, अर्थात् सप्तगुणित रूप में (दुहते) = अपने में पूरित करते हैं। जितना देते हैं, वह सप्तगुणित होकर उन्हें प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार दान से धन बढ़ता ही है, कम नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दान ' शतधार, वायु, अर्क व स्वर्विद्' है ।

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    विषय

    दक्षिणा की वायु से तुलना दानशीलों का सत्-साहस और उद्योग। वे भूमि को दोहते हैं।

    भावार्थ

    (नृ-चक्षसः ते) मनुष्यों को उपदेश करने वाले वे विद्वान् पुरुष (हविः) अन्न और दान योग्य उत्तम द्रव्य को (शत-धारं वायुम् अभि चक्षते) सैकड़ों को धारण करने वाले को वायु के तुल्य प्राणदायक ‘वायु’ बतलाते हैं और (स्वर्विदं अर्कं हविः अभि चक्षते) सब को सुखदायी, अर्चना करने का उत्तम साधन बतलाते हैं। (ये पृणन्ति) जो अन्यों का पालन करते हैं, और जो (सं-गमे) सबको एकत्र होने के अवसर यज्ञ आदि में (दक्षिणां प्र यच्छन्ति) अन्न और द्रव्य-दान अर्थात् दक्षिणा रूप उत्साहजनक वस्तु का दान करते हैं वे (सप्त-मातरं दुहते) सात प्राणों को उत्पन्न करने वाली आत्मशक्ति को पूर्ण करते हैं वा (सप्त-मातरम्) सर्पणशील अनेक जन्तुओं की माता पृथिवी का (हुहते) दोहन करते हैं, गोमाता से दूध के समान भूमि-माता से वे अन्न-वस्त्र आदि द्रव्यों को प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दिव्य आंगिरसो दक्षिणा वा प्राजापत्या॥ देवता—दक्षिणा, तद्दातारो वा॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुपु। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृञ्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नृचक्षसः) जगति जीवनरसनायकान् भौतिकदेवान् पश्यन्ति ये तथाभूता द्रष्टारः (ते शतधारं वायुम्) ते बहुधारकं वायुं (स्वर्विदम्-अर्कम्) सुखमयं प्रकाशं प्रापयितारं सूर्यम् (अभि चक्षते) अभि पश्यन्ति जानन्ति (हविः) ताभ्यां वायुसूर्याभ्यां हव्यमग्नौ प्रयच्छन्तीति शेषः (ये सङ्गमे) ये विदुषां सम्मेलने-उपदेशश्रवणप्रसङ्गे (पृणन्ति) भोजनादिना तर्पयन्ति (च) तथा (प्र यच्छन्ति) धनादिकं ददति (ते) ते खलु (सप्तमातरं दक्षिणां दुहते) रसरक्तादिधातुसप्तकनिर्मात्रीं वा शक्तिं प्रपूरयन्ति सम्प्रापयन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    They know and give liberal dakshina for Vayu blowing in a hundred streams, for the sun in heaven and for many other Devas who love, watch and guard humanity. And those who serve the devas and offer homage and gifts in yajna wherein they join the divinities themselves receive the fruits of yajna flowing in by seven streams.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भौतिक वैज्ञानिक जाणतात, की जगाला जीवनरस देणारे नायक वायू व सूर्य आहेत. जे शरीरातील नाड्यांना व्यवस्थित ठेवून उत्तेजित करतात. त्यांचा योग्य उपयोग होण्यासाठी अग्नीत होम द्रव्याने होम केला पाहिजे व विद्वानांच्या संमेलन, उपदेश श्रवणाच्या प्रसंगी त्यांना चांगल्या भोजनाने तृप्त करून धन इत्यादी दिले पाहिजे. ही अशी दक्षिणा रस, रक्त इत्यादी सप्तधातू निर्माण करणारी शक्ती जणू दान या नात्याने दिली जाते. ॥४॥

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