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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्य॒ त्यत्ते॑ महि॒मानं॒ मदे॑ष्वि॒मे म॒ही रोद॑सी॒ नावि॑विक्ताम् । तदोक॒ आ हरि॑भिरिन्द्र यु॒क्तैः प्रि॒येभि॑र्याहि प्रि॒यमन्न॒मच्छ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । त्यत् । ते॒ । म॒हि॒मान॑म् । मदे॑षु । इ॒मे इति॑ । म॒ही इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । न । अवि॑विक्ताम् । तत् । ओकः॑ । आ । हरि॑ऽभिः । इ॒न्द्र॒ । यु॒क्तैः । प्रि॒येभिः॑ । या॒हि॒ । प्रि॒यम् । अन्न॑म् । अच्छ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य त्यत्ते महिमानं मदेष्विमे मही रोदसी नाविविक्ताम् । तदोक आ हरिभिरिन्द्र युक्तैः प्रियेभिर्याहि प्रियमन्नमच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । त्यत् । ते । महिमानम् । मदेषु । इमे इति । मही इति । रोदसी इति । न । अविविक्ताम् । तत् । ओकः । आ । हरिऽभिः । इन्द्र । युक्तैः । प्रियेभिः । याहि । प्रियम् । अन्नम् । अच्छ ॥ १०.११२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यस्य ते) जिस तेरे (मदेषु) बहुत प्रकार के हर्षों में (त्यत्-महिमानम्) उस प्रादुर्भूत प्रताप को (इमे मही) ये बड़े भारी (रोदसी) रोधनशील खगोल के परिधिरूप-आकाश भूमि (न-अविविक्ताम्) रिक्त नहीं कर सकते हैं अथवा तुझसे पृथक् नहीं करते हैं (युक्तैः) योगयुक्त (प्रियेभिः) प्रिय (हरिभिः) उपासक मनुष्यों के द्वारा उपासित हुआ तू (प्रियम्-अन्नम्-अच्छ) प्रिय उपासनारूप अन्नपान को लक्ष्य करके (तत्-ओकः) उन योगयुक्त उपासकों के उस हृदयस्थान को प्राप्त हो ॥४॥

    भावार्थ

    संसार के परिधिरूप ऊपर नीचे के दो स्तर तेरे प्रताप को रिक्त-खाली या तुझसे अलग नहीं कर सकते हैं, तेरे हर्षों के निमित्त आनन्दरसों में उपासक योगियों के द्वारा तू प्रिय उपासनारस को लक्ष्य करके उनके हृदय में साक्षात् होता है ॥४॥

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    विषय

    ज्ञान-शक्ति तथा भक्ति

    पदार्थ

    [१] (यस्य) = जिस (ते) = तेरी (त्यत्) = प्रसिद्ध (महिमानम्) = महिमा को, इमे ये (मही रोदसी) = महत्त्वपूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त हुए हुए (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (मदेषु) = मदों में (न अविविक्ताम्) = पृथक् नहीं करते हैं । (तद् ओकः) = वस्तुतः वही घर है । यहाँ द्यावापृथिवी से अभिप्राय मस्तिष्क व शरीर है। महिमा का भाव 'मह पूजायाम्' से 'पूजा की वृत्ति' है । मस्तिष्क को ज्ञान का गर्व हो जाता है जबकि मनुष्य प्रभु को भूल जाता है। इसी प्रकार प्रभु की विस्मृति में शरीर को शक्ति का गर्व हो जाता है । परन्तु यदि 'ज्ञान व शक्ति' प्रभु की पूजा को अपने से पृथक् न करें और ये तीनों ही चीजें एकत्रित हो जाएँ तो शरीर रूप गृह बड़ा सुन्दर बन जाता है । 'मस्तिष्क में ज्ञान, शरीर में शक्ति, हृदय में प्रभु की महिमा [ = पूजा की भावना] ' बस और क्या चाहिए? ऐसा होने पर यह शरीर गृह सुन्दरतम प्रतीत होने लगता है। गृह तो वही गृह है 'तद् ओकः ' । [२] प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! ऐसे शरीर गृह को प्राप्त करने के लिए (युक्तैः) = अपने-अपने कार्य में जुटे हुए (प्रियेभिः) = अत्यन्त प्रीणनकारी [कान्त व सुन्दर] (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों से (प्रियम्) = तृप्तिजनक व चाहने योग्य (अन्नम्) = सात्त्विक अन्न को (अच्छ) = लक्ष्य करके (आयाहि) = तू समन्तात् प्राप्त हो । शरीर गृह को सुन्दर बनाने के लिए आवश्यक है कि [क] पुरुष जितेन्द्रिय हो [इन्द्र], [ख] इन्द्रियों को कार्य व्यापृत व प्रिय बनाया जाए [युक्तैः प्रियेभि], [ग] अकर्मण्यता न हो [आयाहि], [घ] सात्त्विक अन्न का ही सेवन किया जाए [प्रियमन्नम् अच्छ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर रूप गृह का सौन्दर्य इस बात में है कि मस्तिष्क में गर्वरहित ज्ञान हो शरीर में इसी प्रकार शक्ति तथा हृदय में भक्ति ।

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    विषय

    भक्त और प्रभु का परस्पर स्नेह।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे तेजस्विन् ! हे शत्रुहन्तः ! अन्नादि के देने हारे, हे मेघादि के विदारण करने वाले सूर्य के तुल्य ! (यस्य पपिवान्) जिसका पान व पालन करके, तू (अननुकृत्या) न अनुकरण करने योग्य (रण्या) रण-क्रिया वा युद्धोपयोगी साधनों से (शत्रून् चकर्थ) शत्रुओं का नाश करता, वा (शत्रून्) शत्रुओं को लक्ष्य करके (अननुकृत्या रण्या चकर्थ) दूसरों से अनुकरण न करने योग्य, दुष्कर नाना रणकर्म करता है, वा (अननुकृत्या रण्या चकर्थ) न नाश करने या हर्षध्वनि से प्रकट करने योग्य अनेक कार्यों को सम्पन्न करता है (सः सोमः) वह सोम, ऐश्वर्य, (ते मदाय सुतः) तेरे हर्ष के लिये उत्पन्न है, वह (ते) तेरी (पुरन्धिम् तविषीम्) महान विश्व को पुर के समान धारण करने वाली बड़ी भारी शक्ति को (इयर्ति) बतलाता है। इस देह में सोन अन्न वा वीर्य जिस प्रकार आत्मा की देहधारिणी है शक्ति को प्रकट करता है उसी प्रकार सोम जगत् की उत्पादक और प्रेरक शक्ति को बतलाता और संचालित करता है। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यस्य ते) यस्य तव (मदेषु) बहुविधहर्षेषु (त्यत्-महिमानम्) प्रादुर्भूतं तम् ‘लिङ्गव्यत्ययः’ प्रतापम् “महिमा प्रतापः” [यजु० २३।१५ दयानन्दः] (इमे मही रोदसी) एते महत्यौ रोधनशीले खगोले परिधिभूते द्यावापृथिव्यौ (न-अविविक्ताम्) न रिक्तीकर्त्तुं यद्वा न त्वत्तः पृथक् कर्त्तुं शक्नुतः (युक्तैः) योगयुक्तैः (प्रियेभिः) प्रियैः (हरिभिः) उपासकमनुष्यैः “हरयः-मनुष्यनाम” [निघ० २।३] उपासितः (प्रियम्-अन्नम्-अच्छ) प्रियमुपासनारूपमन्नं दानमभिलक्ष्य (तत्-ओकः) तेषामुपासकानां योगयुक्तानां हृदयस्थानं प्राप्नुहि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, whose grandeur in the state of divine ecstasy even the great heaven and earth do not comprehend, exalted in that very halo and glory of ecstasy, come by the dear golden radiations of divinity harnessed to your chariot and well enjoy the presentations of our homage, the food cherished by Divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमात्मा जगातील परिधिरूप वर खाली (आकाश, भूमी) दोन स्तर तुला वेगळे करू शकत नाहीत. आनदंरसात रमलेल्या उपासकांद्वारे उपासित झालेला तू उपासनारसाला लक्ष्य करून त्यांच्या हृदयात साक्षात होतोस. ॥४॥

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