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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 8
    ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र त॑ इन्द्र पू॒र्व्याणि॒ प्र नू॒नं वी॒र्या॑ वोचं प्रथ॒मा कृ॒तानि॑ । स॒ती॒नम॑न्युरश्रथायो॒ अद्रिं॑ सुवेद॒नाम॑कृणो॒र्ब्रह्म॑णे॒ गाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्व्याणि॑ । प्र । नू॒नम् । वी॒र्या॑ । वो॒च॒म् । प्र॒थ॒मा । कृ॒तानि॑ । स॒ती॒नऽम॑न्युः । अ॒श्र॒थ॒यः॒ । अद्रि॑म् । सु॒ऽवे॒द॒नाम् । अ॒कृ॒णोः॒ । ब्रह्म॑णे । गाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त इन्द्र पूर्व्याणि प्र नूनं वीर्या वोचं प्रथमा कृतानि । सतीनमन्युरश्रथायो अद्रिं सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे गाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । इन्द्र । पूर्व्याणि । प्र । नूनम् । वीर्या । वोचम् । प्रथमा । कृतानि । सतीनऽमन्युः । अश्रथयः । अद्रिम् । सुऽवेदनाम् । अकृणोः । ब्रह्मणे । गाम् ॥ १०.११२.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तेरे (पूर्व्याणि वीर्या) सनातन बलकर्मों का (नूनं प्र प्र वोचम्) पुनः-पुनः प्रवचन करता हूँ (प्रथमा कृतानि) जो तूने प्रमुखरूप से किये हैं (सतीनमन्युः) जल के समान मृदु दीप्ति जिसकी है, ऐसा शान्त ज्योतिवाला तू (अद्रिम्) श्लोककर्त्ता-वेदवक्ता को (अश्रथयः) हमारे लिये उपदेशार्थ छोड़े या स्वतन्त्र कर (ब्रह्मणे) ब्राह्मण के लिये (सुवेदनां गाम्) अच्छी ज्ञान देनेवाली वाणी को (अकृणोः) प्रकाशित कर ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा के बल कार्य पूर्व से चले आये हैं, उनका प्रवचन करना चाहिये, वह शान्त तेजवाले वेदवक्ता को हमारे लिये भेजता है तथा चतुर्वेदवक्ता के लिये सुज्ञान देनेवाले ब्राह्मण के लिये भी प्रकाशित करता है ॥८॥

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    विषय

    सतीनमन्युः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (पूर्व्याणि) = पालक व पूरक (वीर्या) = सामर्थ्यो का (नूनम्) = निश्चय से (प्रवोचम्) = शंसन करूँ तथा आपके (प्रथमा) = अत्यन्त विस्तारवाले व सर्वश्रेष्ठ (कृतानि) = कर्मों का (प्र वोचम्) = प्रतिपादन करूँ । आपके वीर्यों व कर्मों का प्रवचन करते हुए आपकी महिमा को हृदय में धारण करूँ। [२] आप (सतीन मन्युः) = [सतीनम् उदकम् ] उदक के समान शान्त ज्ञानवाले हैं। आपका ही ज्ञान-जल उपासकों के हृदयों में प्रवाहित होकर उन्हें शान्त व पवित्र बनाता है। आप ही हमारे (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (अश्रथायः) = ढीला करते हैं, इसका हिंसन आप ही करते हैं । आप (ब्रह्मणे) = ज्ञानी पुरुष के लिए( गाम्) = इस अर्थों की प्रतिपादिका ज्ञान वाणी को (सुवेदनाम्) = सुगमता से (ज्ञेय अकृणोः) = करते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में देवों के मुख्य ब्रह्मा को भी अग्नि आदि के द्वारा प्रभु ही ज्ञान प्राप्त कराते हैं 'यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै' [श्वेताश्वतर ६ । १८ ] । यह ज्ञानजल ही गुरु-शिष्य परम्परा से प्रवाहित होता हुआ हमें भी प्राप्त होता है। यही हमारे जीवनों को पवित्र करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के सामर्थ्य व कर्म अद्भुत हैं । वे ही हमें ज्ञान को प्राप्त कराते हैं और हमारे अविद्यान्धकार को विनष्ट करते हैं ।

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    विषय

    प्रभु के गुणों और अद्भुत कर्मों पर भक्तों का मुग्ध होना और उससे अज्ञान के नाश की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे वाणी, ऐश्वर्य, जल, अन्न आदि के गुरु, स्वामी, मेघ, भूमि, सूर्य आदि के तुल्य देने हारे प्रभो ! स्वामिन् ! आत्मन् ! (ते) तेरे (पूर्व्याणि) पूर्व विद्वानों से उपदिष्ट, दृष्ट वा सर्वश्रेष्ठ, पूर्ण शक्ति से युक्त, सबको पालन पूरण करने वाले (वीर्याणि) अनेक वीर्यों, बलों तथा विशेष रूप से प्रवचन योग्य, ज्ञानोपदेशों को और (प्रथमा कृतानि) सबसे पूर्व, सर्वोत्तम रूप से किये कर्मों को (तूयम्) अवश्य ही मैं (प्र वोचम्) अच्छी प्रकार कहूं, अन्यों को उनका उपदेश करूं। (सतीन-मन्युः) जल प्रदान करने की शक्ति से युक्त वा जल को रश्मियों में थाम लेने वाला सूर्य जिस प्रकार (अद्रिम्) मेघ को (अश्रथयः) खण्डित, छिन्न भिन्न करता है, और वह (गाम् ब्रह्मणे सुवेदनाम् अकृणोत्) भूमि को अन्न को उत्तम रीति से प्राप्त करने वाली बनाता है उसी प्रकार हे प्रभो ! तू (सतीन-मन्युः) जलवत्, स्वच्छ शान्तिप्रद, तृप्तिदायक, ज्ञान से सम्पन्न होकर (अद्रिम्) अभेद्य अज्ञान को (अश्रथयः) ढीला कर। और (ब्रह्मणे) वेद की (सु-वेदनाम्) उत्तम ज्ञानप्रद वाणी का (अकृणोः) गुरुवत् उपदेश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते-पूर्व्याणि वीर्या नूनं प्र-प्र वोचम्) सनातनानि वीर्याणि कर्माणि प्रवदामि (प्रथमा-कृतानि) यानि त्वया प्रमुखानि कृतानि (सतीनमन्युः) सतीनं जलमिव “सतीनम्-उदकनाम” [निघ० १।१२] मन्युदीर्पनं यस्य तथाभूतस्तरलतेजस्कः शान्तज्योतिष्कस्त्वं (अद्रिम्-अश्रथयः) श्लोककर्त्तारम् “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ० १।५] उपदेशकर्त्तारं वेदमस्मदर्थं विमोचय (ब्रह्मणे सुवेदनां गाम्-अकृणोः) ब्राह्मणाय सुवेदयित्रीं वाचं प्रकाशितां कुरु ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, I celebrate and glorify your eternal manifestations of might and the highest exploits you have ever before accomplished. Lord of essential power and passion, you break the cloud, open the mountains, and you break the deep silence of the night of annihilation and proclaim the Word for the men of vision and wisdom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराचे बलयुक्त कार्य पूर्वीपासून चालत आलेले आहे. त्यांचे प्रवचन (विवरण) केले पाहिजे. तो शांत, तेजस्वी वेदवक्त्याला आमच्यासाठी पाठवितो. व चतुर्वेदवक्त्यासाठी व उत्तम ज्ञान देणाऱ्या ब्राह्मणासाठीही ते ज्ञान प्रकाशित करतो. ॥८॥

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