ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 6
ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दं ते॒ पात्रं॒ सन॑वित्तमिन्द्र॒ पिबा॒ सोम॑मे॒ना श॑तक्रतो । पू॒र्ण आ॑हा॒वो म॑दि॒रस्य॒ मध्वो॒ यं विश्व॒ इद॑भि॒हर्य॑न्ति दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ते॒ । पात्र॑म् । सन॑ऽवित्तम् । इ॒न्द्र॒ । पिब॑ । सोम॑म् । ए॒ना । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । पू॒र्णः । आ॒ऽहा॒वः । म॒दि॒रस्य॑ । मध्वः॑ । यम् । विश्वे॑ । इत् । अ॒भि॒ऽहर्य॑न्ति । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं ते पात्रं सनवित्तमिन्द्र पिबा सोममेना शतक्रतो । पूर्ण आहावो मदिरस्य मध्वो यं विश्व इदभिहर्यन्ति देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । ते । पात्रम् । सनऽवित्तम् । इन्द्र । पिब । सोमम् । एना । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । पूर्णः । आऽहावः । मदिरस्य । मध्वः । यम् । विश्वे । इत् । अभिऽहर्यन्ति । देवाः ॥ १०.११२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तेरे लिये (इदं पात्रम्) यह पानस्थान हृदय (सनवित्तम्) सनातन-सदा से प्राप्त है (शतक्रतो) हे बहुत कृपा करनेवाले-दया बुद्धिवाले (एना) इससे (सोमम्) उपासनारस को (पिब) ग्रहण कर-स्वीकार कर (मदिरस्य) हर्षकारी (मध्वः) मधुर का (पूर्णः) पूर्ण (आहावः) पानाशय-पीने का स्थान है (यम्) जिसको (विश्वेदेवाः) सब उपासक, विद्वान् (इत्-अभिहर्यन्ति) तेरे पीने को देने की इच्छा करते हैं ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा बहुत कृपा करनेवाला है, उसे अपने उपासनारस को समर्पित करने के लिये हृदय में आह्वान करना चाहिये-बुलाना चाहिये, हृदय ही उसके उपासनारस के पान करने का स्थान है ॥६॥
विषय
मदिर मधु से परिपूर्ण 'आहाव'
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (इदम्) = गत मन्त्र में वर्णित यह (ते) = तेरा (पात्रम्) = शरीररूप पात्र (सनवित्तम्) = सनातन धनवाला हो। 'सोम' ही इसका सनातन धन है। शरीर का रक्षण धारण वर्धन सब इस सोम पर ही निर्भर करता है। हे शतक्रतो ! शतवर्ष पर्यन्त ज्ञान व शक्तिवाले जीव ! तू (एना) = इस शरीररूप पात्र से (सोमं पिबा) = सोम का पान कर। यह सोम ही तो तेरा वास्तविक धन है । [२] तेरा यह शरीर (आहाव:) = निपान हो [ tough], वह द्रोण पात्र हो जो (मदिरस्य) = आनन्द के जनक (मध्वः) = अत्यन्त मधुर इस सोम से (पूर्णः) = भरा हुआ हो । यही मदिर मधु से परिपूर्ण आहाव वह है (यं अभि) = जिसकी ओर (इत्) = निश्चय से (विश्वे देवाः) = सब देव (अभिहर्यन्ति) = आने की कामना करता है। शरीर को हम सोम से परिपूर्ण आहाव बनाएँ तो हमें सब दिव्यगुण अवश्य प्राप्त होंगे। हमारा यह शरीर देवों का निवास स्थान बन जाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- सोम [वीर्य] ही इस शरीर का सनातन धन है। शरीर में सोम का रक्षण होने पर यहाँ सब दिव्यगुणों का वास होता है। यह शरीर हमारा वह आहाव [द्रोण पात्र] हो जो मदिर मधु से परिपूर्ण हो, जिसका पान करने के लिए सब देव यहाँ आएँ ।
विषय
आत्मा का ब्रह्मानन्द-रस रूप सोमपान।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! हे (शत-क्रतो) अनेक,अपरमित ज्ञानों और सामर्थ्यों के स्वामिन् ! (इदं सन-वित्तम् पात्रम्) यह तेरा अनादि काल से प्राप्त पात्र है, यह तेरा तप द्वारा उपार्जित-पालन सामर्थ्य है, यह तेरा अनादि ज्ञान वेद द्वारा, विज्ञात पालनीय तत्त्व वा रूप है। (एना) इससे (सोमम् पिब) सोम रूप आनन्द रस का पान कर। यह (मदिरस्य मध्वः) अति हर्षदायक मधुर अन्न वा जल के तुल्य सुखप्रद अमृत का (आहावः) भरा कटोरा है (यम्) जिसको (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् देवगण, सूर्यादि लोक और देह में इन्द्रियगण (इत्) भी (अभि हर्यन्ति) सदा चाहते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते-इदं-पात्रं सनवित्तम्) तुभ्यमिदं पानस्थानं हृदयं सनात् सदातनात् प्राप्तमस्ति (शतक्रतो पिब एना सोमम्) हे बहुकृपाकर्मवन् दयाबुद्धिमन् ! एतेनोपासनारसं पिब गृहाण स्वीकुरु (मदिरस्य-मध्वः पूर्णः-आहावः) हर्षकरस्य मधुरस्य पूर्णः पानाशयोऽस्ति (यं विश्वे देवाः-इत्-अभिहर्यन्ति) यं सर्वे देवा-उपासका हि तव पानाय दातुं कामयन्ते ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of infinite action, this heart and soul is ever dedicated to you, pray accept and enjoy the love and homage presented by the celebrant. Over flowing is the heart and soul with ecstatic joy and honey sweets of devotion which all divinities of heaven and earth love and cherish.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अत्यंत कृपा करणारा आहे. त्याला आपला उपासना रस समर्पित करण्यासाठी हृदयात आव्हान केले पाहिजे. आमंत्रित केले पाहिजे. हृदयच त्याच्या उपासनारसाचे पान करण्याचे स्थान आहे. ॥६॥
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