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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शतप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वृ॒त्रेण॒ यदहि॑ना॒ बिभ्र॒दायु॑धा स॒मस्थि॑था यु॒धये॒ शंस॑मा॒विदे॑ । विश्वे॑ ते॒ अत्र॑ म॒रुत॑: स॒ह त्मनाव॑र्धन्नुग्र महि॒मान॑मिन्द्रि॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒त्रेण॑ । यत् । अहि॑ना । बिभ्र॑त् । आयु॑धा । स॒म्ऽअस्थि॑थाः । यु॒धये॑ । शंस॑म् । आ॒ऽविदे॑ । विश्वे॑ । ते॒ । अत्र॑ । म॒रुतः॑ । स॒ह । त्मना॑ । अव॑र्धन् । उ॒ग्र॒ । म॒हि॒मान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृत्रेण यदहिना बिभ्रदायुधा समस्थिथा युधये शंसमाविदे । विश्वे ते अत्र मरुत: सह त्मनावर्धन्नुग्र महिमानमिन्द्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृत्रेण । यत् । अहिना । बिभ्रत् । आयुधा । सम्ऽअस्थिथाः । युधये । शंसम् । आऽविदे । विश्वे । ते । अत्र । मरुतः । सह । त्मना । अवर्धन् । उग्र । महिमानम् । इन्द्रियम् ॥ १०.११३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (वृत्रेण) आक्रमणकारी (अहिना) भलीभाँति हनन करने योग्य शत्रु के साथ (युधये) युद्ध करने के लिये (आयुधा) शस्त्रों का (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (समस्थिथाः) हे राजन् ! तू सम्यक् स्थिर होता है-तैयार होता है (शंसम्) बलप्रशंसन को (आविदे) भलीभाँति जानने के लिये-प्रदर्शित करने के लिये (अत्र) इस अवसर पर (विश्वे मरुतः) सब सैनिक (त्मना सह) तेरे आत्मा के साथ (उग्र) हे प्रतापी बलशाली राजन् ! (ते महिमानम्) तेरे महत्त्ववाले (इन्द्रियम्) इन्द्र अर्थात् राजा के शासन या राष्ट्र को (अवर्धन्) बढ़ाते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    राजा जब आक्रमणकारी मारने योग्य शत्रु के लिये शस्त्रों को धारण करता हुआ अपने बल को प्रदर्शित करते हुए तैयार होता है, तो सारे सैनिक लोगों को भी उसके साथ तैयार होना चाहिये राष्ट्र की समृद्धि के लिये ॥३॥

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    विषय

    युद्ध-सज्जा

    पदार्थ

    [१] हे (उग्र) = तेजस्विन् जीव ! (यद्) = जब (अहिना) = साँप की तरह डसनेवाले [आहन्ति] (वृत्रेण) = ज्ञान के आवरणभूत काम से, (आयुधा) = इन्द्रियों, मन व बुद्धिरूप आयुधों को धारण करता हुआ तू (युधये) = युद्ध के लिए (सं अस्थिथा:) = उपस्थित होता है । उस समय (आविदे) = सब ज्ञानों की प्राप्ति के लिए तू (शंसम्) = प्रभु के गुणों के शंसन व उपासना में स्थित होता है । [२] ऐसा करने पर (अत्र) = इस जीवन में (विश्वे मरुतः) = सब प्राण (त्मना सह) = आत्मा के साथ (ते) = तेरी (महिमानम्) = पूजा की वृत्ति को तथा (इन्द्रियम्) = बल को (अवर्धन्) = बढ़ाते हैं । यदि हम इन्द्रियों, मन व बुद्धि को आश्रित करके कामादि शत्रुओं के साथ युद्ध में जुट जाएँ और प्रभु के गुणगान में प्रवृत्त रहें तो प्राणसाधना करते हुए हम जहाँ शक्ति को प्राप्त करेंगे वहाँ अपनी महिमा को भी बढ़ा पाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य का कर्त्तव्य है कि [क] कामादि शत्रुओं से युद्ध में प्रवृत्त रहे, [ख] प्रभु के गुणों का शंसन करे, [ग] प्राणसाधना को अवश्य करे। ऐसा करने पर उसे महिमा व शक्ति प्राप्त होगी।

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    विषय

    संग्राम क्यों किया जाय ? उस समय प्रजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (युधये) युद्ध के लिये (आयुधा) नाना युद्ध के साधनों, शस्त्रास्त्रा को (बिभ्रद्) धारण करता हुआ, हे ऐश्वर्यवन् ! तू (यत्) जब (अहिना वृत्रेण) सामने से आने वाले शत्रु के साथ (शंसम् आविदे) अपनी कीर्त्ति को प्राप्त करने के लिये वा अपनी आज्ञा को मनवाने के लिये (सम् अस्थिथाः) संग्राम करता है (अत्र) इस अवसर में (विश्वे मरुतः) समस्त बलवान् मनुष्य (सह) एक साथ (त्मना) आत्म सामर्थ्य से (ते) तेरे (उग्रं महिमानम्) उग्र, महान् सामर्थ्य को और (इन्द्रियं) इन्द्रोचित महान् ऐश्वर्य को (अवर्धन्) बढ़ाते हैं। (२) इसी प्रकार जब सूर्य मेघ को छिन्न-भिन्न करता है तब वायुगण उसके तेज की वृद्धि करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शतप्रभदनो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ५ जगती। ३, ६, ९ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ७, ८ आर्चीस्वराड् जगती। १० पादनिचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्-वृत्रेण-अहिना युधये) यदा आक्रमणकारिणा समन्ताद्धन्तव्येन शत्रुणा स योधनाय (आयुधा-बिभ्रत्) आयुधानि शस्त्राणि धारयन् (समस्थिथाः) सन्तिष्ठसे हे इन्द्र राजन् ! (शंसम्-आविदे) बलप्रशंसनं समन्ताद् वेदनाय-ज्ञापनाय ‘आङ् पूर्वकाद् विदधातोः केन् प्रत्ययः” “कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः” [अष्टा० ३।४।१४] तदा (अत्र) अस्मिन्नवसरे (विश्वे मरुतः) सर्वे सैनिकाः (त्मना सह) त्वदात्मना सह (उग्र) हे-उद्गूर्णबल ! इन्द्र ! (ते महिमानम्-इन्द्रियम्-अवर्धन्) तव महत्त्ववन्तं राजशासनं राष्ट्रं वा वर्धयन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When against forces of darkness and serpentine crookedness you bear weapons and stand firm to fight, win all agreement, approval and admiration that all is well, then, O blazing lord of might and glory, all the Maruts, vibrant powers of nature and humanity in the world, together with their heart and soul join and exalt your greatness and the magnanimity of your majesty of mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा जेव्हा आक्रमणकारी मारण्यायोगय शत्रूसाठी शस्त्रांना धारण करत आपले बल प्रदर्शित करत तयार होतो तेव्हा संपूर्ण सैनिकांनीही राष्ट्राच्या समृद्धीसाठी त्याच्याबरोबर तयार झाले पाहिजे. ॥३॥

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